सांयकाल के लगभग हम टर्की की सीमा पर पहुंचे. सीमा पर यात्रियों की भीड़ लगी हुई थी. रात के 10 बजे के लगभग हमें ईरान में प्रवेश करने दिया गया.
तेहरान में अस्तित्व की लड़ाई
यात्रा एक नशा है और यह नशा संसार के अन्य नशों से खतरनाक है. एक बार आपने इसका स्वाद चखा और फिर हमेशा के लिए यह संसार आपके लिये महत्वपूर्ण हो जायेगा. अन्य नशों को करके आप वापसी अपने सामान्य स्थिति में आ जाते हैं, पर यात्रा का नशा वह बिंदु है जहां से लौटना संभव नहीं.
यात्रा में मानसिक स्थिति हमेशा एक सी नहीं रहती है. कभी नैराश्य के बादल छाये रहते हैं तो कभी आत्मविश्वास एवं आनन्द की अनुभूति होती है. हमारी मानसिक स्थिति यात्रा के अन्तिम चरण में काफी अस्वस्थ हो चुकी थी. हममें वह जोश नहीं था जो यात्रा के प्रारम्भ मंे था. हमें नशे की आवश्यकता पड़ने लगी थी. इसका कारण क्या था? मैं सोचता हूं कि सैक्सुअल फ्रस्टेशन हम पर छाया हुआ रहता था, क्योंकि योरोप की उन्मुक्त लड़कियों से हमारे सुर नहीं मिल पाते थे. नैनीताल के बन्द समाज में हमारा उन्मुक्तता से परिचय नहीं हो पाया था, पर मैं अब यह अनुभव करने लगा हॅूं कि जीवन में उन्मुक्तता का क्या महत्व है.
यूं ही अपने आप में खोये, अपने आसपास के कुर्दिस गांवों को देखते हुए हम एक दिन टर्किश सीमा को पार करके ईरान पहूंचे. योरोप को छोड़कर सीमा चौकी का वातावरण हर जगह घुटन वाला होता है. रात के 10 बजे के लगभग हमने ईरान की भूमि पर कदम रखा. आस-पास कहीं भी आवास की व्यवस्था न पाकर एक टैक्सी करके ईरान के निकटतम शहर की ओर चल पड़े. उसने दुगने पैसे मांगे और हमें देने पड़े. रात के 11 बजे हम सीमा के पास के शहर में पहुंचे. रमजान के दिन थे अतः मुस्लिम राष्ट्रों में रात को काफी रौनक दिखाई देती थी. हमने देखा कि बाजार में काफी दुकाने खुली है. हमने एक होटल में कमरा लिया और अपना सामान छोड़कर बाजार घूमने निकल पड़े. हमारी शीघ्र ही कुछ ईरानी लड़कों से मित्रता हो गयी. टूटी-फूटी अंग्रेजी में वार्तालाप हो रहा था, शायद लड़के कुछ भी नहीं समझ रहे थे पर चरस के नशे में होने के कारण हंसते रहते थे. हमारे होटल मैनेजर भी काफी रोचक व्यक्ति था, फारसी भाषा में कुछ न कुछ मजाक करता ही रहता था, पर हम कुछ भी नहीं समझ पा रहे थे कि वह क्या कह रहा है. हर बात में एक ही उत्तर होता था ‘कुर्बाने शुमा’ अर्थात ‘तुम पर कुर्बान हो गये’. मध्यपूर्व के लोग काफी जिन्दादिल होते हैं. उनको जीवन की चिन्ताएं अधिक नहीं रहती हैं. पश्चिमी समाज की तरह मानसिक तनाव इनकी कोई समस्या नहीं है.
एक रात हम ईरान के कृर्दिस क्षेत्र में बसे इस छोटे से शहर में रहे. सुबह देखा कि शहर एक बहुत बड़ी चट्टान के नीचे बसा है. एक-दो दिन रहने लायक था, पर समय कम था या कहिये कि हम घर की ओर भाग रहे थे और हम प्रातःकाल 8 बजे की बस से तेहरान के लिए निकल पड़े. रास्ते में ईरान के सबसे सुन्दर शहर टैब्रीज में हमारी बस रुकी यह शहर संसार में अपनी कालीन निर्माण कला के लिए प्रसिद्ध है. यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य यहां के कालीनों में कला के रूप में झलकता है. थोड़ी देर एक-दो दुकानें और यहां के निवासियों को देखकर हम अपनी बस में बैठकर तेहरान के लिए निकल पड़े.
रास्ते में जहां कहीं भी बस रूकती, हम तीनों बस से बाहर आकर कुछ न कुछ खाते रहते, वरना एक-एक सिगरेट अवश्य पीते. ईरान के चायखाने मुझे सबसे अधिक रोचक लगते थे, जिनमें हर समय भीड़ लगी रहती थी. हर मेज पर प्लेटों में ‘सुगर क्यूब्स’ रखे रहते हैं और आर्डर देने पर काली चाय तथा हुक्का लम्बे से पाइप के साथ पेश किया जाता है. हम हुक्के और काली चाय का खूब आनन्द लेते थे. पूरी यात्रा इतनी रोचक रही कि कब तेहरान आ गया पता नहीं चला.
दूसरे दिन रात के दो बजे के आसपास हम ईरान की राजधानी तेहरान पहॅुंचे. रात के घोर अन्धकार में तेहरान की टिमटिमाती रोशनियां बड़ी सुन्दर दिखाई दे रही थीं. हर यात्री खामोशी से तेहरान के बदनाम इलाके ‘अमीर कबीर स्ट्रीट के फुटपाथ में सो गये. यात्रा की थकान बहुत थी अतः ऐसी नींद आयी ओर बस नींद में हमारे साथ ऐसी विचित्र घटना घटी जिसने हमें अनुभवी यात्रा बना दिया. तेहरान के किस्से बहुत सुने थे, पर विश्वास तब हुआ, जब सुबह आंख खुलने पर देखा कि मेरा और योगेश का पिट्ठू गायब है, पर राजा का पिट्ठू इसलिए बच गया क्योंकि वह पिट्ठू का सिरहाना बनाकर सोया हुआ था. पिट्ठू खोने का तो कोई विशेष दुःख नहीं हुआ, पर सबसे अधिक दुःख हुआ अपनी डायरी का और चन्द तस्वीरों का, जो मैनें बड़े परिश्रम से रोम, फ्लोरेंस, वेनिस, बेल्ग्रेड और इस्तानबूल में खींची थीं. मैंने स्वंय कुछ तस्वीर हालीवुड स्टार टानी कर्टिस की वेनिश में एक इंग्लिश फिल्म की शूटिंग के दौरान खींची थीं. इस सबको एक अनुभव मानकर हम अफगानिस्तान के लिए वीसा लेने चल पड़े. दो दिन बाद वीसा मिलने वाला था, अतः एक-दो दिन तेहरान में घूमने की योजना बनाई. वैसे तेहरान शहर में हम पिछले काफी समय भी घूम चुके थे. हमें कुछ ईरानी मित्रों ने, एक सांस्कृतिक कार्यक्रम जिसे ‘थोर्ना’’ कहते हैं, देखने के लिए आमन्त्रित किया. सांस्कृतिक कार्यक्रम कुछ अजीब लगा. मेहमानों को अफीम, चरस, जलेबी और काली चाय पेश की जा रही थी और बीच में खड़े होकर कुछ लोग राजा और प्रजा का अभिनय कर रह थे. हम भी मेहमान थे, अतः हमें भी सभी कुछ पेश किया गया. मेजबान को हम नाराज नहीं करना चाहते थे, अतः‘ अनुभव के लिए जो कुछ भी खाने-पीने को मिला निश्चिन्त होकर सेवन किया. रात काफी हो चुकी थी, अतः फिर ‘अमीर कबीर स्ट्रीट’ के फुटपाथ में जाकर सो गये. राजा अपना पर्स व अपनी पेटी अच्छी तरह बांध चुका था और मैं भी पासपोर्ट एवं काबुल से अमृतसर तक का एयर टिकट अपनी अन्डरवीयर के अन्दर रख चुका था. पर उस रात जो हुआ उसने हमें पूरे ढाई महीने के लिए तेहरान में रोक लिया. सुबह आंख खुली तो देखा कोई राजा की पेटी से पर्स सहित 1400 रुपया लेकर चलता बना. हम तो यात्री थे, अतः हमें कोई विशेष मानसिक तनाव नहीं हुआ. मेरे पास लगभग 24 रुपये बचे थे अतः सबसे पहले नाश्ता किया और एकदम फक्कड़ हो गये.
अन्तिम फैसला यह हुआ कि कुछ समय तेहरान में रहकर धनार्जन किया जाये. एक अनुभवी सरदार जी के प्रयास से शीघ्र एक गैस स्टोव बनाने की फैक्ट्री में नौकरी लग गई. कुछ दिन तो काम चलता रहा. पर एक दिन हमारे मित्र योगेश ने फोरमैन के एक घूंसा मार दिया. इतना होना था कि सभी ईरानी मजदूरों ने योगेश पर लोहे की सलाखों से आक्रमण कर दिया. मित्र को मौत के इतने करीब देखकर हम दोनों भी बीच में कूद पड़े. कुछ चोट हमें भी आई, पर सेठ ने आकर मामला रुकवा दिया. हमें हमारे पासपोर्ट और कुछ पैसा देकर तुरन्त फैक्ट्री छोड़ने की आज्ञा दे दी गयी. अस्पताल में जाकर हमने मलहम पट्टी करवाई और तेहरान के नदालत होटल की ओर निकल पड़े. दो-चार दिन भटकने के बाद हमारी नौकरी एल्यूमिनियम के बर्तन बनाने की फैक्ट्री में लगी. काम गन्दा था. कपड़ा और शरीर बिल्कुल काले हो जाते थे, पर वातावरण में एक आत्मीयता थी, अतः समय अच्छा गुजर रहा था. बीच-बीच में हम भारतीय दूतावास में जाकर अपनी गैस-स्टोव वाली फैक्ट्री से बकाया बचे 1000 रुपये दिलवाने के लिए अधिकारियों से मिलते रहते थे, पर भारतीय दूतावास तो हर जगह असहाय ही दिखाई देता है! हमारा पैसा नहीं मिल पाया.
एक दिन हमारी मुलाकात एक भारतीय युवक से हुई जो कि पंजाब का रहने वाला था तथा मकान निर्माण की कम्पनी में बिजली की फिटिंग के छोटे-मोटे ठेके लिया करता था, उसके अनुरोध और आकर्षक वेतन को देखकर हम उसके साथ काम करने लगे. हमें वह कभी-कभी ओवरटाइम भी दिया करता था. हमारी उससे शीघ्र अच्छी मित्रता हो गई, पर वैचारिक मतभेद के कारण दिल के बहुत करीब नहीं आ पाये. वह घूमने-घामने को बकवास कहता था और जीवन में धर्नाजन को ही प्राथमिकता देता था. उसकी कम्पनी में रहने की व्यवस्था ठीक नहीं थी. हमें एक नवनिर्मित रसोई में सोना होता था. जाड़ों के दिनों में तेहरान में बहुत ठंड पड़ती है. तापमान शून्य के नीचे ही रहता है, अतः हमारे कमरे की टाइल्स बहुत ठंडी हो जाती थी, शरीर को गर्म रखने के लिए, जिससे नींद आ सके हम शराब पीते रहते थे. सुबह 6 बजे उठना और काम पर जाना बहुत कष्टकारी लगता था. आज मैं सोचता हूं जितना कठिन परिश्रम हमने तेहरान में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किया उतना शायद अब कभी करने की आवश्यकता न पड़े.
राम कहानी सिटी न्यायालय तेहरान में
इन थोड़े दिनों के संघर्ष के बाद हमारे पास पर्याप्त पैसा आ गया था. हमने एक बार फिर नौकरी छोड़ दी तथा फिर से उन्मुक्त यात्रियों की तरह तेहरान में घूमने लगे. कभी अंग्रेजी सिनेमा देखते, कभी पार्कों में बैठै रहते तो कभी-कभी शराबखानों में बैठकर जीवन का आनन्द लिया करते थे. तेहरान के शराबखानों में बड़ी भीड़ रहती है और शहर के सभी लोग जिन्हे पीने का शौक है सांयकाल यहां आकर बैठ जाते हैं. यहां हमारी काफी लोगों से मित्रता हो गयी थी. समस्या हमारे सामने एक थी निकास वीसा मिलने की क्योंकि हम बिना वीसा दो माह से अधिक ईरान में रह चुके थे. कानूनी कार्रवाई हुई, हमारा मामला तेहरान सिटी न्यायालय में गया और एक दिन हमें न्यायाधीश के सामने पेश होना पड़ा. वैसे हम तीनों यात्रियों को पकड़े जाने, जेल जाने या मौत की कभी चिन्ता नहीं रहती थी. हमने न्यायाधीश को अपनी राम कहानी सुनाई. पुलिस में लिखवाई चोरी की रिपोर्ट सबूत के रूप में हमारे पास थी. अतः न्यायाधीश को मामला समझने में अधिक समय नहीं लगा हमें 15 दिन के अन्दर ईरान छोड़ने की आज्ञा और प्रति व्यक्ति 250 रुपये आर्थिक दण्ड भरना पड़ा. हम लोग प्रति व्यक्ति 1000 रुपये दण्ड की कल्पना किये हुए थे. अतः एक बार फिर खुशी से झूम उठे.
तेहरान में मेहनत मजदूरी करने के कारण हमारी काफी भारतीय मित्र हो गये थे, जो समय पर हमें हर सहायता देने के लिए तैयार रहते थे, हां अगर वह आर्थिक सहायता न हो. वैसे हमने अपनी पूर्ण यात्रा में कभी भी आर्थिक सहायता के लिए किसी से कहा भी नहीं अतः कोई पूर्व विचार बना लेना मैं ठीक नहीं समझता. इन्ही भारतीय मित्रों से एक दिन हम विदाई लेकर रेल द्वारा मेहसद शहर के लिए चल पड़े. ईरान की रेलें हर आधुनिक सुविधायें यात्रियों को देने का पूर्ण प्रयास करती हैं. अतः ईरान में रेल का सफर काफी रोचक लगता है. हमारे सहयात्रियों में एक अत्यन्त सुन्दर नारी भी थी, जो कि तेहरान से मेहसद जा रही थी. भाषा की महान समस्या के कारण हम लोग एक असीम शांति लिए हुए बैठै रहे पर कभी भी आभास नहीं हुआ कि कब दिन गुजर गया और कब रात आ गयी. दूसरे दिन सुबह 5 बजे हम मेहसद शहर पहुंचे. मेहसद इस्लामी धार्मिक शिक्षा का केन्द्र है. यहां पर एक बहुत बड़ा विद्यालय है जो केवल इस्लाम की शिक्षा देता है. शहर का वातावरण भी काफी धार्मिक रूप लिए हुए दिखाई देता है. जगह-जगह लम्बी दाढ़ी वाले मुल्ला माला जपते दिखते हैं.
सुबह-सुबह पूरे मेहसद में हलकी सी धुंध छायी हुई थी. हम लोग केवल दो ही घण्टे यहां पर रुके ओर पहली बस से ईरान की सीमा की ओर निकल पड़े. मेहसद से ईरान की सीमा तक का मार्ग सुन्दर पर वीरान मैदानी इलाके से होकर गुजरता है. यहां पर खेती का प्रचलन भी बहुत कम है. अतः आबादी नहीं के बराबर है. कहीं-कहीं दूर वीरान मैदानों में भेड़ पालने वाले दिखाई देते थे, जिनका प्राकृतिक जीवन देखकर उन्हीं के साथ रहने की हम तीनों की अभिलाषा होने लगती थी, पर साहस की कमी थी. अतः हम ऐसा कर नहीं पाये. पर आज भी कभी-कभी मैं यादों में अपने आप को कहीं उनके ही बीच पाता हूं. 4 घण्टे की यात्रा के बाद हम लोग ईरान की सीमा पर पहुंचे. कुछ औपचारिकताओं के बाद हमें ईरान से बाहर जाने की इजाजत मिल गयी. अब हम ‘नो मैन्स लैण्ड’ में थे. यहां से मिनी बस द्वारा हमें अफगानिस्तान की सीमा इस्लामकीला तक जाना पड़ा. ईरान और अफगानिस्तान की चैकपोस्टों को देखकर ही दोनों देशों की आर्थिक सम्पन्नता का परिचय मिल जाता है. ईरान की चैकपोस्ट एक आलीशान बिल्डिंग में है, जब कि अफगानिस्तान की टूटे-फूटे मकान में. यही स्थिति भ्रष्टाचार की है. ईरान में चैकपोस्ट पर हमने कोई भ्रष्टाचार नहीं देखा पर अफगानिस्तान का हर तीसरा राजकीय कर्मचारी भिखमंगों की तरह आंखे खोले हुए दिखाई देता है.
इस्लामकीला चैकपोस्ट पर हमारे पासपोर्ट देखे गये और मेडिकल सर्टिफिकेट मांगा गया. पासपोर्ट में तो कोई कमी नहीं थी. पर मेडिकल सार्टिफिकेट में हैजे के इंजेक्शन की मात्रा कम थी, अतः एक भ्रष्ट कम्पाउण्डर हम से कहने लगा कि आप या तो हैजे का इंजेक्शन लगायें वरना आपको चेकपोस्ट पर रोक लिया जायेगा. भ्रष्ट आदमी की कितनी कीमत है, हमें मालूम था. एक विदेशी सिगरेट पिलाकर ही मामला रफादफा हो गया. अफगानिस्तान में हमने अनुभव किया कि पुलिस कर्मचारी भी एक सिगरेट में मान जाते हैं. अतः अफगानिस्तान में कुछ भी करें, बड़े सस्ते में मामला निपट सकता है.
इस्लाम कीला चैकपोस्ट पर कुछ होटल और दुकानें हैं. पुलिस के बड़े अधिकारी का कार्यालय भी यहां पर है, जिससे हम जाते समय मिले भी. यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि पुलिस अधिकारियों को अपने अधिकार तक का समुचित ज्ञान नहीं है. यह स्थिति अब हमारे देश में भी होने लगी है. इसका कारण उन बेराजगारों को रोजगार देना है, जो करना तो कुछ और चाहते थे पर कुछ और ही रहे.
इस्लामकीला से 50 किमी की दूरी पर अफगानिस्तान का प्रसिद्ध शहर हैरात बसा हुआ है. हैरात, कंधार, काबुल को जोड़ने वाली सड़कें अत्यन्त आधुनिक हैं. आधी सड़क रूस द्वारा बनायी गयी है और आधी अमेरिका द्वारा. रूस द्वारा निर्मित सड़क सिमेंट की हैं और अमेरिका द्वारा बनाई गयी सड़क तारकोल की बनी है. इतनी सुन्दर सड़कों में बसों की रफ्तार हमेशा अधिक रहती है. इस्लामकीला और हैरात के बीच में भी अधिकांश भूमि बंजर ही पड़ी है. वहां भेड-बकरी पालने वाले ही दिखाई देते हैं. कहीं-कहीं छोटे-छोटे गांव हैं जिनमें छोटे-छोटे सीमेंट के मकान दिखाई देते हैं. गांवों में चहल-पहल नहीं दिखाई देती पर कहीं बच्चे अवश्य यात्रियों को हाथ हिलाते हुए देखे. रास्ते में बस चाय-पानी और भोजन के लिए अवश्य रूकती है. यहां बैठने के लिए कुर्सियां नहीं, उसके स्थान पर दरियां बिछी रहती हैं. आर्डर देते ही शीघ्र आपके सामने एक नान, सब्जी और मांस का बड़े टुकडे के साथ चावल रख दिये जाते हैं. यह मांस किसका होता है यह जानने का न तो हमने कभी प्रयास किया और न ही आवश्यकता समझी.
सांयकाल जब हमारी बस हैरात पहुंची, थोडा-थोड़ा अंधेरा हो चुका था. एक होटल में जाकर कमरा लिया, जिसमें तीन चारपाइयां और साफ बिस्तरा बिछा हुआ था. रात को नींद अच्छी आयेगी यह कल्पना करके हम होटल के भोजन कक्ष की ओर चल पड़े. भोजन कक्ष में हमारे अलावा अन्य विदेशी यात्री भी दिखाई दे रहे थे जो कि भोजन कक्ष के मद्धिम प्रकाश में चरस पीने और बातचीत में व्यस्त दिखाई दे रहे थे. हमारे इस होटल में कई पश्चिमी समलैंगिक जोड़े भी दिखाई दे रहे थे, पश्चिमी राष्ट्रों से आने वाले लगभग 25 प्रतिशत पर्यटक समलैंगिक होते हैं. पर वे अफगानिस्तान से आगे भारत की ओर शायद कम ही आते जाते हैं. कारण कि उनको चरस चाहिए और स्वतन्त्र वातावरण वह, सब कुछ अफगानिस्तान में मिल जाता है.
(जारी)
पिछली क़िस्त का लिंक: नैनीताल के तीन नौजवानों की फाकामस्त विश्वयात्रा – 9
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