राकेश ने बस स्टेशन पहुँच कर टिकट काउंटर से टिकट लिया, हालाँकि टिकट लेने में उसे खासी परेशानी उठानी पड़ी लेकिन टिकट मिलने के पश्चात वह भीड़ को चीरता हुआ बस कि ओर बढ़ गया. उसके चेहरे पर अत्यंत संन्तोष के भाव थे. उसे पता था कि बस में सीट मिलना आसान नहीं होगा फिर भी उसने सामान उठाया उसके पास एक अटेची और एक बिस्तरबंद ही था लेकिन उसे फिर भी यह बहुत असुविधाजनक लग रहा था. वह बस के अन्दर चढ़ा ही था कि कंडक्टर की कर्कश ध्वनि ने उसका स्वागत किया, अरे! सामान लिये कहाँ बढ़े चले आ रहे हो? यहाँ लोगों के बैठने की जगह नहीं है सामान कहाँ रखोगे?
कंडक्टर ने ये बात इस ढंग से कही कि सारे यात्री राकेश की ओर देखने लगे राकेश को भी कंडक्टर का व्यवहार अजीब सा लगा लेकिन उसने उतरकर सामान छत पर रख दिया और कंडक्टर के पास वाली सीट पर दो बुजुर्ग व्यक्तियों के बगल मैं बैठ राहत की सांस ली. (Hindi Story Fark)
राकेश ने अपनी पर एक नजर डाली, घड़ी में तीन बजकर पांच मिनट हुए थे जबकि बस का समय तीन बजे का था लेकिन ड्राइवर की सीट खाली थी. तभी उसे कंडक्टर की कर्कश धव्नि फिर सुनाई दी “जिन्होंने टिकट काउंटर से टिकट नहीं लिया है वो मुझसे टिकट ले लें” यात्री टिकट लेने लगे.
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राकेश देहरादून जा रहा था जहाँ एक सरकारी विभाग में उसका साक्षात्कार था, वह अत्यंत तनाव महसूस कर रहा था, क्योंकि यह उसकी जिन्दगी का सवाल था. घर में बूढ़ी माँ का वही एकमात्र सहारा था. लेकिन अब तक बेरोजगार था. साक्षात्कार का बुलावा-पत्र आने पर बड़ी मेहनत से उसने से इसके लिये तैयारी की थी.
तभी कंडक्टर उससे उसी कर्कश स्वर में बोला “तुम कहाँ तक जाओगे? जल्दी से टिकट ले लो” राकेश को लगा मानो ऐसे कर्कश वचन शायद बचपन में किसी ने घुट्टी में ही मिलाकर पिला दिये थे.
राकेश बोला “मैं देहरादून जा रहा हूँ और मैंने काउंटर से टिकट ले लिया है”
कंडक्टर फिर भी अनावश्यक रूप से बोला “ठीक है ठीक है.”
फिर वह राकेश के बराबर में बैठे हुए सज्जन से मुखातिब होकर बोला “तुम कहाँ तक जाओगे?” सज्जन शायद उसकी आदत से परिचित थे, बोले “ये सौ रुपये हैं, एक डोईवाला तक का एक टिकट दे दीजिये” कंडक्टर ने रुपये लेकर टिकट उनकी ओर बढ़ा दिया.
तभी बस के ड्राइवर ने बड़े शाही अंदाज से बस में प्रवेश किया धम्म से सीट में बैठ कर एक बीड़ी जलाते हुए बोला “चलूं क्या?” कंडक्टर कुछ नहीं बोला शायद उसका ध्यान अपने टिकट पर था. ड्राइवर ने बस गियर में डाल दी. बस शहर की भीड़-भाड़ को चीरती हुई कुछ पल में खुली सड़क में दोड़ने लगी.
राकेश ने पलकें बंद कर के सिर को आगे की सीट पर टिका दिया, इस बीच उसे बार-बार कंडक्टर की कर्कश आवाज सुनाई दे रही थी. कुछ पल में ही उसकी कब आँख लग उसे पता ही नहीं चला.
अचानक राकेश की आखें खुली, उसने देखा की वह बददिमाग कंडक्टर किसी यात्री से उलझकर कह रहा था “मैं कह रहा हूँ पचास रुपये बढ़ाने हैं बढ़ाओ नहीं तो बस से उतर जाओ, कोई मजाक समझ रखा है क्या. वह यात्री जो कि नवयुवक था और अपनी उम्र के हिसाब से तेज भी, कुछ ऊँची आवाज में बोला “क्या मैं पहली बार जा रहा हूँ, चिड़ियापुर हर महीने जाता हूँ, हमेशा वहां के चालीस रुपये ही होते हैं” चिड़ियापुर हरिद्वार व देहरादून के बीच में है युवक वहीँ की बात कर रहा था.
कंडक्टर गुस्से से बिफर गया बोला “पहले से किराया बढ़ चुका है ” नवयुवक बोला. “क्या तुम मुझे किराये की बढ़ी हुई सूची दिखा सकते हो?”
कंडक्टर का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया वह बोला “तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ? “जब तक ये बस से नहीं उतरेगा बस आगे नहीं बढ़ेगी” कोई भी यात्री बीच में नहीं बोल रहा था. अन्ततः राकेश ही बोला “कंडक्टर साहब आप इन्हें बढ़े किराये की सूची दिखा कर संतुष्ट कर दीजिये” इस पर कंडक्टर उल्टा बोला “तो क्या तुम भी समझते हो कि मैं झूठ बोल रहा हूँ, मेरा कोई ठेका नहीं है कि सबको किराया सूची दिखाता फिरू.”
इतना कह कर वह उस नवयुवक को बस से निकालने लगा.राकेश कुछ कहता वह नवयुवक बोला “रहने दीजिये भाई साहब कुछ न कहिये” इतना कह कर वह नवयुवक कंडक्टर पर बड़बड़ाते हुए बस से उतर गया. कंडक्टर ने शायद इसे अपनी सबसे बड़ी जीत मान लिया और एक लम्बी सीटी बजाई बस फिर आगे बढ़ने लगी.
राकेश साक्षात्कार के तनाव को भूलकर कंडक्टर के बारे में सोचने लगा कि वह उस यात्री को बढ़े किराए के बारे में अच्छी तरह से भी बता सकता था. समझदारी से तो बहुत सी बातें हल हो जाया करती हैं. पर कंडक्टर तो अपनी शाररिक बनावट के समान ही ह्रदय से भी अत्यंत कठोर था.
बस की रफ़्तार तेज हो गयी. राकेश ने फिर आगे की सीट पर अपना सर टिका दिया और आँखें बंद कर ली, इस बीच बस कई जगह रुकी यात्री अपने-अपने गंतव्यों पर उतर गए. डोईवाला वाले सज्जन भी उतर गए. राकेश बीच में से किनारे की सीट पर खिसक गया. इस बीच कंडक्टर अपने कठोर स्वर में सबको हिदायत देता रहा कि अपना सामान अच्छी तरह उतार लें, छूटने पर हमारी कोई जिम्मेवारी नहीं होगी.
धीरे-धीरे बहुत से यात्री बस से उतर गए केवल देहरादून जाने वाले यात्री ही बस में रह गए थे.
जिनमें राकेश भी था.
देहरादून पहुँच कर राकेश ने अपनी सीट छोड़ दी और एक नजर कंडक्टर पर डाली.
कंडक्टर किराये के रुपयों का हिसाब लगा रहा था और उसके चेहरे पर वही कठोरता थी, जिसे देख कर राकेश का मन विषाद से भर गया.
बस से उतरकर वह सामान उतारने छत्त पर चढ़ा लेकिन वहां कोई सामान नहीं था. सारे यात्री अपना सामान उतार चुके थे. तो क्या उसका सामान गुम हो गया. यह सोचते ही उसे अपना अस्तित्व घूमता प्रतीत होने लगा बड़ी मुश्किल से उसने अपने को गिरने से बचाया अन्यथा वह बस की छत् से गिर पड़ता.
यह स्वाभाविक ही था क्योंकि उसकी अटैची में हाई स्कूल व् इन्टर के सर्टिफिकेट्स व् मार्क शीट्स थी. जिनको साक्षात्कार के सिलसिले में अपने साथ लाया था. जिनके बिना वह साक्षात्कार में नहीं बैठ सकता था. अपने को सँभालते हुए नीचे उतरा झेंपते हुए कंडक्टर की ओर बढ़ा वह सोच रहा था कि उसे निराशा ही हाथ लगेगी फिर भी वह आगे बढ़ा और बोला “कंडक्टर साहब बस में चढ़ते समय मैंने अपना सामान बस की छत् पर रखा था लेकिन अब वहां मेरा सामान नहीं है.” कहते हुए उसकी रुलाई फुट गयी. कंडक्टर रुपयों की गड्डी बैग में रखते हुए बोला” ठीक तरह से देखो वहीँ होगा.” राकेश रोते हुए बोला “मैंने अपनी आँखों से देखा है मेरा सामान वहां नहीं है रास्ते में शायद किसी ने उतार लिया है, उसमें मेरे जीवन की पूँजी है कंडक्टर साहब उसके बिना मेरे जीवन में अँधेरा ही अँधेरा है”
कंडक्टर को शायद उसकी बात पर विश्वास हो चला था कुछ सोचकर बोला. “अच्छा शांत हो जाओ अरे हाँ !याद आया, पिछली जामा मस्जिद पर मौलवी साब उतरे थे उनके पास पांच छह अटेचियाँ और कुछ बिस्तर बंद थे. शायद गलती से तुम्हारा सामान भी वहीँ उतर गया होगा, तुम घबराओ मत मैं मौलवी साब को अच्छी तरह जानता हूँ, मैं किराया ऑफिस में जमा करके आता हूँ फिर हम चलेंगे तुम्हारे साथ जामा मस्जिद तक, तुम बिलकुल मत घबराओ” तब जाकर राकेश को कुछ आशा बंधी.
कुछ देर बाद कंडक्टर आया और सीट पर बैठे ड्राइवर से बोला “राम सिंह इनका सामान पीछे छूट गया है, जामा मस्जिद तक बस वापिस ले चलो खाना वापस आकर खायेंगे.”
ड्राइवर ने सहमति में सर हिलाया और बस स्टार्ट कर दी. कुछ समय बाद बस फिर वापस जामा मस्जिद की तरफ बढ़ने लगी.
जामा मस्जिद के पास ड्राइवर ने बस रोक दी लेकिन इससे पहले कि राकेश व कंडक्टर बस से उतरते कुछ दूरी पर मौलवी साहब चले आ रहे थे साथ में एक लड़का राकेश की अटैची लिए आ रहा था उसके सिर पर उसका बिस्तरबंद भी था. अपने सामान को देख कर राकेश को लगा मानो उसको सारा जहाँ मिल गया. मौलवी साहब पास आकर बोले “गुस्ताखी माफ़ गलती से लड़के ने ये सामान भी अपना समझकर उतार लिया था मैं खुद ही स्टेशन आ रहा था जमा करवाने.”
“कोई बात नहीं मौलवी साहब मेरा सामान वापस मिल गया, यही बहुत है,चलिए कंडक्टर साहब” राकेश एक लंबी संतोष भरी सांस लेते हुए बोला.
बस फिर स्टेशन की ओर बढ़ने लगी. राकेश के मन में बिचारों का सागर उमड़ रहा था. उसने कृतज्ञता भरी एक नजर कंडक्टर पर डाली और सोचने लगा कितना फ़र्क है इस वक्त कंडक्टर के प्रति उसके विचारो में. जिस कंडक्टर को कुछ समय तक वह असभ्य व कठोर ह्रदय समझ रहा था अभी-अभी उसी की बदौलत उसको उसके जीवन की खोई हुई अमूल्य निधि वापस मिल गयी थी. यह सर्वथा उचित ही था, मनुष्य चाहे बाहरी भाव-भंगिमाओं से कितना ही कठोर हृदय क्यों न प्रतीत हो, परन्तु मानव होने के नाते मानवता का कुछ अंश उसमें अवश्य विद्यमान रहता है. (Hindi Story Fark)
मूल रूप से ग्राम. बडे़त, नथुवाखान के रहने वाले पुष्कर राज सिंह हाल-फिलहाल हल्द्वानी में रहते हुए व्यवसाय एवं स्वतंत्र लेखन करते हैं.
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