यह 2007 की बात है. दिन-वार ठीक से याद नहीं. अक्टूबर का महीना था. उन दिनों रामलीला(एं) चल रही थीं. अल्मोड़ा से तीन जने दिल्ली के लिए रवाना हुए – बागेश्वर से केशव, अल्मोड़ा से रज्जन बाबू और मैं. हमें पूना से एक मारुति-800 कार बागेश्वर पहुंचानी थी. केशव के एक मित्र हैं चौबे जी (वे हमें भी अपना मित्र मानते हैं, उनकी कृपा है) कार उन्हीं के ससुराल से लानी थी जो कि उनकी पत्नी को उपहार में मिल रही थी. पहले केशव के साथ चौबे जी ख़ुद जाने वाले थे पर ऐन मौके पर उन्हें पिण्डारी जाना पड़ा. प्रोग्राम गड़बड़ा गया. उनकी जगह रज्जन बाबू की भर्ती हुई. इतने लम्बे सफ़र में कोई तो साथ चाहिए. रवानगी के दिन दिल्ली के लिए बस में सीट बुक करवाते समय तक की भूमिका पटकथा में मैं कहीं नहीं था. जिस तरह माफ़िया डॉन की सिफ़ारिश के बाद फ़िल्म में उसकी पसन्द के कलाकार को लिया जाता है (नतीज़तन उस बेतुकी फ़िल्म में उसके होने की कोई तुक समझ में नहीं आती), कुछ इसी तरह मैं साथ हो लिया.
(Hilarious Adventure from Pune to Bageshwar)
शायद ही ऐसा कोई उल्लू का पठ्ठा मिले (अपने को फ़िलहाल नहीं मिला) कि जो पूना से गाड़ी चलाता हुआ बागेश्वर तक पहुंचा हो. वह लगभग दो हज़ार किलोमीटर लम्बा सफ़र ग़ैरज़रूरी भी था और आत्मघाती भी. इस बात का अहसास सफ़र के दौरान तो होता ही रहा बाद में और भी शिद्दत से हुआ. जिस गाड़ी को हमने लगभग ढो कर पूना से हल्द्वानी तक पहुंचाया, वह जानकारों के मुताबिक ट्रेन से दिल्ली या बरेली तक आ सकती थी. वह अनावश्यक और लौंड्यारपने का सफ़र एक आदमी की सनक, ज़िद और एक हद तक अकड़ के कारण करना पड़ा. लेकिन उसने पूरे सफ़र में कहीं भी लापरवाही भरा व्यवहार नहीं किया. ख़ासकर गाड़ी चलाते हुए. हमें जैसा ले गया ठीक वैसा ही घर छोड़ गया.
इस तहरीर का मतलब गपोड़ी की गप से ज़्यादा कुछ नहीं जिसे समय बिताने के लिए सुना जाता है. इसे सफ़रनामा कहेंगे या एकालाप पता नहीं. काफ़ी कुछ याद नहीं रह गया. नोट कुछ भी नहीं किया, सिर्फ़ याददाश्त से काम चलाना है. किन-किन शहरों-जगहों से गुज़रे ज़्यादातर याद नहीं.एकाध जगह तो जहां रात गुज़ारी उसका भी नाम याद नहीं आता.’शायद’ और ‘लगभग’ शब्दों का प्रयोग बार-बार करना पड़ेगा. ऐसा भी हो सकता है कि कोई मुक़ाम पहले गुज़र जाए मगर ज़िक्र उसका बाद में आए. अच्छी याददाश्त वाले घुमक्कड़ों और गला पकड़नेवाले भूगोलवेत्ताओं की कोई कमी नहीं. इसलिए पेशगी जमानत करवा लेना ठीक रहेगा. यात्रा वृत्तान्त नहीं आपबीती इसे कहना चाहूंगा – कुल्हाड़ी पांव पर नहीं गिरी. पांव कुल्हाड़ी पर मार लिया नुमा आपबीती.
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अल्मोड़ा से दिल्ली तक की यात्रा बेहद तकलीफ़देह रही. रात भर भूखे-प्यासे करीब छः घंटे जाम में फंसे रहे. हम दिल्ली पांचेक घन्टे देर से पहुंचे थे – ऐन ट्रेन छूटने के समय. इसलिए मानकर चल रहे थे कि ट्रेन तो गई हाथ से. फिर भी चलो देख लें सोचकर ऑटो वाले को मुंहमांगे पैसे देकर रेलवे स्टेशन पहुंचे तो पता चला कि झेलम एक्सप्रेस तो अभी पहुंची ही नहीं, लेट है. भूख-प्यास, रतजगे और बोरियत से पैदा दिमाग और शरीर का भारीपन कहीं बिला गया. चीज़ों के मानी हमेशा सबके लिए एक से नहीं होते तो – ट्रेन के लेट होने का जो मतलब हमारे लिए था, घंटों से इन्तज़ार कर रहे लोगों के लिए वह कतई नहीं हो सकता था. उस दिन अहसास हुआ कि अव्यवस्था की भी अपनी एक व्यवस्था होती है जो कि वर्षों में अपना आकार ले लेती है. राजमार्ग में घंटों लम्बा जाम और राजधानी में ट्रेन का लेट हो जाना, इनका आपस में कहीं न कहीं संबंध है.
रिज़र्वेशन सिर्फ़ दो ही लोगों का था, मैं बीच में अचानक आ टपका. मेरे लिए वहीं पर जनरल क्लास का टिकट लिया गया. ठीक बारह बजे ट्रेन आई. स्टेशन पर अफ़रातफ़री मच गई अपनी सीट और डिब्बा तलाशने के लिए. इस काम के लिए हमें भी काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी. करीब 15 मिनट बाद ट्रेन रेंगने लगी. दिल्ली पीछे छूटने लगा.
उसके बाद दौर शुरू हुआ चाय-कॉफ़ी, सूप और फिर दोपहर के खाने का. अरे हां, एक विचित्र किन्तु सत्य किसम की बात यह हुई कि टीटी साहब से घंटे भर के अंतराल में दो बार कहा गया कि हमें एक टिकट स्लीपिंग का बनवा दीजिए. बर्थ खाली नहीं है मगर हम आपस में एडजस्ट कर लेंगे. उन्होंने हां कहने के बावजूद टिकट नहीं दिया और न फिर उसके बाद उनकी शकल ही दिखी. भला हो उनका, इतनी ऊपरी कमाई हो कि तनख़्वाह बैंक में पड़ी-पड़ी सड़ जाए.
हमारे सामने दो महिलाएं बैठी हुई थीं. एक अधेड़ावस्था को तेज़ी से पार करती हुई – मोटी थुलथुल और पांव-दर्द की मरीज़. दूसरी 30-35 के आसपास की. निकला कद, छरहरी, हंसमुख. थोड़ा अल्हड़पन उसमें था अभी भी. संगीत की धुन पर पांव हिलाकर आंखें मटका कर मुस्करा कर अपनी पसंदीदगी जाहिर करने की अदा अभी भूली नहीं थी. वे दोनों महिलाएं पूना तक हमारे साथ रहीं मगर उनका आपस में रिश्ता क्या था हमें पता नहीं चल पाया. बातूनी हम तीनों में से कोई नहीं वरना इतने लम्बे सफ़र में लोग सामनेवाले का वंशवृक्ष रट लेते हैं और ‘वाली’ का फ़िगर, बायोडाटा फ़ोन नम्बर सहित पूछ लेते हैं. एक साहब पूना किसी इन्टरव्यू के सिलसिले में जा रहे थे. दूसरे एक साहब वर्दी में तो नहीं थे पर थे शर्तिया फ़ौजी. बग़ल की सीट पर एक बूढ़े दम्पत्ति थे. जहां तक याद आता है उन्हें आपस में बतियाते नहीं देखा. एक दूसरे के प्रति अरुचि और बेगानापन उनके बीच पसरा हुआ साफ़ नज़र आता था. अन्दाज़ा लगा पाना मुश्किल था कि वे थे ही वैसे, किसी बात पर ख़फ़ा थे, उन्हें कोई दुख था या कि विवाह ही अनमेल था.
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ट्रेन के अन्दर बेनूर आंखों वाला एक आदमी गाईड मैप बेचने आया जिसे हमने ख़रीद लिया. उस नक्शे ने बाद में कई बार हमारी मदद की. दोपहर के खाने के बाद जबकि ज़्यादातर मुसाफ़िर ऊंघ रहे थे किसी स्टेशन पर एक गवैय्या हमारे डिब्बे में चढ़ा एक छोटी बच्ची के साथ और ऐन हमारी बगल में आ बैठा. उसने सधी हुई उंगलियों से हारमोनियम छेड़ा और बिना किसी फ़रमाइश के गाना शुरू किया – “सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा…” हारमोनियम के सुर और बच्ची के साथ उसकी की पाटदार आवाज़ ट्रेन की गटरगट्ट से कुछ देर होड़ लेती रही फिर पूरी तरह उस पर छा सी गई. गाना उस तपती दुपहरी में ठंडी बयार सा लगा. थोड़ी देर तक ख़ुमार की तरह छा गया – ” … इस दिल के तारों में मधुर झनकार तुम्हीं से है और ये हसीन जलवा ये मस्त बहार तुम्हीं से है …” गाने की कुछ लाइनों को बड़ी चालाकी से उसने गाया ही नहीं. ऐसी लाइनें जिन पर कई बार लोग आवाज़ें कसते होंगे, सीटियां बजाते होंगे जिससे बच्ची के साथ उसे शर्मिन्दा होना पड़ता होगा. दसेक साल की वह बच्ची किसी तज़ुर्बेकार औरत की सी भावभंगिमा लिए कोने में खड़ी हो गई और वहीं से उसके (वह उसका पिता रहा होगा शायद) सुर में सुर मिलाती रही. लड़की की आंखों में बच्चॊम का सा भाव नहीं था. किसी की आंखों में सीधे उसने नहीं देखा. लोगों के बारे में उसके अनुभव यकीनन बुरे रहे होंगे. गवैय्ये की अच्छी कमाई हुई. पैसा बटोरने के दरमियान ही कोई स्टेशन या झंक्शन आ गया और पेटी मास्टर सभी लोगों के बहुत कहने के बावजूद और आगे चलने को तैयार नहीं हुआ. वह वहीं उतर गया. ” … दिल तो ये मेरा सनम तेरा तलबगार था …”
मथुरा के स्टेशन पर सिगरेट सुलगाने की हमारी झिझक को पुलिस वाले की तज़र्बेकार आंखों ने पकड़ लिया. नतीज़तन दो रुपल्ली की गोल्ड फ़्लेक सौ या दो सौ की पड़ गई. पैसा सिपाही जी की जेब में गया. पेड़ानगरी में कड़वाहट! शाम हुई, खाना खाया और सो गए. रज्जन बाबू और मैं एक बर्थ पर एक दूसरे की ओर पांव करके बल्कि यूं कहना ज़्यादा अच्छा लगेगा कि एक दूसरे के चरणों में सर रख कर सो गए. फ़ौजी भाई जो थे वे भी पता नहीं कैसे बिना बर्थ के सफ़र कर रहे थे. केशव ने उनसे बहुत इसरार किया कि आइये मेरे साथ सो जाइए. पर वो माने नहीं, फ़र्श पर चादर बिछाकर लेट गए. रज्जन बाबू का मोबाइल जेब से निकल गया जो उन्होंने सम्हाल रखा था. इसकी एवज़ मैंने सुबह उन्हें कंधा हिलाकर जगाया और चाय पेश की.
याद नहीं आ रहा है कि जब सुबह हुई थी तो रेल किस जगह से गुज़र रही थी. खिड़की का शीशा उठाकर बाहर झांकना शुरू किया. बीच-बीच में रेल बस्तियों के पास से गुज़र रही थी तो देखा कि नर-नारी हवा की ओट में बैठे एक स्वाभाविक और अपरिहार्य कर्म से निबट रहे थे. जिन लोगों की सुबह ऐसी वीभत्स हो, उनका बाक़ी दिन कैसा होता होगा. बहुत देर तक ख़याल आता रहा कि क्या ये वही लोग हैं जो मन्दिर-मस्ज़िद जैसी फ़ालतू और फ़ुरसत की चीज़ों के लिए भेड़-बकरियों की तरह कट मरते हैं जबकि इनके अपने पास एक अपरिहार्य आड़ तक नहीं. सोच का यह कौन सा स्तर है कि अपनी कोख का जाया कुपोषण से मर जाता है पर बेजान मूर्तियों को दूध से नहलाने पर अपराधबोध नहीं होता. हमारे अन्दर जड़ के लिए क्यों इतनी आस्था है जबकि चेतन आस्था के अभाव में अचेत पड़ा है. तमाम होहल्ले और शाइनिंग के बावजूद सोच के इस स्तर को बनाए रखने में जिन लोगों का हाथ है, वो कब तक इतने निर्दयी बने रहेंगे. अपना स्वार्थ साधते रहेंगे. यह लावा आख़िर फूटता क्यों नहीं! ताकि धरती नए सिरे से उर्वरा हो, नए अंकुर फूटें, फूल खिलें जिनमें न छल हो न बनावट. जहां ऐसा न हो कि जो फूलों को उगाएं, उन्हें सींचें मगर उनके रंगो-बू और उनके निकलने वाले मधु में उनका हिस्सा न हो.
ऐसे ही बे-गोर-ओ-कफ़न लोगों की ओर इशारा करते हुए बहुत पहले कवि ने कहा था – पहले इन के लिए एक इमारत गढ़ लूं फिर तेरी मांग सितारों से भर जाएगी. प्रेयसी ने अगर कवि की बात का भरोसा किया होगा तो उसकी जवानी सर्द रातों को चांदनी की तरह बेकार गई हो्गी. कवि या कविता शब्द सुनते ही ढेला लेकर मारने दौड़ती होगी.
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सफ़र में हमें चौबीस घन्टे हुआ चाहते थे. अपने सहयात्रियों से ज़्यादा बातचीत तो नहीं हो पाई पर इतना तो घुलमिल गए ही थे कि एक दूसरे की हवाई चप्प्लें बिना पूछे ही इस्तेमाल करने लगे थे. धीरे-धीरे पूना क़रीब आता जा रहा था. रज्जन बाबू और मैंने कपड़े बदले और जूते पहन लिए. पूना से कुछ पहले एक साहब रेल में चढ़े, उनके पास ओशो की किताबें, सीडी और कैसेट थे. बातों-बातों में वे यह भी पता कर लेते थे कि आपको पूना में रहने की कोई परेशानी तो नहीं. उनके पास लॉज और होटलों के पते थे. हमें कोई परेशानी नहीं थी. केशव ने उनसे दो सीडी, एक ओशो टाइम्स खरीदी. ट्रेन की रफ़्तार धीमी होने लगी. पूना आ गया था. ट्रेन खड़ी हो गई. हमने ऑटो लिया और विश्रांतवाणी पहुंच गए – चौबे जी की ससुराल.
चौबे जी के ससुराल वाले मूल रूप से बागेश्वर के रहने वाले हैं और पूना में बस गए हैं. परिवार का अपना अच्छा कारोबार है. सीधे-सरल, खाते-पीते सम्पन्न लोग. मां-बाप, बेटा-बहू और पोता-पोती और एक्वेरियम में छप-छप करता एक कछुआ – कुल सात प्राणी. हमारी ख़ूब ख़ातिर-तवाज़ो हुई. चाय-पानी पीने के बाद नीचे उतर कर पार्किंग में उस गाड़ी के दर्शन किए जिसे हमने लिवा ले जाना था. केशव ने गाड़ी को पार्किंग से निकाला और सड़क पर थोड़ा चला कर देखा. सब ठीक था. इतने लम्बे सफ़र को ध्यान में रखकर हाल ही में गाड़ी की सर्विसिंग कराई गई थी. बस ज़रा इंडिकेटर ठीक नहीं था. एकाध कोई और पुर्ज़ा लगाना था. शाम हो चुकी थी. तय हुआ कि कल चलने से पहले इस काम को करवा लेंगे.
हमारे मेज़बानों को महंगी-महंगी गाड़ियां ख़रीदकर पार्किंग में जमा करने का शौक था (अभी भी होगा). उस समय उनकी पार्किंग में दो या तीन चौपहिया अलग-अलग मॉडल और कम्पनी की गाड़ियां खड़ी थीं जो कि न के बराबर चली थीं. एक और गाड़ी शोरूम में तैयार खड़ी थी घर आने को. वह गाड़ी दशहरे के दिन आनी थी. दुपहिया भी थे. इतने सीधे और सरल परिवार का ऐसा सनक मिश्रित शौक देखकर हम बेहद हैरान हुए.
सुबह नाश्ते के वक़्त रज्जन बाबू ने कहा कि मेरे बहनोई आर्मी की मेडिकल कोर में हैं और आजकल रिफ़्रेशमेन्ट कोर्स के लिए यहीं हैं. बहन-बहनोई से मिले बग़ैर चला गया तो बाद में पता चलने पर बुरा मानेंगे. ख़ुद मुझे भी अजीब सा लगेगा. तय हुआ कि पहले उन्हीं से मिला जाए. हम चारों जने उसी गाड़ी में घर से रवाना हुए. चौबे के ससुर जी हमारे गाइड बने. गेट से निकलते ही केशव ने कहा – “पेट्रोल पम्प बताइयेगा, तेल बिल्कुल नहीं है.” बाबूजी ने दो-तीन पम्प यह कहकर छोड़ दिए कि नहीं यहां ठीक नहीं. बाकी पम्पों से तेल इसलिए नहीं ले पाए कि बाबूजी ने उनकी सिफ़ारिश तब की जब वे पीछे छूट गए. वन वे ट्रैफ़िक में पीछे नहीं लौट सकते थे. ऐन चौराहे पर गाड़ी ठप्प हो गई. कुछ मिनटों के लिए ट्रैफ़िक का रिद्म टूटा रहा. संयोग से पास ही एक पम्प था, पचास-सौ मीटर गाड़ी धकेलनी पड़ी.
(Hilarious Adventure from Pune to Bageshwar)
मेडिकल कॉलेज के अन्दर गाड़ी ले जाने की इजाज़त बाआसानी मिल गई. बाबूजी आफ़िस जाकर पूछ आए कि इस नाम का जवान इधर किधर मिलेगा. हमारा दामाद है. बताया गया फ़लां ब्लॉक में. एक-डेढ़ घन्टे पूरे परिसर में गाड़ी घूमती रही पर बाबूजी के बेटी-दामाद मिलकर नहीं दिए. रज्जन बाबू ने निराश होकर कह दिया कि छोड़ो यार चलो, काफ़ी कोशिश कर ली. अब कोई अफ़सोस नहीं. गाड़ी का भी काम करवाना है, आगे भी बहुत दूर जाना है. बाबूजी बोले – “आए हैं तो मिलकर जाएंगे. ढूंढेंगे, कैसे नहीं मिलेगा, खोद कर निकालेंगे. हम भी एक्स आर्मी मैन हैं. ऑफ़िस चलो, रिक्वेस्ट करेंगे कि हमें एक जवान दो.” सचमुच वहां से एक जवान मिला जो स्कूटर में बैठ कर हमें रास्ता दिखाता हुआ चला और ऐन दरवाज़े पर छोड़ गया.
मुलाकात बेहद छोटी रही. सिर्फ़ चाय भर पी सके. शुरू में ही जवान मिल जाता तो एकाध घन्टा बैठ सकते थे. मगर मजबूरी थी. बाद में कहीं रज्जन बाबू की बहन का फ़ोन आया कि ददा, तू सचमुच आया था या मैंने सपना देखा!
गाड़ी गैराज ले जाई गई. वहां हमें एक नौजवान मैकेनिक मिला जो काठगोदाम का रहनेवाला था. उस बेचारे को साल-डेढ़ साल के अन्दर कई काम करने थे. आई टी आई करनी थी, अंग्रेज़ी सीखनी थी और फिर ऑस्ट्रेलिया जाना था. दूसरे मैकेनिकों के साथ उसने भी गाड़ी पर हाथ आज़माए और कहा कि यूं तो गाड़ी एकदम फ़िट है मगर 50-60 किलोमीटर पर इसे आराम देते हुए जाना. दिक्कत की कोई बात नहीं. वह मैकेनिक हमारे मेज़बानों का अच्छा परिचित था. गाड़ी की जो सर्विसिंग अभी हाल में हुई थी, उसका गवाह था. दो एक घन्टे गैराज में गुज़र गए.
लगभग एक-डेढ़ बजे बाबूजी और उनके बेटाजी मोहनदा से वहीं विदा ली. सास-बहू से सुबह घर पर ही विदा ले ली थी. हमें नासिक पहुंचना था. शहर से निकलकर जब शहर के मुकाबले कम भीड़ वाली सड़क पर आए तो पता चला कि गाड़ी का तो पिक अप ही ठीक नहीं. ऐसे में या तो कछुए की रफ़्तार से चलो या पास लेने की कोशिश में सामने वाले से जा भिड़ो. क्या कर सकते थे, चलते रहे. दोएक घन्टे बाद गाड़ी रवां हो गई. पिक अप ठीकठाक हो गया. जहां ज़रूरत हुई, वहां सौ की रफ़्तार से भी दौड़ी. गाड़ी हमारे मेज़बानों ने किसी फ़ौजी से खरीदी थी. शीशे में अभी भी बाईं तरफ़ आर्मी ही लिखा हुआ था. काफ़ी समय से पार्किंग में खड़ी थी. दौड़ना तो क्या उसकी चहलकदमी की आदत तक छूट चुकी थी. ऐसे में पिक अप की दिक्कत तो शुरू में होनी ही थी.
चारों ओर पहाड़, हरियाली और बीच-बीच में घुमावदार सड़क देखकर हमें हैरानी हुई. रास्ता एकदम अपरिचित सा नहीं लगा. पहाड़ में ही कहीं होने का अहसास होता रहा. हां पहाड़ वहां के हमारे पहाड़ों की तरह नुकीली चोटियों वाले नहीं सरकटे हैं – रेत का पहाड़ बनाकर उसका ऊपरी हिस्सा हथेली से थपथपा दीजिये. हमारे पहाड़ों को दूर से देखकर लगता है कि उनकी चोटी पर खटिया नहीं बिछाई जा सकती जबकि इन पहाड़ों की चोटियों को देखकर लगता है कि वहां फ़ुटबॉल खेली जा सकती है.
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रात आठ-नौ बजे के करीब नासिक पहुंचे. बहुत देर तक किसी सस्ते होटल की तलाश करते रहे. बमुश्किल एक तथाकथित सस्ता होटल मिला. नहाया-धोया, खाया और तीनों चित्त. दूसरे दिन पांच बजे तड़के चले. अभी ठीक से उजाला भी नहीं हुआ था, हल्की ठंड महसूस हो रही थी. गाड़ी में तेल कम था पर अभी न तो कोई पेट्रोल पम्प खुला था न चाय का कोई ढाबा. एक पम्प के ऑफ़िस का दरवाज़ा खुला देखकर वहां रुके, भीतर दो-एक लोग सोए पड़े थे. आवाज़ देकर उन्हें जगाया तो उन्होंने हमें देखकर करवट बदल ली. यकीनन गाली भी दी होगी. होटल में उतनी सुबह चाय की सुविधा नहीं थी. चाय की बड़ी तलब लगी थी, खासकर रज्जन बाबू को और मुझे. डेढ़-दो घन्टे चलने के बाद एक चाय की दुकान नज़र आई. दुकानदार ने पूछा चाय चालू या स्पेशल? हम तीनों ने एक दूसरे की सूरत देखी और स्पेशल चाय बनवाई. उस समय तलब लगी थी इसलिए ठीक ही लगी. वर्ना चालू और स्पेशल का तज़र्बा हमें पूना और नासिक के बीच हो चुका था. तब हमने सोचा था कि अगर स्पेशल ऐसी है तो साली चालू कैसी होगी! तज़र्बे के तौर पर एकाध जगह हमने चालू चाय भी पी. दुकान में कोई कैसेट बज रहा था. ताबड़तोड़ शोरनुमा ‘संगीत’ के साथ गाने वाला न जाने क्या अलाय-बलाय गाए जा रहा था जिसे सुनकर हमें हंसी आ गई. पूर्वाग्रह रहित बिल्कुल स्वाभाविक हंसी. दुकानदार हमें घूरने लगा तो एकाएक हमारी समझ में आया कि हम गलत हंस रहे हैं. सुबह का समय है, शायद कोई भजन हो – रॉक और पॉप स्टाइल में. माता के आगे क्या है, पीछे क्या है जब हिन्दी में हो सकता है तो दूसरी भाषाओं में क्यों नहीं?
केशव का अनुमान था कि आज शाम तक हम आगरा पहुंच सकते हैं. ठीक है भय्ये, चल आगरा पहुंचा, अच्छा हो हमें अल्मोड़ा पहुंचा दे. तेरी मर्ज़ी. गाड़ी सिर्फ़ तुझे चलानी है. हम दोनों तो सिर्फ़ भार हैं गाड़ी में. हम से अगर अचानक पूछा जाए कि फ़ोर-व्हीलर में कितने टायर होते हैं तो हम घबरा के तीन-या पांच कह देंगे. कंडक्टर होने के लिए रूट की जानकारी होना ज़रूरी है वर्ना टिकट कैसे कटेगा. हम तो सिर्फ़ क्लीनर हो सकते हैं. हीरो तुझे बनना है कि पूना से गाड़ी चलाकर बागेश्वर पहुंचा हूं. हमारी तो स्थिति अपाहिजों सी है. स्लामत पहुंचे तो तेरी वजह से और नहीं पहुंच पाए तो भी तेरे कारण.
गाड़ी बढ़िया चल रही थी और माइलेज भी अच्छा दे रही थी. चलते रहे. जगह-जगह लोग मंदिर को आते-जाते, शोभायात्रा, झांकियां निकालते और अबीर-गुलाल से सूखी होली खेलते नज़र आए. दो तीन घन्टे बाद फिर चाय की तलब ने ज़ोर मारा. दुकानों में चाय के लिए पूछने पर जवाब मिला कि चाय नहीं है, आज छोकरा लोगों का छुट्टी है. उस दिन दशहरा था. फिर आगे एक जगह चाय मिली. चाय पी और ढेर सारा सामान ख़रीदा. जूस, मठ्ठा, रेज़र. सर ठंडा करने के लिए तेल और ऐसी ही न जाने क्या-क्या चीज़ें. उस दिन दोपहर का खाना खाया या नहीं, याद नहीं. काफ़ी आगे चलकर सड़क में एकाएक हल्की सी चढ़ाई शुरू हुई. वहीं एक जगह मंदिर में दशहरे का मेला लगा था. सड़क के किनारे लगी दुकानों में गांव-देहात की महिलाएं व बच्चे खरीदारी कर रहे थे, खा-पी रहे थे. मंदिर किसी देवी का था और देवी का नाम किसी भूतनी से मिलता-जुलता सा था, याद नहीं रह गया.
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सफ़र अच्छा चल रहा था. जिसे कहते हैं सुहावना. कैसेट प्लेयर में गाने बज रहे थे. आपस में हंसी- मज़ाक, रज्जन बाबू बीच-बीच में पीछे की सीट पर झपकी ले लेते थे. तीनों जनों की आपस में अच्छी पुरानी ट्यूनिंग… आदमी की औकात लम्बे सफ़र में और नशे में एक हद के बाद उभर कर सामने आती है. जैसा वह वास्तव में होता है – एक तरह का नरको-एनालिसिस. दोपहर डेढ़-दो बजे का समय था, फ़र्राटे से भागती गाड़ी एकाएक खंखार कर रुक गई.
गाड़ी सड़क से उतार कर कच्चे में खड़ी की. लगा कि शायद गरम होने से बन्द हो गई. काफ़ी देर बोनट खोलकर इन्तज़ार करते रहे फिर केशव ने अपनी सीमित जानकारी के मुताबिक कुछ खचर-बचर की. कोई नतीज़ा नहीं. वीरान सा इलाका. ट्रक वालों का जो ढाबा मृगतृष्णा सा पास नज़र तो आ रहा, एक सवा किलोमीटर पीछे रह गया था. गाड़ी को हल्की ढलान के बावजूद ढाबे तक ले जा पाना मुमकिन न था. गाड़ी को धकेलते हुए सड़क क्रॉस करते हुए सेकेंड के हज़ारवें हिस्से में हमारी चटनी बन सकती थी या ट्रक पलट सकता था. इत्तेफ़ाक़न वहीं पर सड़क में मोड़ था, जिसके उस पार कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था जिस कारण दुर्घटना की संभावना और भी ज़्यादा थी. थक-हार कर ढाबे में जाकर पूछा तो पता चला कि जिधर से हम आ रहे हैं उसी तरफ़ कुछ किलोमीटर पर मैकेनिक मिलेगा. केशव ने बिना बॉडी वाले एक दैत्याकार ट्रक में लिफ़्ट ली और मैकेनिक बुलाने चला गया.
रज्जन बाबू और मैं वहीं बैठे रह गए. एक टहनीनुमा जो पेड़ था, उसकी छाया के साथ-साथ सरकते रहे और ट्रकों में लदा लाखों-करोड़ों का माल-असबाब इधर से उधर होते देखते रहे. दूर जो ढाबा था वह मुझे बार-बार इशारा कर रहा था. हमारे पास 24-25 साल का एक नौजवान हाथ में नुकीला हंसिया लिए आन बैठा. वह बताने लगा कि हमारा गांव उस तरफ़ है ऊपर वहां. वह घर में कपड़े सीने का काम करता था. शादी उसकी अभी नहीं हुई थी. घास काटने आया था. नाम उसने कुछ बताया था अपना. बताने लगा कि हमारे बाबा जब कोई मोटर इसी तरह ख़राब हो जाती थी तो रात भर उसकी रखवाली करते थे, सौ-पचास रुपये लेते थे. काफ़ी देर हम उससे बतियाते रहे – खेती-बाड़ी, गाय-भैंस, न जाने क्या-क्या. ढाबे का बुलावा अनसुना करना अब मुमकिन नहीं रह गया था. मजबूरन गाड़ी बन्द की और जाकर चाय पी आए.
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दो-ढाई घन्टे बीत चुके थे केशव को गए. हमें फ़िक्र होने लगी. फ़ोन किया तो पता चला मैकेनिक मिल गया है, आ रहे हैं. धीरे-धीरे शाम घिरने लगी, अंधेरा गाढ़ा होता जा रहा था. मोटर गाड़ियों ने बत्तियां जला ली थीं. केशव जिधर गया था उस ओर से आने वाली हर गाड़ी को हम बड़ी उम्मीद से देख रहे थे. बड़ी देर बाद एक मारुति वैन हमारे पास आकर रुकी जिसमें से केशव और दो मैकेनिक बाहर निकले. मैकेनिकों ने पहले वैन के अन्दर ही रोज़ा खोला. गाड़ी को देखकर उन्होंने बीमारी बताई कि इसका फ़लां पुर्ज़ा जल गया है और पंखे में गड़बड़ी है. पुर्ज़ा हम बदल देते हैं, पंखे को सीधा बैटरी से जोड़ देते हैं. जब रुके तो इसे डिसकनेक्ट कर दें. बाकी सब खैरियत है. वैसे हम दुकान से बाहर जाते नहीं मगर आप परदेसी आदमी हैं… रोग की पहचान और निदान में एक डेढ़ घन्टा और बीत गया. सात-आठ सौ रुपयों का बिल बना. आशीर्वादनुमा आश्वासन मिला कि भाईसाहब जहां तक मर्ज़ी हो जाएं, कोई दिक्कत नहीं होगी. यकीन न हो तो हम साथ चलें.
पांच-छः घन्टों के बाद फिर चल पड़े. अब सामना था गड्ढों भरी सड़क, दनदनाते फिरते ट्रकों और धुंध की तरह छाई धूल से. यह सब दिन में भी था मगर रात में ज़्यादा डरावना और परेशानी पैदा करने वाला होता है. ज़्यादातर ट्रकवाले सिर्फ़ एक हैडलाइट जला कर क्यों चल रहे थे न जाने! कन्डक्टर की तरफ़ वाली हैडलाइट जली होने और धूल की वजह से दूर से भारी-भरकम ट्रक किसी दुपहिये का धोखा दे रहा था – मतलब कि भिड़ंत की पूरी संभावना और उस पर तुर्रा ये कि सामने वाले की आंखें चुंधियाने से बचाने के लिए जो ज़रा रोशनी हल्की करने का नियम है उसका मानो किसी को पता ही नहीं. न चाहने के बावजूद जब भी रात का सफ़र करना पड़ा, एक दो ने ही इस नियम का पालन किया, बाकी के सब समरथ को नहिं दोष गुसांईं माननेवाले थे.
दर्ज़न भर पहियों वाले ट्रकों की रेलमपेल में मारुति 800 कार की औकात हाथियों की भगदड़ में फंसे मॆंढक जितनी ही समझिये. ऐसे में अगर वह मेंढक सही सलामत अपने बिल में पहुंच जाए तो कहने वाले इसे भाग्य या संयोग कहेंगे, मैं बेहयाई कहना चाहूंगा. हम भी हयादार कहां थे.
दो-एक घंटे चलने के बाद तय हुआ कि अब और चलना ठीक नहीं गाड़ी एकाध बार संकेत भी दे चुकी थी कि तबीयत उसकी बहुत अच्छी नहीं. आगे न जाने कैसी जगह हो, कहां फंस जाएं. कहीं पर ठीकठाक सी जगह देख कर रुक लिया जाए. एक कस्बेनुमा जगह में वह रात बीती. उस जगह का नाम हम तीनों में से किसी को याद नहीं. हां गेस्टहाउस का नाम ज़रूर याद है क्योंकि जब बागेश्वर केशव के पास जाना हुआ, कई बार उसी नाम के गेस्टहाउस में रुके – नीलकंठ गेस्ट हाउस. जैसा कि पहले बताया वह दशहरे यानी त्यौहार मतलब छुट्टी का दिन था. शायद इसीलिए गेस्टहाउस वीरान पड़ा था. मात्र एक आदमी बैरा, मैनेजर, गाइड, स्वच्छक वगैरग के रोल निभा रहा था. वह नौजवान इस कदर सीधा/ उल्लू का पट्ठानुमा था कि लगता था बाकी स्टाफ़ ने त्यौहार के दिन ड्यूटी करने के लिए उसे बलि का बकरा बनाया गया होगा.
(Hilarious Adventure from Pune to Bageshwar)
रज्जन बाबू के साथ जाकर वह बाहर से खाना पैक करा लाया. हमने कहा कि भय्याजी कमरे में केबिल तो है पर टीवी नहीं, तो वह जाकर टीवी उठा लाया. स्टार मूवीज़ में टाइटैनिक फ़िल्म चल रही थी. रज्जन बाबू ने बताया कि जब वे लोग खाना लाने बाहर गए तो भय्याजी ने कहा कि भय्याजी आपको दशहरे की बधाई. आपने घर फ़ोन करके बधाई कह दिया होगा. रज्जन बाबू ने उसका दिल रखने को कह दिया कि हां मैंने सुबह ही फ़ोन कर दिया था. उस आदमी का बोलना कुछ ऐसा था जैसे गुनाह करके माफ़ी मांगने आया हो. सोने से पहले हमने उससे कहा कि भय्याजी सुबह को जल्दी जगा देना और चाय पिलवा देना.
सुबह पांचेक बजे दरवाज़े पर दस्तक हुई. मैंने उठकर दरवाज़ा खोला, भय्याजी चाय लाने चले गए. क़रीब दस मिनट बाद भय्याजी तम्बाकू की पिण्डी की तरह सुतली से बंधी तीन पुड़िया ले कर आए कि लीजिये भय्याजी नाश्ता कर लीजिये. पूड़ा लाया हूं, ताज़ा बन रहा था. पांच रुपये का एक है. मैंने तीनो पूड़े बैग में रख लिए ताकि उसे बुरा न लगे. इतनी सुबह कुछ भी खाने का मतलब ही नहीं था. पांचेक मिनट बाद भय्याजी फिर आकर बोले कि नाश्ता कर लिया? चाय वाले को मैंने बाहर बिठा रखा है ताकि आप आराम से नाश्ता कर लें. उसकी भलमनसाहत के कारण चाय थोड़ा ठण्डी हो गई थी. चलते वक़्त उन्होंने हमें फिर कभी ज़रूर आने को कहकर विदा किया.
उस दिन का सफ़र घंटों तक धूल और गड्ढोंभरी सड़क में किया. धूल की वजह से शीशे चढ़े ही रहे. गाड़ियों की रफ़्तार बैलगाड़ियों जितनी होकर रह गई.. मुश्किल से कई घंटों बाद पक्की सड़क के दर्शन हुए. गाड़ी ने ज़्यादा तंग नहीं किया, ठीकठाक चलती रही. दिन के एक-डेढ़ बजे किसी जगह खाने के लिए रुके. वह मध्य प्रदेश का कोई शहर या कस्बा था. किसी अच्छे से मोटर मैकेनिक के बारे में पूछने पर पता चला कि आगे फ़लां जगह पर एक पीटर भाई है. हमें उसी रास्ते होकर जाना था.एकाध घन्टे बाद पीटर भाई के पास पहुंच गए. दो-एक घन्टे पीटर भाई गाड़ी की मरम्मत करते रहे. रज्जन बाबू और मैं चाय पीते रहे. हमने वहीं से 100 ग्राम प्याज़ का बीज भी ख़रीदा, जो कि नासिक का बताया गया. हो सकता है हो, पर उसने अल्मोड़ा में अंकुर नहीं दिए. पीटर भाई ने बकौल उनके गाड़ी एकदम फ़िट बना दी थी. उन्होंने बताया कि आगे एक जगह पर उनके भाई का गैराज है, आप फ़ोन नम्बर नोट कर लें. वैसे कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी लेकिन फिर भी.
(Hilarious Adventure from Pune to Bageshwar)
चले तो केशव ने कहा कि हां अब ठीक है, गाड़ी पहले से ठीक चल रही है. स्टेयरिंग भी एकदम हल्का हो गया है. पीटर भाई हमें जानकार आदमी लगे और भले भी. शायद उन्होंने हमें ठगा भी नहीं. मोटर ठीक चलती रही. मैंने डैशबोर्ड पर बैठे गणेशजी से दोस्ती गांठनी शुरू कर दी कि हे दुनिया के पहले स्टेनोग्राफ़र, बाधाए हरो, सफ़र को स्मूथली चलने दो. क्यों हमारी कुकुरगत्त करवा रहे हो. पता नहीं उन्होंने सुना नहीं, मूड में नहीं थे या बात उनके बस के बाहर की थी कि गाड़ी को फिर ज़ुकाम की शिकायत होने लगी. दो-एक जगह चल के रुकी, मगर आख़िरकार एक पुल के ऊपर रुक गई. धकेल कर उसे पुल पार करवाया, किनारे खड़ी की. अब इससे ज़्यादा भद्दा मज़ाक परिस्थिति किसी के साथ और क्या करेगी कि आप पुल के ऊपर ठप्प पड़ी मोटर के साथ हैं और नीचे जो नदी बह रही है उसका नाम घोड़ा पछाड़ नदी है.
पीटर भाई का भाई कहीं व्यस्त था और देर में आने को कह रहा था. एकाध किलोमीटर की दूरी पर एक अनजान सी बस्ती नज़र आ रही थी. वहां एक मैकेनिक मिल गया – राजू मैकेनिक. गाड़ी वहां पहुंचाई गई. आगरा पहुंचने का सपना धरा रह गया. रात वहीं गुज़री. रज्जन बाबू और मैं किसी सस्ते से होटल या धर्मशाला की तलाश में निकले. एक धर्मशाला का कमरा पसन्द कर लिया गया. वह जगह, अगर ठीक याद कर पा रहा हूं तो शायद पचौर कहलाती थी. पचौर से मुझे अपने एक मित्र पचौलिया की याद आई थी, याद है.
सुबह को फिर चले. केशव ने पैंट-कमीज़ त्याग कर ठेठ लफ़ंगों का सा वेश धारण कर लिया – घुटनों से ज़रा ऊपर तक का कच्छा और बंडी. गर्मी काफ़ी थी और बार-बार गाड़ी को प्राथमिक उपचार देने में कपड़े काले भी हो रहे थे. दिन भर चलते रहे. उस दिन गाड़ी ने ज़्यादा परेशान नहीं किया. जहां भी गाड़ी रुकी, तेल का पाइप चूसते ही चल पड़ी. मैकेनिक की शक्ल नहीं देखनी पड़ी. ग्वालियर होते हुए शाम को आगरा पहुंचे. किसी सस्ते से होटल की तलाश में घूम रहे थे कि एक होटल के बाहर गाड़ी रुक गई. तेल चूसने वाला फ़ॉर्मूला नाकाम रहा. गाड़ी ने ज़िद्दी बच्चों की तरह पैर पटक दिए कि नहीं, इसी होटल में रहना है. ज़िद के आगे हार माननी पड़ी और उसी समय पता चला कि एक टायर भी पंक्चर हो गया है. पूरे सफ़र में पंक्चर होने की एकमात्र घटना थी.
होटल के बाहर हम गाड़ी में खचर-बचर कर रहे थे तो काफ़ी देर से बारह-चौदह साल का एक बच्चा साइकिल के सहारे टिक कर हमें देखे जा रहा था. हमने सोचा बच्चा है, यूं ही देख रहा है, पर वह मोटर मैकेनिक निकला. फिर गाड़ी उसी ने ठीक की. मैकेनिक की शक्ल देखे बिना दिन नहीं बीतना था सो नहीं बीता.
गाड़ी ठीक होने में काफ़ी समय लगा. जिस होटल के बाहर गाड़ी रुकी थी, वहीं एक कमरा ले लिया गया. सबसे सस्ता कमरा लिया और रूखा-सूखा खाया. फिर भी खाने का बिल कमरे के किराये से ज़्यादा आया. पैसे जो हमारे पास थे, वे तेज़ी से बिला रहे थे. हर दस-पन्द्रह किलोमीटर पर एक मैकेनिक हमारे ही वास्ते तो दुकान खोले बैठा था. गाड़ी जो हमारे पास थी, उसका दिल कब किस मैकेनिक पर आ जाए, कहना मुश्किल था. अभी काफ़ी लम्बा सफ़र बाक़ी था. कम से कम हल्द्वानी जब तक न पहुंच जाएं, घर पहुंचने का अहसास कैसे हो! रज्जन बाबू के एटीएम कार्ड का भरोसा था जिसमें पैसे नहीं थे. मगर भरोसा था, फ़ोन करके किसी से खाते में पैसे डलवाए जा सकते थे.
पहले से ही तय था कि ताजमहल देखेंगे. आगरा जाने पर ताजमहल देखने का एक रिवाज़ सा है. हम तीनों में से किसी ने भी पहले ताजमहल नहीं देखा था. मुझे व्यक्तिगत तौर पर ताज के लिए बहुत उत्सुकता नहीं थी. फ़िल्मों और तस्वीरों में देखा ही था. लड़कियां धागे से ताजमहल बुनती ही रहती हैं. ताजमहल मतलब सफ़ेद संगमरमर से बनी एक भव्य कब्र जिसे एक मुग़ल बादशाह ने अपनी बेग़म की याद में तामीर कराया था. इसके अलावा और क्या? देखा तो ठीक, न देखा तो भी ठीक. मगर जब ताजमहल एकाएक सामने आया तो मैंने अपनी राय चुपके से बेहद शर्मिन्दगी और माफ़ी के साथ वापस ले ली. ताज के सामने खड़े हो कर पल भर को मेरी घिग्घी सी बंध गई. मुझे नहीं लगता कि ताजमहल के बारे में मैं अपनी भावनाएं ठीक-ठाक व्यक्त कर पाऊंगा. ताज बस देखने से ताल्लुक रखता है.
खयाल आया कि प्रेम का प्रतीक यह इमारत बादशाह के ख़ौफ़ या उसके प्रति वफ़ादारी के बिना ऐसी बन पाती जैसी कि बनी? दुनिया के सारे ही आश्चर्य शायद इसी भय और वफ़ादारी के गारे से चिने गए हैं. दूर मत जाइए, अंग्रेज़ों द्वारा बनाई गई इमारतों को देख लीजिए. मान लीजिए आज कोई ठेकेदार वैसा ठोस काम करना चाहे तो क्या विधायक, साम्सद, छुटभय्ये नेता और इंजीनियर साहेबान उसकी हौसलाअफ़ज़ाई करेंगे? माफ़ कीजिए चौथे स्तम्भ का नाम तो छूट ही गया. सुना है कि वह भी कमीसनखोरी पर उतर आया है. इन महानुभावों की अपनी इमारतें जितनी भव्य और ठोस होती हैं. इनके द्वारा करवाया गया सरकारी काम उतना ही घटिया और क्षणभंगुर होता है. क्योंकि भय किसी का जै नहीं और ईमानदारी, नैतिकता, वफ़ादारी नाम की चीज़ें हनीमून अलबम की तरह न जाने कहां, किस अलमारी में पड़ी हैं, याद नहीं.
याद आया कि बिल क्लिन्टन ने ताजमहल को देख कर कहा था कि दुनिया में दो तरह के लोग हैं – एक जिन्होंने ताजमहल देखा है, दूसरे जिन्होंने इसे नहीं देखा. दोमुंहा शायर ‘साहिर’ कहता है – एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल हम ग़रीबों का उड़ाया है मज़ाक और बनवा के हसीं ताजमहल सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है. न जाने किस ने ताज को मोहब्बत के रुख़सार पर अटका हुआ आंसू कहा है. हमने ताजमहल के सामने खड़े होकर तस्वीर खिंचवाई और बाहर निकल आए. शहर की भीड़भाड़ से बाहर निकलकर एक जगह रुक कर चाय पी और पंक्चर टायर ठीक कराया. इरादा आज शाम तक हल्द्वानी पहुंचने का था. पर गाड़ी का क्या इरादा था, किसे पता. इंसान की आंखें और चेहरा देखकर काफ़ी हद तक उसके इरादे का पता चल जाता है. मगर मोटरकार का न चेहरा, न आंखें. लगभग साढ़े नौ-दस बजे का समय, धूप में गर्मी आने लगी थी. आगरा से आगे का सफ़र शुरू हुआ. केशव का पारा बीच-बीच में चढ़ रहा था इसलिए मैंने उस के साथ बैठना शुरू किया. फिर मैंने गणेशजी को फुसलाना शुरू किया. गाड़ी ठीक-ठाक चल रही थी. कैसेट प्लेयर में गाने चल रहे थे. कैसेट हमारे पास दो ही थीं और गाने हमें लगभग याद हो गए थे. अचानक मेरा ध्यान एक चीज़ की तरफ़ गया – केशव ब्रेक को पम्प करने की तरह दबा और छोड़ रहा था. गाड़ी फ़र्राटे से भागी जा रही थी. बात समझ में नहीं आई. मैंने घबरा के पूछा क्या हुआ? केशव ने लापरवाही से जवाब दिया – कुछ नहीं. मैंने मान लिया. पीछे बैठे रज्जन बाबू को कुछ भी पता नहीं चल पाया. बाद में पता चला कि उस वक्त थोड़ी देर के लिए ब्रेक ने काम करना बन्द कर दिया था.
हाथरस आ पहुंचे. काका हाथरसी का शहर. शहर में पहुंचते ही घुटने-घुटने गड्ढे में जा घुसे. दुर्घटनावश नहीं जानबूझकर. क्योंकि कार उड़ नहीं सकती थी और हमें आगे जाना था. उन गड्ढों में इतना पानी था कि बच्चे तैरना सीख सकते थे. गाड़ी का निचला हिस्सा पानी के भीतर किसी चीज़ से टकराया, गाड़ी एक धचके के साथ आगे बढ़ी, लगा कि बला टल गई. आगे रेलवे क्रॉसिंग था. ट्रैफ़िक थमकर ट्रेन को गार्ड ऑफ़ ऑनर पेश कर रहा था. ट्रेन गुज़र गई, ट्रैफ़िक रेंगने लगा. हम जब पटरी के ऐन बीच में पहुंचे, गेयर बदलने के लिए जो मुदगरनुमा छड़ होती है, वह एक कर्कश आवाज़ के साथ तेज़ी से घूमी, केशव का बायां घुटना और कैसेट प्लेयर फ़ोड़कर थम गई. झन्न से कोई चीज़ सड़क पर गिरी और गाड़ी ठप्प. गेयर बक्सा टूट गया था.उसी का छड़ जैसा कोई हिस्सा नीचे आ गिरा था. पटरी तब तक पार कर चुके थे. गाड़ी बीच बाज़ार में खड़ी हो गई. गाड़ी रुकी तो पास में ही किसी मैकेनिक को होना था, जो कि था. एकाध घन्टा लगा, गाड़ी फिर चकाचक. इस बहाने मुझे और रज्जन बाबू को चाय पीने का मौका मिल गया.
गणेशजी की चमचागीरी अब तक बेनतीज़ा रही थी, आगे क्या फल देती. उन्हें जहां वे स्थापित थे उसी के बॉक्स में डाल दिया कि जाओ महाराज हमारी ओर से थाल भर खयाली लड्डू खाओ. तुम्हारे बस का कुछ नहीं.
दिन में एक-डेढ़ बजे के आसपास गाड़ी को कासगंज का एक वीरान इलाका भा गया इसलिए वह फिर रुक गई. हम समझ गए कि यकीनन आसपास कोई मैकेनिक होगा. केशव ने फिर एक बार हनुमान का रोल निभाया और एक जुगाड़ में लटक कर मैकेनिक नाम की संजीवनी लाने चला. मैकेनिक ने आकर दोएक पुर्ज़ों की मां-बहन से अपने अंतरंग संबंधों का हवाला दिया, तेल का पाइप खोल कर बोला – इसे आप चूसो, मेरा रोज़ा है. गाड़ी स्टार्ट. उसने तीन चीज़ों के पैसे लिए – दुकान से बाहर जाने के, आने-जाने में मोटरसाइकिल में जो तेल लगा उसके और अपने मेहनताने के – करीब तीनेक सौ रुपये. पूछा कि भाई पैसे तो तूने मनमाने के लिए मगर गारंटी क्या है. उस मुसल्ल्म ईमान वाले रोज़ेदार ने फ़रमाया – भाईजान मेरी दुकान तक गारंटी है, बाकी ख़ुदा के निज़ाम में दख़ल देने वाला मैं कौन होता हूं. वह मोटरसाइकिल से हमारे साथ साथ चला. दोएक किलोमीटर चलने के बाद गाड़ी फिर ठप्प. दुकान से लगभग आधा किलोमीटर पहले -गारंटी पीरियड में. अब बोल भय्ये, क्या कैरिया था?
बेचारी रज़िया गुंडों में घिर गई थी. समझना मुश्किल नहीं था कि जाहिलों के बीच में आ फंसे हैं. मैकेनिक की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था, बस वक्त बिताई हो रही थी. नमाज़ का वक्त हुआ और फिर देखते ही देखते रोज़ा खोलने का वक्त भी आन पहुंचा. मैकेनिक ने पेट्रोल का पाइप खोल रखा था और मोमबत्ती की रोशनी में उसका मुआयना कर रहा था. एक टॉर्च ख़रीदा गया और मोमबत्ती बुझवाई गई. अंत में मैकेनिक और उसके चेले-चांटे फिर नमाज़ को चले गए यह यकीन दिलाकर कि अब कोई दिक्कत नहीं आएगी. जहां तक मर्ज़ी हो जा सकते हो. दोएक सौ रुपए फिर झाड़ लिए – बावजूद गारंटी के.
दो-तीन किलोमीटर चलने के बाद कुत्ते की पूंछ फिर टेढ़ी. घना अंधेरा, वीरान इलाका, दूर तक किसी बस्ती का निशान नहीं, मदद की कोई संभावना नहीं. पीछे लौट कर जाना हद दर्ज़े की बेवकूफ़ी. ख़ुद ही टॉर्च की रोशनी में बोनट खोलकर थोड़ा छेड़खानी की, तेल का पाइप चूसा, गाड़ी चल पड़ी. हम सोच रहे थे कि कम से कम बदायूं तक तो पहुंच जाएं ताकि रात रहने के लिए कोई ढंग की जगह मिल जाए और सुबह को मैकेनिक. कासगंज-बदायूं की सरहद पर कहीं थे हम. पांचेक मिनट बाद ही गाड़ी का दम फिर फूल गया. लेकिन इस बार किसी बस्ती से 20-25 मीटर पहले. गाड़ी धकेलते हुए पहले ढाबे तक पहुंचे. ढाबे के मालिक मुकेश सिंह ने हमारी हालत पर तरस खाकर रात वहीं रुकने की इजाज़त दे दी. हालांकि मुसीबत में फंसे लोगों को पनाह देने के उनके अनुभव अच्छे नहीं रहे थे. कोई उनका मोबाइल ले भागा तो कोई बरामदे में पाखाना कर चलता बना. मुकेश सिंह कुछ ही समय पहले तक किसी सिगरेट कम्पनी में नौकर थे. मालिक से तनख़्वाह को लेकर झगड़ा हो गया. सिंह साहब मालिक को जहां से आए हो वहीं घुस जाओ (मूल गाली का शाकाहारी अनुवाद) जैसी असंभव राय/गाली देकर घर चले आए और ढाबा खोल लिया. दुकानदारी जैसी चीज़ मुकेश सिंह जैसे खरे और मुंहफट लोगों के बस की चीज़ नहीं होतीं और न वह ढाबा चल ही रहा था. वह उनका बेकारी का दौर था. अब पता नहीं कहां, कैसे होंगे. पूरे सफ़र में यही एक आदमी सच्चा और मददगार हमें मिला. नीलकंठ गेस्ट हाउस वाले भय्याजी को नहीं भूला हूं मगर वो ज़रा अलग चीज़ थे क्योंकि गायछाप थे. रज्जन बाबू और मैं नारियल के रेशों वाली रस्सी से बुनी चारपाइयों पर बिना किसी ओढ़ने-बिछाने के सो गए. केशव ने गाड़ी की सीट को ईज़ी चेयर की तरह फैला लिया.
सुबह को मुकेश सिंह हमारे लिए कामचलाऊ सा (ट्रैक्टर का) मैकेनिक बुला लाए. गाड़ी को धक्का भी उन्होंने लगाया. सिर्फ़ खाने और चाय के पैसे लिए. चलते समय भरोसा दिलाया कि बदायूं पहुंचने से पहले कहीं दिक्कत हो तो मुझे फ़ोन कर लेना. मैं मोटरसाइकिल में मैकेनिक को लेकर आ जाऊंगा.
उस दिन न जाने क्या बात हुई कि गाड़ी का दिल किसी मैकेनिक पर नहीं आया! दो-चार बार जब कभी उसका दम फूला तो हमीं से संतुष्ट हो गई. शायद हमको भी मैकेनिक मान बैठी हो क्योंकि मैकेनिकों के देख-देख कर हम भी गाड़ी रुकने पर गाड़ी के साथ मैकेनिकों जैसी हरकतें करना सीख गए थे. बदायूं पार हो गया. धीरे-धीरे बरेली पास आता चला गया. बरेली में एक जगह फ़्लाईओवर बन रहा था, जिसकी वजह से यातायात को एक संकरी सी सड़क की ओर मोड़ दिया गया था. साइकिलें, रिक्शा, स्कूटर, कारें, बसें, पैदल लोग, गरज़ कि हर तरह की रेलमपेल. हर शख़्स दूसरे के सर पर पांव रख कर आगे जाने की जुगत में. हटो, बचो और हॉर्न की चिल्लपों. हर आदमी खार खाया हुआ. तनी हुई रस्सी पर चलने की सी एकाग्रता से चलना भी ज़रूरी. ट्रैफ़िक किसी सिविल के मुकदमे की तरह रेंग रहा था. युग बीत गए चलते-चलते. लगभग आधे घन्टे बाद निकलना हो पाया इस सब से. गाड़ी से सारी शिकायतें दूर हो गईं क्योंकि अगर उस रेलमपेल में गाड़ी कहीं रुकती तो हमारा पिटना तय था और गाड़ी को कबाड़ी भी लेने से मना कर देता. सांस में सांस आई. ऐसे ही प्राण उस दिन सुबह तब सूखे थे जब कासगंज-बदायूं सीमा पर बने कछला ब्रिज को पार किया था. उस दिन वह ब्रिज हमें दुनिया के सातों आश्चर्यों का कपड़छान ही लगा. कछला ब्रिज में रेल की पटरी सड़क के बीचोबीच चलती है. रोंगटे खड़े हो गए यह सोचकर कि आगे या पीछे से धड़धड़ाती रेल आ गई तो? गाड़ी छोड़ कर नदी में कूदने की भी फ़ुरसत शायद न मिलती. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. करीब एकाध किलोमीटर लम्बा ब्रिज गाड़ी फ़र्राटे से पार कर गई.
लगभग तीनेक बजे जब हल्द्वानी पहुंचे तो यकीन हुआ कि बच गए. पूना से जो पैंट-कमीज़ का कपड़ा हमको उपहार में मिला था, उसकी अब पैंट कमीज़ ही बनेगी. वरना नासिक के बाद दिमाग में एक ख़्याल बीएसएनएल के मोबाइल सिग्नल की तरह लगातार आ-जा रहा था कि कहीं नियति ने हमें कफ़न तो गिफ़्ट नहीं करवा दिया.
हल्द्वानी में कार का कायाकल्प होने में करीब तीसेक घन्टे लगे. उसका तेल टैंक सहित जाने क्या-क्या बदला गया. बिल लगभग पन्द्रह हज़ार रुपया. पूना से बागेश्वर पहुंचने में जितना ख़र्च हुआ होगा उतने में शायद नई कार भी आ जाती. ख़ैर साहब ख़र्चे को मारिये झाड़ू. एक तो अपनी जेब से नहीं गया था और दूसरे ऐसे मौके पर रुपए पैसे की बात अच्छी नहीं लगती. हर चीज़ से बड़ी बात हमारे लिए यह थी कि सही सलामत हल्द्वानी पहुंच गए थे. मतलब कि फ़िलहाल दुनिया में कुछ दिन और दाना-पानी बाक़ी बचा था.
गाड़ी बेचारी जो थी हमारी वह दिल की मरीज़ निकली. पूना में गाड़ी बिना इस्तेमाल किए लम्बे अर्से से खड़ी थी जिसकी वजह से उसका तेल टैंक अंदर से जंग खा गया था. नासिक के बाद उसी जंग के ज़र्रे आ आकर तेल के पाइप में फंसते रहे और गाड़ी लकवाग्रस्त होती रही. गाड़ी को किसी हार्ट स्पेशलिस्ट की ज़रूरत थी जबकि इलाज जनरल फ़िजीशियन करते रहे. ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज़ बढ़ता गया. हमारी व्यथा जो कि अब कथा हो चुकी, को वही बेहतर समझ सकता है जिसने कभी सरकारी अस्पतालों में किसी गम्भीर रोग का इलाज करवाया हो और दुर्घटनावश ज़िन्दा रह गया हो.
(Hilarious Adventure from Pune to Bageshwar)
चौबे जी गाड़ी की अगवानी के लिए अल्मोड़ा पहुंचे हुए थे. केशव को गाड़ी समेत उनके हवाले करके रज्जन बाबू और मैं वहीं पर उतर गए. गाड़ी केशव और चौबेजी खैरियत से उसी रात बागेश्वर पहुंच गए.
बाद में कई बार उस गाड़ी में सफ़र करने का मौका मिला तो अकसर पुराने सफ़र की यादें ताज़ा हुईं – मतलब कि गाड़ी अलग-अलग कारणों से ठप्प हुई. गाड़ी अभी चालू हालत में है और बागेश्वर शहर में टहलती हुई देखी जा सकती है. हां ज़ुकाम-बुख़ार जैसी छोटी-मोटी शिकायतें उसे आए दिन होती ही रहती हैं. दुआ करनी चाहिए कि उसे अच्छी सेहत और लम्बी उम्र मिले.
आमीन!
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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