उत्तराखण्ड में इष्ट देवी पार्वती के कई रूपों की पूजा की जाती है. पूरे राज्य में पार्वती के माँ नंदा स्वरूप में ढेरों मंदिर भी हैं. इन्हीं में से एक है नैनीताल का नैना देवी मंदिर. नैनीताल उत्तराखण्ड के दो मंडलों में से एक और कुमाऊँ का मुख्यालय भी है. मशहूर नैनी झील के किनारे पर उत्तरी छोर पर यह मंदिर स्थित है.
पौराणिक मान्यता के अनुसार दक्ष प्रजापति की बेटी उमा का विवाह महादेव के साथ हुआ. दक्ष प्रजापति मलंग शिव को ज़रा भी पसन्द नहीं करते थे. देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने उमा का विवाह शिव के साथ कर दिया. एक बार दक्ष प्रजापति ने एक यज्ञ का आयोजन किया, इसमें सभी देवताओं को आमंत्रण दिया गया. लेकिन शिव और बेटी उमा को निमन्त्रण नहीं दिया गया. इसके बावजूद उमा जिद करके इस यज्ञ में पहुँची. जब उन्होंने हरिद्वार में आयोजित अपने पिता के इस यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपने पति का अपमान देख उमा बहुत दुखी हुई. वे इस यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते हुए कूद पड़ी कि ‘मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना पति बनाऊँगी.’ इस तरह अपने पति का अपमान हुआ पाकर उमा सती हो गयी.
उमा के सती होने का समाचार पाकर शिव के गुस्से का कोई ठिकाना नहीं रहा. उन्होंने अपने गणों की सहायता से दक्ष प्रजापति के इस आयोजन को तहस-नहस कर डाला. शिव के इस रौद्र रूप को देखकर देवताओं को उनके द्वारा प्रलय ले आने का अंदेशा हुआ. सभी देवी-देवताओं समेत दक्ष ने भी शिव की अनुनय विनय करते हुए प्रार्थना की और उनसे माफ़ी भी मांगी. शिव ने उन सभी को क्षमा कर दिया. परन्तु सती उमा के जले हुए शरीर को देखकर उनमें वैराग्य कि भावना जाग उठी. उन्होंने सती के जले हुए शरीर को अपने कन्धे पर लादकर आकाश में विचरना शुरू कर दिया. इसी दौरान जहाँ-जहाँ पर सती के शरीर के अंग गिरे वहाँ शक्ति पीठों की स्थापना हुई. इसी क्रम में नैनीताल में जहाँ पर सती के नयन गिरे थे वहां पर नैना देवी के रूप में उमा का मंदिर स्थापित हुआ, जिसे नैना देवी कहा गया.
एक मान्यता यह भी है कि शिव को इस तरह विचरता देख भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उमा के शरीर को विखंडित कर दिया. विखंडित किये जाने से उनके शरीर के अंग गिरने शुरू ही गए. आंसुओं की धारा ने यहाँ पर एक सरोवर का रूप लिया, जिसे नैनीताल के नाम से जाना गया. तभी से यहाँ लगातार महादेव की अर्धांगनी नन्दा (पार्वती) के नैनादेवी स्वरूप की पूजा की जाती है. यहाँ माँ नंदा दो नयनों के रूप में विद्यमान हैं. उनके साथ ही गणेश और काली की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं. मंदिर के प्रांगन में ही हनुमान की भी एक मूर्ति की पूजा किये जाने का भी विधान है.
कहा जाता है कि अंग्रेज बैरन ने 1841 में माँ के स्वरूप को यहाँ पर देखा था. 1880 में नैनीताल में आये विनाशकारी भूकंप में यह पूरा इलाका ध्वस्त हो गया. बाद में मल्लीताल में इसी जगह पर पूजा-पात्र, शंख, घड़ियाल आदि मिलने पर यहाँ मंदिर बनाकर माँ नंदा की स्थापना की गयी. मंदिर की पुनर्स्थापना में स्थानीय निवासी अमरनाथ साह का विशेष योगदान बताया जाता है.
1903 में यहाँ पर मोतीराम साह के द्वारा नन्दाष्टमी के मौके पर भव्य महोत्सव का आयोजन शुरू करवाया गया. भाद्रपद मास की पंचमी को इस महोत्सव का शुभारम्भ होता है. इस मौके पर यहाँ भव्य मेले का भी आयोजन किया जाता है. इस दिन निकटवर्ती कुरियागांव से केले के वृक्ष देवी के डिकरों (मूर्तियों) को बनाने के लिए गाजे-बाजे व जुलूस के साथ लाये जाते हैं. षष्ठमी के दिन इन केले के तनों की पूजा-अर्चना करने के बाद सप्तमी को इनसे माँ नंदा की मूर्तियाँ बनायीं जाती हैं. अष्ठमी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में इन्हें वस्त्र आभूषणों से सजाकर मंदिर में स्थापित कर प्राण प्रतिष्ठा की जाती है. यहाँ भक्तों द्वारा माँ की स्तुति की जाती है. नवमी के दिन कन्याकुमारियों की पूजा की जाती है और दशमी के दिन माँ नंडा के डोले के साथ नगर में विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है. जयकारे के बीच डोले का नैनीताल भ्रमण कराया जाता है और इसके बाद सरोवर में ही पाषाणदेवी के निकट इसका विसर्जन किया जाता है. पहले इस आयोजन में माँ को बकरे की बलि और अष्ट बलि दिए जाने की भी परम्परा थी जो बाद में बंद कर दी गयी.
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