हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 2
(पिछली कड़ी : हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 1)
सुबह आगे की तैयारी शुरू हुई. नाश्ता कर हम सभी गोगिना गांव की ओर तिरछे रास्ते को चल पड़े. तंबू ने आज भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा. (Himalayan Trekking Keshav Bhatt)
गोगिना को जाते वक्त का रस्ता भला चंगा सा महसूस हो रहा था. सीढ़ीनुमा खेतों के नीचे दूर पहाड़ की जड़ में रामगंगा नदी की आवाज भी गाना गाते हुए महसूस हो रही थी. गोगिना से पहले रामगंगा पार के झरने ने तो सारी थकान ही उतार दी. कुछ क्षण बैठ उसे निहारते रहे. पूछने पर पता चला कि ये झेलम झरना है. गोगिना में पहुंचे तो राजदा के कई सारे परिचित यहां मिल गए. राजदा के परिवार की पारंपरिक कपड़े की दुकान ‘जीवन गांधी’ के नाम से बागेश्वर के चौक बाजार में हुई. मल्ला दानपुर के अधिकतर लोगों की वो दुकान एक तरह का पड़ाव भी हुई. पहले मल्ला दानपुर से बाजार आने वाले अधिकतर लोग वहीं अपनी कई रातें बिताया करते थे. शाह परिवार ने बकायदा इसके लिए अपने मकान के बगीचे में एक कमरा बनाया था जिसमें जरूरत की सभी चीजें रख दी जाती थी. मसलन स्टोव, भांडे—बर्तन. राशन कभी रूकने वाले ले आया करते थे, कभी ये चुपचाप भिजवा दिया करते थे. राजदा के पिता जीवन लाल साह थे, जिन्हें तब के वक्त में वैद्यगिरी में महारत हांसिल थी. जड़ी—बूटियों से ईजाद की गई अधिकतर दवाइयां वे बहुत कम कीमत पर दिया करते थे. गरीब परिवार को वो मुफ्त ही दे दिया करते थे. लेकिन वो लोग भी बाद में घी, सब्जी के अलावा अन्य सामान लाकर उऋण हो लिया करते.
वक्त ने कई सारी करवटें बदलीं. सत्तर—अस्सी के दशक में शाह परिवार का मकान भी आग की चपेट में आ ध्वस्त हो गया. टूटे परिवार ने हिम्मत जुटाई और फिर से कारोबार को ठीक कर लिया. आज भी ये परिवार अपनी मेहनत से बुलंदी को चूम रहा है लेकिन ये अपने जड़ों से अभी भी चिपके ही हैं…
गोगिना गांव में भवान सिंह और उनके बड़े भाई भगत सिंह की इकलौती दुकान के दो मंजिले में हमारी टीम को पनाह मिल गई. चाख-रूपी इस कमरे में दो खिड़कियों से बाहर को झांकने का आनंद ही कुछ और था.
पोर्टर के तौर पर बाकायदा बुजुर्ग और अनुभवी भगत सिंह के नेतृत्व में पांचेक पोर्टरों की एक टीम तैयार हो गई. आगे का रास्ता अभी आसान नहीं था. रामगंगा पर बना पुल बरसात में गायब हो चुका था. हांलाकि ये सितंबर का महीना था लेकिन रामगंगा नदी, ऊपर नामिक ग्लेशियर से निकलने वाली ठंडी नदी हुई, जिसे बिना पुल के पार करना संभव नहीं हुआ. शाम को खाने में मेहमान नवाजी उन्हीं की तरफ से हुई. खाना मजेदार था. होगा भी क्यों नहीं, जंगली शिकार गांव में सभी के वहां जो बन रहा ठैरा.
सुबह राजदा के साथ मैं, हीरा और उमा रामगंगा नदी का जायजा लेने को गए. घंटे भर बाद नदी के किनारे पहुंचे तो नदी के दोनों ओर पुल के अपरमेंट अपने पुल होने का संदेश दे रहे थे. नदी को रस्सी से पार करने की रणनीति बनी. उमा रस्सी को नदी के पार ले जाने के लिए तैयार हो गया. उसकी कमर में रस्सी बांधी गई. एक समतल जगह में उसने रामगंगा में सिसकारी भरते हुए कूद लगाई और पलभर में ही उसने तैरकर नदी पार कर ली. मैं नदी में एक पत्थर में उनींदा सा बैठ उसे देख रहा था कि राजदा ने सीटी मार मुझे चेतावनी दी कि ये बर्फीली नदी है, नींद के झोंक में नदी में गिरे तो बचना मुश्किल होगा. मैं किनारे आ गया. राजदा अब उमा को रस्सी को पुल के अपरमेंट में बांधने के लिए ईशारा कर रहे थे. उसने रस्सी पुल के अपरमेंट में बांध दी तो राजदा ने यहां से रस्सी को टाइट कर दिया. उमा के लिए सीट हारनेस और कैराबईनर रस्सी से पार भेजा गया. वो रस्सी से वापस आ गया. हमारा पुल तैयार हो गया था. मैं ये सब हैरानी से देखता रहा.
वापस गोगिना आए और राजदा ने सभी को घंटे भर के अंदर चलने का फरमान सुना दिया. भोजन किया और सामान लाद रामगंगा नदी की ओर बढ़ चले. पहले उमा को पार भेजा गया उसके बाद एक—एककर सभी को. रस्सी से नदी पार करने में मुझे एक अलग ही तरह का आंनद और रोमांच आया. अंत में सामान भेजने के बाद राजदा ने रस्सी को अपरमेंट में दोहरा कर दिया. अब रस्सी के दोनों सिरे रामगंगा के पार हो गए थे. उन्होंने नदी पार की और फिर रस्सी को खींच लिया. रामगंगा पार करने में सांझ हो गई थी. आगे ऊपर नामिक गांव के लिए खड़ी चढ़ाई मुंह के सामने थी. अब हिमालय देखना है तो ये सब करना ही होगा, रुकसैक को ऊपर को धकेल ये सोच सिर नीचे कर चढ़ाई नापनी शुरू कर दी. और पोर्टर साथी हमसे दोगुना भार पीठ में लिए मस्ती में चले जा रहे थे. नामिक गांव के पास स्कूल के मैदान में पहुंचने तक रात के आठ बज चुके थे. थकान हो रही थी तो अंधेरे में मैदान में ही पसर गए. घंटे भर बाद कोई स्कूल के कमरे की चाबी लेकर आया तो दरवाजा खुला. अपने बिस्तर लगाए और खाने की तैयारी में जुट पड़े. आज थकान से नींद भी मजेदार आई.
सुबह काफी खुशनुमा थी. सामने नामिक ग्लेशियर को देख हम सभी चिंहुके. लगा मंजिल पास ही है. विजयदा ने बाहर सबको बुला खो—खो खिलवाने के बाद जैकी चैन की भूमिका में आ लोट—पोट लेने शुरू कर दिए. बढ़ती उम्र में भी वो बच्चों के माफिक खिलंदड़ हो रहे थे.
आज का पड़ाव थाला बुग्याल था. तकरीबन पांचेक किलोमीटर की मीठी चढ़ाई वाली. चढ़ाई में अब एक जगह बुग्याली घास के मैदान में सभी पसर गए. गाय—बैलों को जंगल में चराने ले गए कुछ बच्चे भी हमारे झुंड में हिल—मिल गए तो उन्होंने अपनी पोटली से हरी ककड़ियां निकाल हमें दे दी. हरी मिर्च के साथ ककड़ियां बहुत स्वादिष्ट लगीं.
शाम होने से पहले हमारे तंबू थाला बुग्याल की मखमली घास में तन चुके थे. तंबू के किनारे नाली बनाने की जिम्मेदारी मैंने खुद—ब—खुद ले ली थी. आ बैल… मुझे मार!
नाली खोदने के लिए यहां गैंती, कुदाल तो नहीं थी सो मैंने आइस एक्स से ही नाली खोदने का कारनामा शुरू कर दिया. नाली खोद चुका था कि अचानक ही आइस एक्स का तीखा कोना माथे पर लगा और माथा दबा मैं चुपचाप टैंट के पिछवाड़े में पसर गया. काफी देर बार सांस लौटी, देखा मैं जिंदा ही हूं तो टैंट में चुपचाप समा गया.
थाला में बकरवालों की झोपड़ियां भी थीं जो अभी खाली थीं. पोर्टरों ने एक झोपड़ी में बुग्याली घास डाल अपने लिए मखमली बिस्तर बना लिया. यहां नीचे दूर से पोर्टर पानी लाते दिखे. आज खाना स्वादिष्ट लगा.
सुबह चफुवा को जाने का फरमान सुनाया गया. हमारी टीम में जानकी का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं दिख रहा था. हमें लग रहा था कि शायद उंचाई की वजह से वो एक्लमटाइज नहीं हुई है जिस वजह से उसे कमजोरी हो रही होगी. नामिक गांव से आते वक्त भी उसका रुकसैक हम पकड़ के लाए थे.
पोर्टरों की व्यवस्था हो जाने से मुझे तंबू से मुक्ति मिल चकी थी. राजदा को भी मुझपे यकीन हो चुका था कि ये बांस का लट्ठ हल्की हवा की चपेट में उड़कर बेहोश नहीं ही होगा. राजदा की मन की बात को साबित करने के लिए मैं कई बार जोश दिखा जाता था. और कई बार ये जोश अंतत: मेरे लिए ही घातक हो जाता था. बमुश्किल साथ में चल रहे बुजुर्ग अनुभवी गाईड व पोर्टर भगतदा ही मेरे तारनहार होते थे. चफुवा की चढ़ाई में भी ये ही सब हुआ. थाला बुग्याल में सामान पैक कर सबने चढ़ाई चढ़नी शुरू कर दी. जानकी की हालत देख मैंने उससे उसका रुकसैक ले अपने रुकसैक के ऊपर नेपाली डोटयाल की तरह डाल दिया. मेरी तीसेक इंच की छाती ये सोचके फूल के कुप्पा हो रही थी कि मैं विपदा में सबका हनुमान टाइप का डोटयाल हो सबको आपदा से बाहर निकाल देता हूं.
दरअसल! मेरे इस तरह के ये सपनीले खयालातों में उस वक्त के उपन्यास और मिथुन, शत्रुघ्नगोगिना, डैनी, धमेन्द्र के साथ ही ब्रूस ली, जैकी चैन की पिक्चरों का असर बहुत गहरे तक था. इन करेक्टरों में घुस जाने के बाद मैं वैसा ही बनने की कोशिश करता था. मसलन, किसी अबला की इज्जत कोई गुंडा लूटने को तैयार है और मैं मिथुन की आत्मा में घुस उस गुंडे को ‘या अली’ कहते हुए मन ही मन तसल्ली से कूट देता था. अकसर सड़क किनारे बने पैरापिटों में एक से दूसरे पैराफिट में कूदते हूए मैं ‘या अली’ का जाप कर अपने सांथियों को इस अदृश्य ताकत के बारे में बखान किया करता था. और धीरे—धीरे सांथी भी मेरे साथ पैरापिटों में यही जाप करने लग जाते थे.
(जारी)
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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