उत्तराखण्ड के गढ़वाल मंडल का श्रीनगर शहर मध्यकाल से ही सिक्कों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध रहा था. उस समय इन सिक्कों को ‘टिमाशास’ कहा जाता था. जब-जब नेपाल या लद्दाख़ के रास्ते तिब्बत के साथ होने व्यापार में कोई अड़चन आती (वर्ष 1815 के बाद) तो नीती-माना से होते हुए तिब्बत का व्यापार मार्ग हिंदुस्तान के लिए महत्वपूर्ण हो जाता और उसी के साथ महत्वपूर्ण हो जाते थे. (History of Printing of Coins in Uttarakhand)
श्रीनगर में बनने वाले सोने-चाँदी के सिक्के. जब-जब मुग़ल-गढ़वाल के बीच तनाव बढ़ता (वर्ष 1870-74) या उत्तराखंड के अंदर ही कुमाऊँ-गढ़वाल (वर्ष 1880 से 1803) या गोरखा (वर्ष 1803 से 1815) के बीच राजनीतिक नोक-झोंक चलती थी तो श्रीनगर-नीती-माणा के रास्ते तिब्बत से होने वाला व्यापार घट जाता था और उसी के साथ घट जाती थी सिक्कों की छपाई.
जब व्यापार बढ़िया चलता था तो ताम्बे के साथ सोने और चाँदी के भी सिक्के छपते. जब व्यापार तबाह हो जाता तो ताम्बे के सिक्कों पर भी आफ़त आ जाती और स्थानीय व्यापारी वस्तुओं का लेन-देन वस्तु विनिमय यानि मालों की अदला-बदली के जरिये किया करते थे. उदाहरण के तौर पर वर्ष 1812 के आसपास ढाई किलो पहाड़ी चावल के बदले एक किलो तिब्बती नमक मिल जाया करता था.
ये सिक्के छपते तो श्रीनगर में थे पर इन सिक्कों की छपाई करने वाले और उन्हें फाइनेंस करने वाले नजीबाबाद के बैंकर हुआ करते थे. जब वर्ष 1880 के बाद पहाड़ों में राजनीतिक तमाशा शुरू हुआ तो इन बैंकरों ने लद्दाख़ का रुख़ कर लिया और वहाँ जौ नामक सिक्के छपवाने लगे. नजीबाबाद के बैंकरों ने फिर कभी दुबारा गढ़वाल का रुख़ नहीं किया लेकिन उनके द्वारा छपवाए गए सिक्के लद्दाख़ के रास्ते तिब्बत पहुँचते रहे और तिब्बत के रास्ते पहाड़ों में भी आते रहे.
स्वीटी टिंड्डे अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन (श्रीनगर, गढ़वाल) में एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं.
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