आज से देहरादून में 350 वर्ष पुराने ऐतिहासिक झंडा मेला की शुरुआत हो चुकी है. होली के ठीक चार दिन बाद एक महीने तक चलने वाला झंडा मेला शुरू होता है. इस मेले में सुबह दरबार साहिब के बाहर स्थापित झंडे को उतारकर उसे दूध और गंगा जल से नहलाया जाता है. दोपहर 2 बजे से झंडे को दोबारा स्थापित करने की प्रक्रिया शुरू की जाती है.
देहरादून में बसंत के मौसम में मनाया जाने वाला झंडामेला गुरु रामराय द्वारा प्रवर्तित उदासी सम्प्रदाय के अनुयायी सिखों द्वारा मनाया जाने वाला एक धार्मिक उत्सव है. इसे पुराने देहरादून को बसने वाले गुरु रामराय के दरबार में मनाया जाता है. बड़े पैमाने पर मनाये जाने वाले इस मेले में उत्तर भारत के राज्यों हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से कई अनुयायी शामिल होते हैं.
इस उत्सव को मनाया जाना गुरु रामराय के समय से ही शुरू हो गया था. इस वक़्त गुरुदरबार के महंत अपने मनसदों और अनुयाइयों को अम्बाला जिले के राईवाला गाँव से यहाँ लाते थे. इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आज भी उदासी सम्प्रदाय के महंत द्वारा इस उत्सव का आयोजन किया जाता है.
प्रथम महंत हरप्रसाद की नियुक्ति स्वयं गुरु राम राय की पत्नी पंजाब कौर के द्वारा की गयी थी. अपने पिता गुरु हरराय की गद्दी प्राप्त करने में असफल होने के बाद रामराय ने टौंस नदी के बांधे तट पर स्थित कन्दाली में अपना डेरा डाला था.
बाद में उन्होंने देहरादून के खुड़बबुड़ा नामक स्थान पर अपना डेरा डाला. उसी समय औरंगजेब से प्राप्त एक संस्तुतिपत्र के आधार पर गढ़वाल के राजा फतेहशाह के द्वारा उन्हें यहाँ पर तीन गावों, खुड़बबुड़ा, राजपुरा और अमासूरी, की जागीर दी गयी. गुरु रामराय ने 1694 में यहाँ पर गुरुद्वारे की स्थापना की और झंडा फहराया.
तभी से यहाँ झंडोत्सव का आयोजन किया जाता है. इस अवसर पर आशीर्वाद स्वरूप प्रसाद भी बांटा जाता है, साथ ही लंगर की व्यवस्था भी की जाती है.
राम राय गुरुद्वारा इस्लामी और हिंदू वास्तुकला का एक उदाहरण है. इमारत में एक गुंबद, मीनार, और भित्तिचित्रों को एक मिश्रित संस्कृति और आध्यात्मिक ज्ञान को दर्शाती है. राम राय गुरुद्वारा में सिखों की पवित्र पुस्तकें आदि ग्रंथ साहिब हैं और इसमें एक बड़ा डाइनिंग हॉल भी है, जहां मुक्त भोजन समुदाय के रसोई घर में पकाया जाता है और सभी आगंतुकों को नि:शुल्क लंगर छकाया जाता है.
गुरुद्वारा की दीवारें फूलों और रूपांकनों से सजी हुई हैं. राम राय गुरुद्वारा के निकट में एक तालाब है जहां भक्त आते हैं और स्नान करते हैं.
15 दिन के इस आयोजन में 100 फीट के साल के खम्भे पर नया झंडा लगाया जाता है. इस झंडे पर श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए लाल और सुनहरे रंग कि चुनरी बांधते हैं.
मेले की शुरुआत महंत की अगुवाई में विशाल जुलूस निकालकर की जाती है. हर तीसरे साल दरबार सही के प्रांगण में स्थित पुराने झंडे के खम्भे की जगह नागसिद्ध के जंगल से काटकर लाये गए खम्भे को स्थापित किया जाता है. पूजा अर्चना के बाद पुराने झंडे को उतार लिया जाता है और नया झंडा फहराया जाता है.
दून घाटी में मनाया जाने वाला यह सबसे बड़ा मेला है। इस दिन झंडा चौक पर इस उत्सव का आयोजन किया जाता है और झंडा फहराया जाता है. दरबार साहिब सामाजिक समरसता, परस्पर प्रेम और भाईचारे की अपनी सैकड़ों वर्ष पुरानी गौरवशाली परम्परा के साथ देश और दुनिया में एक विशेष पहचान रखता है.
यहाँ मुग़ल शैली के लाहौर में स्थित जहाँगीर के मकबरे के प्रतिरूप की गुरु की समाधि है. कहा जाता है कि इसे औरंगजेब के आदेश से बनाया गया है. कहा जाता है की कि इसी डेरे के नाम पर देहरादून शहर का नाम रखा गया. पहले इसे डेरादून और फिर देहरादून कहा जाने लगा.
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