ईस्ट इंडिया कंपनी का 1815 में उत्तराखण्ड आगमन उत्तराखण्ड में गोरखों के 25 साला सामन्ती सैनिक शाही के अन्त से जुड़ा था. इस दूरस्थ दुर्गम और बिखरी जनसंख्या वाले अपेक्षाकृत बंद समाज में नये शासन के मायने सरलता से समझे जाने संभव न थे. निश्चय ही गोरखों के दमनकारी शासन के अंत की सामान्य जन की प्रसन्नता को कंपनी शासन के स्वागत से जोड़ कर देखा जाता रहा है. आम लोगों ही नहीं तत्कालीन प्रबुद्धों के लिए भी लगभग 13 दशक तक चलने वाली नयी गुलामी की शुरूआत का विश्लेषाण तत्काल संभव न था. नया शासन पूँजीवादी चतुरता, औपनिवेशिक सावधानी और औद्योगिक क्रान्ति से जनित ’समझ’ से युक्त था.
उत्तराखण्ड में 1815 से 1857 तक का कंपनी षासन का दौर सामान्यतः शांत और किसी भी तरह की गितशीलता से वंचित माना जाता है. हर्षदेव जोशी के 1815 में दिवंगत हो जाने से कोई और प्रभावशाली व्यक्तित्व उत्तराखण्ड के समाज का सबल प्रतिनिधित्व करने हेतु तब कदाचित न था. अविभाजित गढ़वाल के राजकुमार सुदर्शन शाह को कंपनी ने आधा गढ़वाल देकर एक प्रकार से मना लिया था. चंद शासन के उत्तराधिकारी यह स्थिति भी प्राप्त न कर सके.
इस समय उत्तराखण्ड के आम समाज की भावना यहाँ के दो कवि पुत्रों ने प्रकट की थी. हालांकि मौलाराम ने ’गणिका’ नाटक लिखा और गुमानी ने लसिंगटन कमिष्नर की प्रषस्ति भी गाई लेकिन उनकी उपलब्ध कविताओं से कंपनी का चरित्र प्रकट होता है. इससें स्थानीय समाज के क्षतिग्रस्त होने का संकेत भी मिलता है.
उत्तराखण्ड के एक और कवि कृष्णा पाण्डे (1800-1850), जो ट्रेल के समकालीन थे और तत्कालीन व्यवस्था के प्रखर आलोचक भी, ने यह जागृति जारी रखी और अपनी कविताओं के माध्यम से कंपनी राज के अन्तर्विरोधों को बखूबी रेखांकित कियाः
कलकत्ता बटि फिरंगि आयो,
जाल जमाल का बीजा बाँघधि लायो.
फिरंगि राजा कलि अवतार,
आपण पाप ले औरन मार.
गहन व्यंग्य से भरे उनके पद सिर्फ कवि का बयान मात्र नहीं कहे जा सकते हैं. इनमें तत्कालीन सामाजिक बैचैनी भी प्रकट होती है. कंपनी के प्रशासकों- ट्रेल तथा अन्य- द्वारा प्रस्तुत नीतियों का विश्लेषण करना यहाँ अभीष्ट नही है, लेकिन ट्रेल के निरंकुश शासन की चर्चा होती रही है. आधुनिक या ब्रिटिश उत्तराखण्ड का एक प्रकार से वह पहला सफल बंदोबस्त अधिकारी, प्रशासक तथा आयुक्त माना जाता है.
1822 में बेगार की कुप्रथा को हटाने तथा खच्चर सेना विकसित करने का प्रयास भी उसने किया था पर अन्ततः बेगार को जारी रखा गया. इसी साल ग्लिन नामक अधिकारी द्वारा पहाड़ी कुलियों (खसियों) की स्थिति, मजदूरी की दरों आदि का विस्तृत सर्वेक्षण किया गया था. कुलियों की दुर्दशा को उजागर करने वाला यह प्रथम दस्तावेज था. सेना आदि की गतिशीलता में अवरोध सम्बन्धी कोई जोखिम कंपनी शासन नहीं लेना चाहता था. इस बीच बेगार की प्रथा के विरोध के अनेक उदाहरण प्री म्यूटिनी रिकार्ड में मिलते हैं. जैसे 1827 में काली कुमाऊँ के एक जर्मीदार ने सैनिक बैरकों के निर्माण हेतु पाथर (स्लेट्स) उपलब्ध कराने से इन्कार कर दिया था. 1830 में लोहाघाट तथा 1832 में पिथौरागढ़ में माँग के मुताबिक कुली नहीं आये. 1837-38 में अल्मोड़ा तथा लोहाघाट में सैनिक दलों को रसद मिलने में बहुत अधिक कठिनाई रही.
1840 में लैफ्टिनैन्ट गवर्नर के दलबल को मसूरी से अलमोड़ा यात्रा हेतु पर्याप्त कुली नहीं मिल सके थे. लोहाघाट के आसपास को ग्रामीणों ने अपने उत्पादों को लोहाघाट छावनी में बेचना बंद कर दिया था क्योंकि उनसे जबरन बर्दायश ले ली जाती थी. साथ ही उन्होंने सैनिक सामग्री ले जाने से भी इन्कार कर दिया था. इस असंतोष का वर्णन तत्कालीन कमिश्नर ने भी किया है.
1844 में सोमेश्वर से अल्मोड़ा के बीच पिलग्रिम को पर्याप्त कुली नहीं मिले. 1850 में जब विषाड़ (पिथौरागढ़) के बेगार मुक्त ग्रामीणों से बेगार ली गयी तो उन्होंने सशक्त विरोध किया और अपने को बेगार मुक्त कराया. 1857 में कुली उपलब्ध कराना सबसे कठिन हो गया और कमिश्नर रामजे को जेल में कैद अपराधियों को इस काम में लगाना पड़ा.
इनमें ज्यादातर व्यक्तिगत आक्रोश थे और अलग-अलग समय तथा स्थानों में यह विरोध प्रकट हुआ था. इससे चाहे व्यापक आन्दोलन का संकेत न मिलता हो पर आम ग्रामीण की बेगार के प्रति अरुचि तथा इससे जनित कष्टों का संकेत इन घटनाओं से मिल जाता है.
1857 में उत्तराखण्ड उतना चुप न था, जितना अक्सर समझ लिया जाता है. 1857 का विद्रोह आधुनिक भारतीय इतिहास की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है. इसे सिपाही विद्रोह, जन विद्रोह या प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में जाना जाता रहा है. ये संबोधन अलग.अलग दृष्टियों से उपजे हैं. लेकिन 1857 की महत्ता सभी स्वीकारते हैं.
उत्तराखण्ड की सशक्त हिस्सेदारी इस विद्रोह में नहीं हो सकी. विद्रोहियों ने अनेक बार पहाड़ों की तलहटी तक पहुँच कर कंपनी के प्रशासनिक केन्द्रों- विशेष रूप से नैनीताल- तक जाने का प्रयास किया. तत्कालीन प्रशासकों की समझ और सक्रियता ने 1857 के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव को रोका. कुमाऊँ में कंपनी शासन को गार्डनर, ट्रेल, गोवन, लुशिंगटन तथा बैटन के नेतष्त्व में 42 साल पूरे हो चुके थे. हेनरी रैमजे को कमिश्नर बने 15 माह हुये थे पर कुमाऊँ में उसे भी 15 से अधिक साल हो गये थे. प्रशासकों को ज्यादा कठिनाई शायद इसलिए भी नहीं रही कि चार दशक पहले गोरखों के ज्यादा दमनकारी शासन से मुक्त हुई जनता अभी औपनिवेशिक दासता और उसके विरोध का अर्थ नहीं समझती थी. पुनर्जागरण और सुधारों की लहर अभी यहाँ पहुँचनी बाकी थी और स्थानीय प्रेस तथा संगठन भविष्य के गर्भ में छिपे थे. दूसरी ओर सुदर्शन शाह ने कंपनी को असाधारण मदद दी.
लेकिन उत्तराखण्ड 1857 से एकदम अप्रभावित था यह कहना भी असंगत है, क्योंकि काली कुमाऊँ के कुछ प्रभावशाली लोग विद्रोहियों के सम्पर्क में थे. विशेष रूप से विशंपट्टी के मुखिया कालू मेहरा का विद्रोही फजलहक से सम्पर्क था. कालू मेहरा के पास वाजिद अलीशाह के पत्र आने की बात पाण्डे ने लिखी है. कदाचित सितम्बर 1857 में आनन्द सिंह फर्त्याल, कालू मेहरा, बिषना करायत, माधों सिंह, नूर सिंह तथा खुशा सिंह आदि उस समय भाबर में थे. तभी बरमदेव थाने पर विद्रोहियों ने हमला किया था. लेकिन 8 जनवरी 1858 की इस अधिसूचना के बाद कि सप्ताह भर के भीतर काली कुमाऊँवासी अपने घर लौट आयें, ज्यादातर लोग वापस आ गये. कालू मेहरा विद्रोहियों के पास रहा और आनन्द सिंह फर्त्यल तथा बिशना (बिशनसिंह) को गिरफ्तार कर फाँसी दे दी गई. कालू मेहरा तथा अन्य लोगों पर राज विद्रोह का अभियोग चलाया गया. कालू मेहरा को अनेक जेलों में घुमाया गया. कदाचित बाद में उसे भी फाँसी दे दी गई. हल्द्वानी, बाजपुर, रुद्रपुर, कोटाबाग, कालाढूंगी में विद्रोहियों और कंपनी सेना का जोरदार संघर्ष हुआ.
यह तथ्य भी उजागर हुये हैं कि 1857 में अल्मोड़ा स्थित आर्टीलरी में बगावत की तैयारियाँ पाई गई थीं और नाना साहब के उत्तराखण्ड में आने की संभावना के बाद अनेक व्यक्तियों को नैनीताल, अल्मोड़ा तथा श्रीनगर में फाँसी दी गई थी. नाना साहब के उत्तरकाशी में जोगी वेश में रहने की चर्चा अब भी होती है. श्रीनगर में विद्रोहियों के पहुँचने की संभावना हुई तो बैकेट ने वहाँ नसीरी बटालियन के गोरखाली सैनिकों की चार कंपनियाँ मंगाई (रतूड़ीः गढ़वाल का इतिहासः 46). इससे उस हलचल का पता चलता है जिसे कंपनी शासन ने तब ज्यादो उजागर नहीं होने दिया था.
लेकिन 1857 की घटनायें उत्तराखण्ड में आम जनता को उस तरह उद्देलित नहीं कर सकीं जैसे बेगार और वनों के प्रश्न ने या बीसवीं सदी में राष्ट्रीय संग्राम की विभिन्न लहरों ने किया. 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा परिणाम ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का खातमा था पर यह ब्रिटिश शासन का अंत नहीं था. इसके. बाद ज्यादा जिम्मेदार शासन का प्रयास प्रकट किया जाने लगा.
( जारी )
पिछली कड़ी उत्तराखण्ड के बहाने एक दूरस्थ क्षेत्र में राष्ट्रीय संग्राम के ताने—बाने को समझने का प्रयास
मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक द्वारा सम्पादित सरफरोशी की तमन्ना के कुछ चुनिन्दा अंश.
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