अल्मोड़ा (Hariya Pele of Almora) से कोई चालीसेक किलोमीटर दूर एक औसत, मझोले आकार का गांवनुमा कस्बा है दन्या. दन्या की दो चीजें प्रसिद्ध हैं. नंबर एक दन्या का पराठा, नंबर दो दन्या के जोशी.
इनमें से कोई सन उन्नीस सौ साठ या पैंसठ में दन्या के किसी जोशी परिवार में एक बच्चे का जन्म होता है, नाम रखा जाता है हरीश चंद्र जोशी. ठेठ पहाड़ी ब्राह्मणों की परंपरागत शैली का नाम. पर दुनिया, दन्या न थी. दुनिया, दुनिया थी. इस नामुराद दुनिया ने बच्चे में कुछ ऐसा देखा कि उसका नाम जो कि अच्छा खासा हरीश चंद्र जोशी था, से बदलकर हरिया रख दिया. बात अगर हरिया तक सीमित रहती तो भी ठीक था, क्योंकि पहाड़ में ललित कब लल्दा हो जाए, पार्वती कब परुली हो जाए, हरिप्रिया कब हरूली हो जाए और हरीश कब हरिया हो जाए पता नहीं चलता. इसी हरिया (Hariya Pele of Almora) के साथ दुनिया ने एक शब्द और जोड़ दिया “पेले”.
इस प्रकार हरीश चंद्र जोशी ,हरीश चंद्र जोशी से पहले हरिया हुए बाद में हरिया पेले.
हरीश जोशी से हरिया पेले तक का रास्ता नब्बे मिनट के उस मैच की तरह न था, जिसे दुनिया फुटबॉल मैच कहती है.
सिंचाई विभाग के एक चौथे दर्जे के मुलाजिम ,जिनका परिवार अल्मोड़े में आज जहां रघुनाथ मॉल है, के पास उन दिनों बने सरकारी क्वार्टरों में रहता था से एक छोटे बालक हरीश की हरिया पेले बनने की कहानी शुरू होती है विक्रम दस्तीदार की नजर पड़ने के बाद.
बनारस में रेलवे के डीजल इंजन कारखाने के फुटबॉल टीम कोच बंगाली बाबू विक्रम दस्तीदार ,किसी काम से अल्मोड़ा आए तो उनकी नजर स्टेडियम के आसपास फुटबॉल में किक मारते हुए एक किशोर पर पड़ी ,जो अपने घुंघराले बालों के नीचे स्थित एक जोड़ी बिल्लोरी आंखों से बस सामने बने गोल पोस्ट को देख रहा था, और उसके कदम आसपास के सभी साथियों को बिजली की तेजी से छकाते हुए दनदनाते गोल पोस्ट की तरफ बढ़े चले जा रहे थे, तभी एक जोर की आवाज सीटी के साथ हवा में गरज उठी “और ये गोल”!
विक्रम दस्तीदार जो उस समय स्टेडियम के किनारे पर खड़े हुए इस फॉरवर्ड मूव को मंत्रमुग्ध होकर देख रहे थे, ने अचानक अपने आप से शायद बुदबुदाते हुए कहा “अमी जाके खोज्चो वो एकानेयी आच्झे” अर्थात तुम जिसे ढूंढ रहे हो वह यही है.
उन्होंने अपनी भारी आवाज से पुकार लगाई – “कम हियर!! यू फाइव नंबर”
विक्रम दस्तीदार का बुलाना और हरीश जोशी का उनकी तरफ जाना सब कुछ एकदम स्वाभाविक था. बिल्कुल किसी प्री प्लान ड्रैमेटिक प्लॉट की तरह.
अल्मोड़ा उन दिनों दो अलग-अलग तरह के नशे की गिरफ्त में था. एक हिप्पी मूवमेंट दूसरा फुटबॉल.
बताते हैं कि रविवार की दोपहर में फुटबॉल मैच के समय अल्मोड़ा की हालत एक कर्फ्यू लगे शहर की तरह हो जाती. स्टेडियम को छोड़कर पूरे अल्मोड़ा में एक गहरा सन्नाटा, इतना गहरा की कोई देवदार की सांसें तक सुन ले.
उन दिनों पूरा अल्मोड़ा दर्जन भर फुटबॉल क्लबों से अटा पड़ा था. विलेज यूनियन खत्याड़ी, लाला बाजार क्लब, हुक्का क्लब फुटबॉल टीम,गोरखा यूनियन, ब्रिटानिया फुटबॉल टीम, कैंट बॉयज़ से लेकर न जाने कितनी और टीमें.
पर जलवा तो हरिया पेले का था. मैदान पर दौड़ता हुआ विक्रम दस्तीदार का यह शिष्य अपने अद्भुत डॉज के लिए जाना जाता था. एक ऐसी डॉज,जिसमे सामने वाला कतई न भाप सके कि हरिया गेंद को किस तरफ पास करेगा और कहां से निकालेगा. शायद लोगों को उसके इसी मूव में पेले नजर आया होगा.
एक ऊर्जा जिसे दुनिया अल्मोड़ा नाम से जानती है
हरिया का खेल एक सम्मोहन था. सामने वाला खिलाड़ी उसकी घुंघराली लटों,बिल्लोरी आंखों और चेहरे पर खेलती एक मासूम शरारती मुस्कुराहट के जाल में फंसकर यह नहीं समझ पाता कि फॉरवर्ड मूव का यह डॉज, फ्रंट वाली से कब साइड वाली में बदल कर गोल हो जाएगा. आखिर में सारा ध्यान तब भंग होता जब तालियों की गड़गड़ाहट के बीच एक जोरदार आवाज आती – “और ये गोल”!
इस आवाज ने सैकड़ों लीग मैचों, अंडर सिक्स्टीन,अंडर नाइन्टीन के मैचों से लेकर हल्द्वानी ,रामनगर नैनीताल, बागेश्वर, पिथौरागढ़ से लेकर न जाने कहां कहां हरिया को हरिया पेले बनाया. इसी आवाज की दीवानी दुनिया ने हरिया को वह इज्जत बख्शी की हरिया ,हरिया से हरिया पेले हो गया.
वक्त के उस मोड़ पर जब जवानी, खेल ,प्रसिद्धि और खूबसूरती ,चारों हरिया के दामन में बेलौस उतर रही थी तब हरिया की जिंदगी में एक खूबसूरत लड़की का आना हुआ.यह हरिया जैसे भोले भाले, एक पहाड़ी नवयुवक के लिए आकर्षित करने वाला था. कहते हैं कि प्यार अंधा होता है ,ऐसा सिर्फ हरिया के लिए था, उस लड़की के लिए नहीं.
वह प्रेम ,जिसका आधार फुटबॉल के मैदान पर कलात्मक किंतु शक्तिशाली तरीके से मूव करता हुआ हरिया, उसका अंग्रेज लुक, उसकी जबरदस्त प्रतिभा ,उसका भोलापन हो हरिया की कम स्कूली शिक्षा से हार गया.
लड़की ने जब अपने भविष्य की बीमा पॉलिसी को पूरा ना होते देखा तो एक दिन दन्या के हरिया को जो दुनिया के हरिया पेले से बहुत अलग था,को बिना कारण बताये छोड़ कर चली गई.
परिणाम एक ऐसी चटख के रूप में सामने आया जो किसी भी हीरे को पत्थर बना देती है. अब हरिया पेले,हरिया पेले नहीं रहा .वह हरिया भी नहीं रहा. वह कभी नहीं रोया ,वह कभी नहीं हंसा ,वह कभी नहीं नाराज हुआ, बस वो आवाज “और ये गोल” से जैसे कहीं दूर हो गया ,कहीं खामोश हो गया.
इस घटना के बाद और तमाम घटनाएं हरिया के जीवन में एक के बाद एक दरारें पैदा करने के लिए होती रहीं जिनका यहां जिक्र करना आवश्यक नहीं है. पर इन सब ने हरिया से उसका पेले जरूर छीन लिया.
वे लोग जिन्होंने ऑल राउंडर हरिया पेले का खेल देखा है ,बताते हैं कि कलात्मक और पावरफुल गेम जैसे हरिया को गॉड गिफ्टेड था. उसे विक्रम दस्तीदार ने तराशा था, बनाया नहीं .वह एक बना बनाया फुटबॉलर था.
अथ डोटियाल गाथा उर्फ़ एक अल्मोड़िया तफसील
आज हरिया पेले खत्याड़ी के सरकारी अस्पताल के आसपास की चाय की दुकानों में, मुरझाए चेहरे ,बढ़े हुए वजन के साथ ,अर्ध विक्षिप्त सी अवस्था में घूमते पाए जाते हैं जिनका कोई ठिकाना नहीं. चाय की दुकानों में चंद कप चाय और कुछ समोसों के बदले ,उनका पानी भर देना ,उनकी जूठी प्लेट साफ कर देना और फिर फुर्सत में दूर जहां कोई ना देख सके वहां आकर सो पड़ना, अब दुनिया के लिए हरिया मानो इतना ही है. मजबूत कद काठी के हरिया पेले पर उम्र ने करारा गोल दाग दिया है. ऊपर के जबड़े में दाएं ओर के आधे दांत और नीचे के जबड़े में बाई ओर के आधे दांत गिर चुके हैं, पेट लटक चुका है, चेहरा सूजा हुआ है ,आंखों की चमक लगभग बुझ चुकी है, पर बात करते करते देखा कि हरिया के अवचेतन में फुटबॉल जिंदा है.
हरिया पेले के बचपन के साथी रहे गजेंद्र सिंह बिष्ट, अल्मोड़ा फुटबॉल एसोसिएशन के अध्यक्ष हरीश कनवाल, और युवा फुटबॉलर गोकुल शाही हरिया पेले के मूव्स और फुटबॉल पर उसकी पकड़ को याद करते एकदम जोश में आ जाते हैं, पर वही हरिया पेले अब कुरेदने पर भी फुटबॉल की कोई बात नहीं करना चाहता. बहाना चोट का, वह चोट पैर की है या आत्मसम्मान की या हृदय की भगवान जाने पर हरिया अब फुटबॉल की बात नहीं करना चाहता.
एक ऐसा शहर जिस पर कभी फुटबॉल का नशा तारी रहा हो, वह शहर आज इस दौर से गुजर रहा है कि अब फुटबॉल पर चर्चा करने वालों के पास फुटबॉल के बारे में सोचने तक का वक्त नहीं है. शहर की कैफियत का अंदाजा लगाने को काफी है.
हरिया पेले मात्र एक खिलाड़ी नहीं था, वह उस भावना ,उत्साह, जोश और अंत में उस गोल का प्रतीक था जिसने अल्मोड़ा में सांस लेकर गोल करना सिखाया, डॉज देना सिखाया.
अब वह अल्मोड़ा कहीं गुम हो गया है. कहीं दूर किसी जंगल के किनारे उगे और गहरे जंगल की तरफ चली गई फुटबॉल की तरह, जिसे पास में फुटबॉल खेलने वाले बच्चे देख रहे हों. जंगल गहरा है और घना भी है, पर उम्मीद की, सपनों की, उत्साह की, भविष्य की फुटबॉल को ढूंढने कौन जाएं? हरीश, हरिया या हरिया पेले, तय करना आप को और इस शहर को है.
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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1 Comments
Sanjay Bisht
I spent my childhood days in Almora and know this football player very well, very sad to know his current state. He was really gem player.. we had seen him during that state when that girl left him and he was going into that state… very unfortunate but that’s life and we have to fight at every stage… be it in our favor our opposite…. Thanks for bringing this up…..