(पिछ्ला हिस्सा: खटारा मारुति में पूना से बागेश्वर – 1)
चौबे जी के ससुराल वाले मूल रूप से बागेश्वर के रहने वाले हैं और पूना में बस गए हैं. परिवार का अपना अच्छा कारोबार है. सीधे-सरल, खाते-पीते सम्पन्न लोग. मां-बाप, बेटा-बहू और पोता-पोती और एक्वेरियम में छप-छप करता एक कछुआ -कुल सात प्राणी. हमारी ख़ूब ख़ातिर-तवाज़ो हुई. चाय-पानी पीने के बाद नीचे उतर कर पार्किंग में उस गाड़ी के दर्शन किए जिसे हमने लिवा ले जाना था. केशव ने गाड़ी को पार्किंग से निकाला और सड़क पर थोड़ा चला कर देखा. सब ठीक था. इतने लम्बे सफ़र को ध्यान में रखकर हाल ही में गाड़ी की सर्विसिंग कराई गई थी. बस ज़रा इंडिकेटर ठीक नहीं था. एकाध कोई और पुर्ज़ा लगाना था. शाम हो चुकी थी. तय हुआ कि कल चलने से पहले इस काम को करवा लेंगे.
हमारे मेज़बानों को महंगी-महंगी गाड़ियां ख़रीदकर पार्किंग में जमा करने का शौक था (अभी भी होगा). उस समय उनकी पार्किंग में दो या तीन चौपहिया अलग-अलग मॉडल और कम्पनी की गाड़ियां खड़ी थीं जो कि न के बराबर चली थीं. एक और गाड़ी शोरूम में तैयार खड़ी थी घर आने को. वह गाड़ी दशहरे के दिन आनी थी. दुपहिया भी थे. इतने सीधे और सरल परिवार का ऐसा सनक मिश्रित शौक देखकर हम बेहद हैरान हुए.
सुबह नाश्ते के वक़्त रज्जन बाबू ने कहा कि मेरे बहनोई आर्मी की मेडिकल कोर में हैं और आजकल रिफ़्रेशमेन्ट कोर्स के लिए यहीं हैं. बहन-बहनोई से मिले बग़ैर चला गया तो बाद में पता चलने पर बुरा मानेंगे. ख़ुद मुझे भी अजीब सा लगेगा. तय हुआ कि पहले उन्हीं से मिला जाए. हम चारों जने उसी गाड़ी में घर से रवाना हुए. चौबे के ससुर जी हमारे गाइड बने. गेट से निकलते ही केशव ने कहा – “पेट्रोल पम्प बताइयेगा, तेल बिल्कुल नहीं है.” बाबूजी ने दो-तीन पम्प यह कहकर छोड़ दिए कि नहीं यहां ठीक नहीं. बाकी पम्पों से तेल इसलिए नहीं ले पाए कि बाबूजी ने उनकी सिफ़ारिश तब की जब वे पीछे छूट गए. वन वे ट्रैफ़िक में पीछे नहीं लौट सकते थे. ऐन चौराहे पर गाड़ी ठप्प हो गई. कुछ मिनटों के लिए ट्रैफ़िक का रिद्म टूटा रहा. संयोग से पास ही एक पम्प था, पचास-सौ मीटर गाड़ी धकेलनी पड़ी.
मेडिकल कॉलेज के अन्दर गाड़ी ले जाने की इजाज़त बाआसानी मिल गई. बाबूजी आफ़िस जाकर पूछ आए कि इस नाम का जवान इधर किधर मिलेगा. हमारा दामाद है. बताया गया फ़लां ब्लॉक में. एक-डेढ़ घन्टे पूरे परिसर में गाड़ी घूमती रही पर बाबूजी के बेटी-दामाद मिलकर नहीं दिए. रज्जन बाबू ने निराश होकर कह दिया कि छोड़ो यार चलो, काफ़ी कोशिश कर ली. अब कोई अफ़सोस नहीं. गाड़ी का भी काम करवाना है, आगे भी बहुत दूर जाना है. बाबूजी बोले – “आए हैं तो मिलकर जाएंगे. ढूंढेंगे, कैसे नहीं मिलेगा, खोद कर निकालेंगे. हम भी एक्स आर्मी मैन हैं. ऑफ़िस चलो, रिक्वेस्ट करेंगे कि हमें एक जवान दो.” सचमुच वहां से एक जवान मिला जो स्कूटर में बैठ कर हमें रास्ता दिखाता हुआ चला और ऐन दरवाज़े पर छोड़ गया.
मुलाकात बेहद छोटी रही. सिर्फ़ चाय भर पी सके. शुरू में ही जवान मिल जाता तो एकाध घन्टा बैठ सकते थे. मगर मजबूरी थी. बाद में कहीं रज्जन बाबू की बहन का फ़ोन आया कि ददा, तू सचमुच आया था या मैंने सपना देखा!
गाड़ी गैराज ले जाई गई. वहां हमें एक नौजवान मैकेनिक मिला जो काठगोदाम का रहनेवाला था. उस बेचारे को साल-डेढ़ साल के अन्दर कई काम करने थे. आई टी आई करनी थी, अंग्रेज़ी सीखनी थी और फिर ऑस्ट्रेलिया जाना था. दूसरे मैकेनिकों के साथ उसने भी गाड़ी पर हाथ आज़माए और कहा कि यूं तो गाड़ी एकदम फ़िट है मगर ५०-६० किलोमीटर पर इसे आराम देते हुए जाना. दिक्कत की कोई बात नहीं. वह मैकेनिक हमारे मेज़बानों का अच्छा परिचित था. गाड़ी की जो सर्विसिंग अभी हाल में हुई थी, उसका गवाह था. दो एक घन्टे गैराज में गुज़र गए.
लगभग एक-डेढ़ बजे बाबूजी और उनके बेटाजी मोहनदा से वहीं विदा ली. सास-बहू से सुबह घर पर ही विदा ले ली थी. हमें नासिक पहुंचना था. शहर से निकलकर जब शहर के मुकाबले कम भीड़ वाली सड़क पर आए तो पता चला कि गाड़ी का तो पिक अप ही ठीक नहीं. ऐसे में या तो कछुए की रफ़्तार से चलो या पास लेने की कोशिश में सामने वाले से जा भिड़ो. क्या कर सकते थे, चलते रहे. दोएक घन्टे बाद गाड़ी रवां हो गई. पिक अप ठीकठाक हो गया. जहां ज़रूरत हुई, वहां सौ की रफ़्तार से भी दौड़ी. गाड़ी हमारे मेज़बानों ने किसी फ़ौजी से खरीदी थी. शीशे में अभी भी बाईं तरफ़ आर्मी ही लिखा हुआ था. काफ़ी समय से पार्किंग में खड़ी थी. दौड़ना तो क्या उसकी चहलकदमी की आदत तक छूट चुकी थी. ऐसे में पिक अप की दिक्कत तो शुरू में होनी ही थी.
चारों ओर पहाड़, हरियाली और बीच-बीच में घुमावदार सड़क देखकर हमें हैरानी हुई. रास्ता एकदम अपरिचित सा नहीं लगा. पहाड़ में ही कहीं होने का अहसास होता रहा. हां पहाड़ वहां के हमारे पहाड़ों की तरह नुकीली चोटियों वाले नहीं सरकटे हैं – रेत का पहाड़ बनाकर उसका ऊपरी हिस्सा हथेली से थपथपा दीजिये. हमारे पहाड़ों को दूर से देखकर लगता है कि उनकी चोटी पर खटिया नहीं बिछाई जा सकती जबकि इन पहाड़ों की चोटियों को देखकर लगता है कि वहां फ़ुटबॉल खेली जा सकती है.
रात आठ-नौ बजे के करीब नासिक पहुंचे. बहुत देर तक किसी सस्ते होटल की तलाश करते रहे. बमुश्किल एक तथाकथित सस्ता होटल मिला. नहाया-धोया, खाया और तीनों चित्त. दूसरे दिन पांच बजे तड़के चले. अभी ठीक से उजाला भी नहीं हुआ था, हल्की ठंड महसूस हो रही थी. गाड़ी में तेल कम था पर अभी न तो कोई पेट्रोल पम्प खुला था न चाय का कोई ढाबा. एक पम्प के ऑफ़िस का दरवाज़ा खुला देखकर वहां रुके, भीतर दो-एक लोग सोए पड़े थे. आवाज़ देकर उन्हें जगाया तो उन्होंने हमें देखकर करवट बदल ली. यकीनन गाली भी दी होगी. होटल में उतनी सुबह चाय की सुविधा नहीं थी. चाय की बड़ी तलब लगी थी, खासकर रज्जन बाबू को और मुझे. डेढ़-दो घन्टे चलने के बाद एक चाय की दुकान नज़र आई. दुकानदार ने पूछा चाय चालू या स्पेशल? हम तीनों ने एक दूसरे की सूरत देखी और स्पेशल चाय बनवाई. उस समय तलब लगी थी इसलिए ठीक ही लगी. वर्ना चालू और स्पेशल का तज़र्बा हमें पूना और नासिक के बीच हो चुका था. तब हमने सोचा था कि अगर स्पेशल ऐसी है तो साली चालू कैसी होगी! तज़र्बे के तौर पर एकाध जगह हमने चालू चाय भी पी. दुकान में कोई कैसेट बज रहा था. ताबड़तोड़ शोरनुमा ‘संगीत’ के साथ गाने वाला न जाने क्या अलाय-बलाय गाए जा रहा था जिसे सुनकर हमें हंसी आ गई. पूर्वाग्रह रहित बिल्कुल स्वाभाविक हंसी. दुकानदार हमें घूरने लगा तो एकाएक हमारी समझ में आया कि हम गलत हंस रहे हैं. सुबह का समय है, शायद कोई भजन हो – रॉक और पॉप स्टाइल में. माता के आगे क्या है, पीछे क्या है जब हिन्दी में हो सकता है तो दूसरी भाषाओं में क्यों नहीं?
केशव का अनुमान था कि आज शाम तक हम आगरा पहुंच सकते हैं. ठीक है भय्ये, चल आगरा पहुंचा, अच्छा हो हमें अल्मोड़ा पहुंचा दे. तेरी मर्ज़ी. गाड़ी सिर्फ़ तुझे चलानी है. हम दोनों तो सिर्फ़ भार हैं गाड़ी में. हम से अगर अचानक पूछा जाए कि फ़ोर-व्हीलर में कितने टायर होते हैं तो हम घबरा के तीन-या पांच कह देंगे. कंडक्टर होने के लिए रूट की जानकारी होना ज़रूरी है वर्ना टिकट कैसे कटेगा. हम तो सिर्फ़ क्लीनर हो सकते हैं. हीरो तुझे बनना है कि पूना से गाड़ी चलाकर बागेश्वर पहुंचा हूं. हमारी तो स्थिति अपाहिजों सी है. स्लामत पहुंचे तो तेरी वजह से और नहीं पहुंच पाए तो भी तेरे कारण.
गाड़ी बढ़िया चल रही थी और माइलेज भी अच्छा दे रही थी. चलते रहे. जगह-जगह लोग मंदिर को आते-जाते, शोभायात्रा, झांकियां निकालते और अबीर-गुलाल से सूखी होली खेलते नज़र आए. दो तीन घन्टे बाद फिर चाय की तलब ने ज़ोर मारा. दुकानों में चाय के लिए पूछने पर जवाब मिला कि चाय नहीं है, आज छोकरा लोगों का छुट्टी है. उस दिन दशहरा था. फिर आगे एक जगह चाय मिली. चाय पी और ढेर सारा सामान ख़रीदा. जूस, मठ्ठा, रेज़र. सर ठंडा करने के लिए तेल और ऐसी ही न जाने क्या-क्या चीज़ें. उस दिन दोपहर का खाना खाया या नहीं, याद नहीं. काफ़ी आगे चलकर सड़क में एकाएक हल्की सी चढ़ाई शुरू हुई.वहीं एक जगह मंदिर में दशहरे का मेला लगा था. सड़क के किनारे लगी दुकानों में गांव-देहात की महिलाएं व बच्चे खरीदारी कर रहे थे, खा-पी रहे थे. मंदिर किसी देवी का था और देवी का नाम किसी भूतनी से मिलता-जुलता सा था, याद नहीं रह गया.
सफ़र अच्छा चल रहा था. जिसे कहते हैं सुहावना. कैसेट प्लेयर में गाने बज रहे थे. आपस में हंसी- मज़ाक, रज्जन बाबू बीच-बीच में पीछे की सीट पर झपकी ले लेते थे. तीनों जनों की आपस में अच्छी पुरानी ट्यूनिंग … आदमी की औकात लम्बे सफ़र में और नशे में एक हद के बाद उभर कर सामने आती है. जैसा वह वास्तव में होता है – एक तरह का नरको-एनालिसिस. दोपहर डेढ़-दो बजे का समय था, फ़र्राटे से भागती गाड़ी एकाएक खंखार कर रुक गई.
( जारी )
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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