ईजा का अपने मैत (मायके) से प्रेम होता ही है और मेरा मकोट (ननिहाल) से दो रुपये मिलने का लालच होता था, जो मुझे हर बार मामा या मामी से मिला करता था. ईजा जब मायके जाती थी तो मैं भी बड़ी उत्सुकता से ईजा के साथ अपने ननिहाल (कालीगाँव) जाने के लिए सज-धज जाता था. ईजा को भी रास्ते भर बात करने के लिए एक व्यक्ति साथ में चाहिए होता था जिससे पैदल का सफ़र आसान हो जाता है. मेरे गाँव (रिक्वांसी) से ननिहाल तक का सफ़र उन दिनों पैदल रास्ता ही होता था, जो लगभग चार मील है.
(History Hinola Salt Almora)
एक गांव से दूसरे गांव जाने के लिए जो आज सड़कों का जाल बिछ गया वह तब नहीं था. रास्ते में हिनौला बाज़ार पड़ता है जहां लगभग 20 गांवों के लोगों को रोजमर्रा का सामान उपलब्ध होता था. जैसे ही हिनौला बाज़ार पर मेरी नज़र पड़ती, ईजा से मेरी पहली जिद्द टॉफ़ी लेने की होती थी. ईजा भी मेरी टॉफ़ी लेने की जिद्द को पूरा कर देती थी. रास्ते भर ईजा और मेरी बातचीत में कब इतना लम्बा सफ़र तय हो जाता था पता भी नहीं चलता था. मुँह में टॉफ़ी और हिनौला झूला में हिनोई (झूला झूलना) आज भी इस चित्र को देखकर मानों वैसा ही प्रतीत हो रहा है जैसे बचपन में होता था.
ईजा मुझे हिनौला झूला को प्रणाम करने को कहती थी और ख़ुद भी उसके दोनों खम्भे को दण्डवत प्रणाम कर पाँच पैसा या दस पैसा वहाँ चढ़ाया करती थी. बचपन में बच्चे की आदत होती है कि वह हर बात को जानने की कोशिश करता है, तो मैं भी ईजा से यह सब पूछ लेता था, जैसे: ईजा द्वारा हिनौला झूला को प्रणाम करना, पैसा चढ़ना इत्यादि. ईजा बताती थी जब मैं छोटी थी तब (1930 का दशक) तक यह स्थान मात्र एक ढय्या (वीरान टीला) था. यहाँ पर अकेले मुसाफ़िर को दिन के समय भी डर लगता था. प्राचीन समय में आस्था के चलते धामदेव को यह हिनौला चढ़ाया गया तब से यह आस्था का स्थल बन गया और लोगों के मन से धीरे-धीरे यहाँ का डर भी दूर होता चला गया.
जैसे ही हिनौला बाज़ार से हम आगे बढ़ते, पूरा कालीगाँव नज़र आने लगता था. थोड़ी दूर चलने के बाद ननिहाल की तिवारी दिखाई पड़ जाती थी. ईजा मुझे उस तिवारी की तरफ़ ईशारा कर देखने को कहती थी और कहती- देख (अनु- आनन्द) तेरे मामा तिवारी में बैठे हैं. मेरी ख़ुशी दुगुनी हो जाती थी. मकोट के बेडु रोटी के साथ कटोरी भरकर घी खाने का बड़ा आनंद आता था. वापसी में मामी जेब भरकर कुंज, गट्टे देती थी और मामा से दो रुपए मिलने के बाद मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं होता था.
पहले के समय में हिनौला झूला कनार लकड़ी (साल) के बड़े-बड़े दो खम्भों का होता था. जो लगभग 30-32 फ़ुट ऊँचे दो खम्भे होंगे. ज़मीन में लगभग पांच फ़ुट गहरे दबे होते थे. ऊपर एक मजबूत लकड़ी की चपटी आयताकार मोटी लकड़ी थी जिस पर बड़ी-बड़ी लोहे की ज़ंजीरों का झूला लटका होता था.
पुरानी किवदंती के अनुसार एक खंभा गाँव करगेत-कालीगाँव के लोगों द्वारा लाया जाता था. दूसरा खंभा ग्राम नदोली के लोग लाते थे और ऊपर की लकड़ी जिसपर लोहे के जंजीरों से झूला लटका होता था उसे ग्राम बैला के लोग लाते थे. इस तरह मिल-जुलकर यह झूला तैयार किया जाता था. स्थानीय गाँवों में कत्युरी जागर लगाने के बाद जब लोग चित्रशिला (जिया रानी का स्थान गोला नदी, हल्द्वानी) नहाने से पूर्व में और वापसी में सभी लोग इस हिनौला की पूजा अर्चना करते थे सम्भवतः आज भी यह पूजा होती होगी. इस पूजा के दौरान जिन लोगों पर देवता अवतरित होते थे वे इस हिनौला की परिक्रमा करते थे. हुड़के की थाप और कांसे के थकुले की टंकार के साथ में जय जिया, जय धामू की गूंज से पूरा वातावरण गुंजायमान हो जाता था.
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हिनोला झूला के पास में धामदेव देवता का पहले छोटा सा मंदिर था जिसे आज भव्य बना दिया गया है. यहाँ मंदिर में धामदेव देवता एक हाथ पर ढाल और दूसरे हाथ पर तलवार लिए अपने घोड़े में विराजमान हैं. धीरे-धीरे यहाँ बाज़ार और दुकानें बनने का सिलसिला शुरू हो गया. आज यहाँ ख़ूब चहल पहल रहती है. धामदेव देवता को चढ़ाया गया हिनौला झूला आज पूर्णतः लोहे का है. जो पहले लकड़ी का था.
धामदेव कत्युरी राजा पृथीपाल और जियारानी के अवतारी पुत्र थे. जिन्हें जियारानी ने चित्रेश्वर महादेव के वरदान स्वरूप प्राप्त किया था. राजा पृथीपाल ने दुलाशाही को अपने पुत्र के रूप में सहस्र स्वीकार किया. लेकिन राजा पृथीपाल के सात भाइयों और दरबारियों ने इसका पुरजोर विरोध किया और दुलाशाही को कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा. उन्हें कई यातनाओं का सामना करना पड़ा, उनकी कई परीक्षा ली गई, जिसमें वे सफल होते चले गए और समस्त प्रजा उनके व्यवहार से उनकी तरफ होती चली गई. जन्म से उनका नाम दूलाशाही था जो बाद में धर्म से धामदेव कहलाये. धामदेव का एक नाम सतोंजी भी था. सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने से दुलाशाही को दो नामों से पुकारा जाता है.
धामदेव देवता ने अपने शासन काल में प्रजा के साथ अच्छा व्यवहार किया. इसी कारण उन्हें देवता का स्थान मिला. उन्होंने जगह-जगह पानी के नौले और मन्दिर बनवाये. जो आज भी प्रसिद्ध हैं. हिनौला बाज़ार के नज़दीक शायद एक स्थान है जहाँ पर एक नौला है जिसे स्थानीय लोग “धमध्य” कहते हैं. जय धामदेव देवता.
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नजदीक गांव करगेत में श्री बद्रीनाथ जी का विशाल मंदिर है. यह मंदिर चंदवंश के पचासवें राजा, राजा बाज़बहादुर चन्द (1638-1678) के द्वारा बनाया गया. लगभग 350 साल पुराने लकड़ी और पत्थरों में बेजोड़ नक्कासी से परिपूर्ण इस मंदिर की बनावट देखने लायक है. मन्दिर की दिवारों और चौखटों पर एक खास किस्म की नक्कासी एवं बेजोड़ कला के परिचय के लिए यह मंदिर अपने आप में विशिष्ट है.
अप्रैल महीने का बिखोती, स्यालदे, बैसाखी का तीन दिनों तक चलने वाला प्रसिद्ध मेला करगेत बद्रीनाथ मन्दिर में लगता है. जिसे स्थानीय लोग नान कौथिक, जवान कौथिक और बुड कौथिक के नाम से पुकारते हैं. तीन दिनों तक चलने वाले इस मेले की कुछ झलक आज भी देखने को मिलती है, लेकिन तीन दशक पहले तक यह मेला ख़ूब धूमधाम से होता था, जो इसी हिनौला बाज़ार से शुरू हो जाता था. मेले के दिन इस हिनौला झूले में दूर-दूर से आए लोग अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया करते थे कि कौन सा व्यक्ति कितनी दूर तक झूला झूलने में समर्थ है. एक या दो व्यक्ति झूले को पकड़कर अपनी तरफ़ दूर तक खींचकर ले जाते थे, फिर ज़ोर से धक्का देकर अचानक छोड़ देते थे, जिससे झूले में झूलने वाला व्यक्ति बहुत दूर तक झूला झूल लेता था.
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-आनन्द ध्यानी
मूल रूप से सल्ट, अल्मोड़ा के रहने वाले आनन्द ध्यानी वर्तमान में दिल्ली में रहते हैं. आनन्द ध्यानी से उनकी ईमेल आईडी [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.
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