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बयासी के हुए आज ज्ञानरंजन

आज हिन्दी की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका ‘पहल’ के यशस्वी सम्पादक और महान कथाकार ज्ञान जी का जन्मदिन है. आज ज्ञान जी ने बयासी साल पूरे कर लिए. अपने से बहुत छोटी आयु वालों के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, यह बात ज्ञानरंजन जी से सीखी जानी चाहिए. नए लिखने वालों को किस संतुलन और समझदारी के साथ प्रोत्साहित कर उनसे बेहतर लेखन कैसे करवा लिया जाय, सादगी भरा ऐसा बड़प्पन हिन्दी के तथाकथित बड़े और नामवर सम्पादक-कवि-लेखक उनसे सीख गए होते तो हमारी भाषा के साहित्य की ऐसी कुकुरगत न हुई होती. इसके अलावा वे बीसवीं सदी से सबसे बड़े कहानीकारों में गिने जाएंगे. हमेशा. मनुष्य के आतंरिक क्षय की ऐसी कथाएँ उनके बाद किसी ने नहीं लिखीं. और अकल्पनीय विट और तर्क में पगी उनकी अद्वितीय भाषा!

ज्ञानरंजन जैसा आदमी शताब्दी में एक बार ही पैदा होता है. वे शतायु हों! उन्हें सलाम और ढेरों बधाईयाँ. पढ़िए उन पर लिखा मनोहर बिल्लौरे का एक लेख.

ज्ञान जी को कविता का बहुत गहरा ज्ञान है

– मनोहर बिल्लौरे

बात उन दिनों की है जब ज्ञानरंजन जी नव-भास्कर का संपादकीय पेज देखने जाते थे. सन याद नहीं. तब वे अग्रवाल कालोनी (गढ़ा) में रहा करते थे. सभी मित्र और चाहने वाले अक्सर शाम के समय, जब उन के निकलने का समय होता, पहुँच जाते. चंद्रकांत जी दानी जी, मलय जी, सबसे वहाँ मुलाकात हो जाती. आज इंद्रमणि जी याद आ रहे हैं. वे भी अपनी आवारा जिन्दगी में ज्ञान जी के और हमारे निकट रहे और अपनी आत्मीय उपसिथति से सराबोर किया.

उस समय जब ज्ञान जी ने संजीवनीनगर वाला घर बदला और रामनगर वाले निजी नये घर में आये तब काकू (सुरेन्द्र राजन) ने ज्ञान जी का घर व्यवसिथत किया था. जिस यायावर का खुद अपना घर व्यवसिथत नहीं वह किसी मित्र के घर को कितनी अच्छी तरह सजा सकता है, यह तब हम ने जाना, समझा. ज्ञानरंजन की बदौलत हमें काकू (सुरेन्द्र राजन) मिले. मुन्ना भाई एक और दो फिल्मों में उनका छोटा सा रोल है. ‘बंदिनी’ सीरियल में वे नाना बने हैं. उन्हें तीन कलाओं में अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड मिले है. वे कहते हैं कि फिल्म में काम हम इसलिये करते हैं ताकि महानगर में रोटी, कपड़ा और मकान मिलता रहे.

प्रमुख और जरूरी सामान घर आ चुका था. केवल कुछ पुस्तकों और पत्रिकाओं के पुराने बंडल भर आना बाकी थे. उस समय गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं. मैंने काम की मस्ती में यह काम तुरत-फुरत निपटा दिया. उन बंडलों में कुछ पुरानी जर्जर पुस्तकें तथा पुरानी पत्रिकाओं के महत्वपूर्ण और सामान्य अंक थे. मेरा उनके प्रति सम्मान-भाव तब और उत्साहपूर्ण हो गया, जब उन्होंने मुझे पुरानी पत्रिकाओं के वे बंडल रखने और उपयोग करने के लिये दे दिये. उस समय मेरी श्रम के प्रति आस्था देखकर उन्होंने एक वाक्य बहुत विश्वास के साथ कहा था -”यह उत्साह यदि बनाये रख सके तो बहुत आगे जाओगे. बाद में कितना विपरीत समय आया. संघर्ष की कितनी परिस्थितियों से गुज़रना पड़ा, ऐसे समय में हमेशा उनका संबल साथ रहा और किसी तरह उनसे उबरता रहा. समय के गर्भाशय में क्या कुछ पल रहा है कैसे बताया जा सकता है?

और सच में तब से मैंने आर्थिक प्रगति भले न की हो परंतु मानसिक प्रगति निश्चित रूप से थोड़ी ही सही करता रहा हूँ. बाद में संयोगवश उन्होंने मेरी एक कविता सुनकर ‘पहल’ के 46 वें अंक में तीन-चार और कविताओं के साथ प्रकाशित की थीं. उस समय तक मेरी कविताएं किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित नहीं हुई थीं. अखबारों में ज़रूर यहाँ-वहाँ छप जाती थीं.

ज्ञानरंजन और उनका परिवार

रामनगर से मेरा और चंद्रकांत जी का घर मुश्किल से एक किलोमीटर पड़ता है. उनके घर तक अब पैदल जाया-आया जा सकता है. शाम या सुबह की सैर उनके साथ करना संभव है, बल्कि की जाती है. कितनी-कितनी बातें वे बताते जाते हैं पैदल घूमते समय – दुनिया-भर की. विषय कोई भी हो, वे उसका किसी ऐसी रासायनिक विधि से विष्लेषण-संष्लेषण कर निष्कर्ष पेश करते हैं कि संतुष्ट होना ही पड़ता है. तर्क बचते ही नहीं. नयी से नयी, पुरानी से पुरानी कोर्इ भी खास घटना हो उन्हें मालूम रहती है. खबरें अखबारों से नहीं आयेंगी तो फोन से आ जायेंगी. देश से नहीं आयेंगी तो विदेश से आ जायेंगी. उन्हें समाचारों तक जाने की आवश्यकता नहीं. संजीवन अस्पताल के पास, रामनगर, अधारताल, जबलपुर के 101, नम्बर घर में बिना खास उपकरणों के खास खबरें दौड़ती चली आती हैं. यहाँ तक कि लोग खबरें देने सदेह पहुँचते रहते हैं. इस दौरान कितने-कितने भाव उनके चेहरे और देह-भाषा द्वारा प्रकट होते हैं यह बस महसूस करने भर की बात है, बयान करने की नही . कितना प्यार भरा है उनकी डांट और फटकार में यह उनके गहरे साथी ही जान और महसूस कर सकते हैं अन्य कोई और नहीं. उनके अंदर कितना ‘ज्ञान है – इसके अंक और मापक हमारे छोटे पड़ जाते हैं.

बहरहाल, हम शहीद स्मारक में मिलते, कुछ देर वहीं – साहित्यिक-असाहित्यिक गप्पें हांकते. घूमते… फिरते… काफी हाउस या किसी और सुथरे रेस्टारेन्ट में बैठते या चहलकदमी करते हुए कहीं कुछ खाते पीते और लौटते. जब कभी मैं और ज्ञान जी कमानिया गेट की तरफ से घर की ओर लौटते. उन्हें चीजों की अच्छी पहचान है. सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम और परफेक्ट उनके अंतरंग शब्द हैं. उनका अनुशासन बड़ा तगड़ा है. कर्इ लोग तो उनसे दूर इसी कारण हो जाते हैं, क्योंकि वे इस पाठशाला के अनुशासन का पालन नहीं कर पाते. स्वावाभिक है लापरवाह और स्वार्थी आदमी उनके पास अधिक देर टिक नहीं पाता. कुछ हैं जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से घबराकर उनके निकट आने से घबराते हैं.

तो बात कमानिया की चल रही थी. वे खूब खिलाते-पिलाते और बातें करते रहते. बस छेड़ भर दिया जाये. कमजोर और गलत, हल्की और थोथी बातें उनके बर्दाश्त के बाहर हैं. ऐसे समय पूरे विश्वास के साथ वह बरस पड़ते हैं. और बेरहमी से हमला करते हैं. पर सब पर नहीं अपनों पर, अपने दोस्तों पर. यह उनकी आदत में शुमार है. लौटते समय साइकिल रिक्शे पर बैठने से पहले वे कभी चने, कभी मूंगफली, या कोई इसी तरह का,कुछ और टाइम-पास जो अच्छा भर नहीं, सर्वोत्तम , सर्वोत्कृष्ट हो, वे लाते और इस तरह हम कुछ खाते-पीते साइकिल रिक्शे पर बैठकर घर की ओर लौटते. रास्ते भर कुछ न कुछ बातें होती रहतीं. कभी रिक्शे वाले से वे बातें करने लगते या उससे कुछ पूछते. वे बताया करते – “बिल्लौरे जी, मेरे पास कुछ नहीं था. न घर न फर्नीचर,न किसी तरह का कोर्इ भी गृहस्थी का सामान… सब किराये का था. धीरे-धीरे सब कुछ नये सिरे से एक-एक कर जोड़ना पड़ा….”

ऐसा नहीं है कि वे, उनके मित्र साहित्य या संस्कृति, कला या समाज से जुड़े सक्रियतावादी ही रहते हों और वे केवल ऐसे ही उत्कृष्ट लोगों से सबंध रखते हों. उनके घर का माली, पहल-पैकर, बाइन्डर, कामवाली, दूकान का नौकर या कोई और अन्य नया पुराना सामान्य व्यक्ति हो, वह प्यार करते हैं, टूटकर; और आपको झुकना पड़ता है नीचे अपने आप, स्वयंमेव. सहायता के लिये उनकी दोनों बाहें, खुली रहती हैं. उनके अंदर ममत्व है. कोई उनसे जुड़कर उनसे अलग हो पाये यह अपवाद ही हो, तो हो, नियम या सिद्धांत तो बिल्कुल नहीं है. हाँ एक बात ज़रूर है – कोई स्वार्थी, लंपट, धोखेबाज, चालबाज, लेंड़ू किस्म का जीव क्या ऐसी कोर्इ चीज भी उनके पास क्षण भर टिक नहीं सकती. वे उसे भगायेंगे या दुत्कारेंगे नहीं, पर ऐसा कुछ ज़रूर करेंगे कि सामने वाले की हिम्मत आँख मिलाने की नहीं होगी. वे स्पष्ट वक्ता हैं. अपने सिद्धांतों में पूरी तरह ढले. जिसे उनके अनु्शासन में रहना है पूरे मान से रहे, वरना…!

ज्ञान जी को कविता का बहुत गहरा ज्ञान है. उन्होंने कहीं लिखा है – ‘मैं कहानी लिखने के पहले कविताएं जोर-जोर से पढ़ता था.” उनसे दुनिया भर की कविता के बारे में बात कर लो, राय ले लो, उनकी टिप्पणी सुन लो. किसी भी भाषा के पुरातन और नव्यतम कवि के बारे में बात कर लो, वे विशिष्टताएं बताने लगेंगे. जो खास है,उनके पास है. नहीं है तो आ जायेगा.

कुछ बातें सुननयना जी के बारे में. भाभी जी के घर कोर्इ पीये भले न, खाये बिना जा नहीं सकता. ज्ञान जी जब कभी घर पर नहीं मिलते तो उनसे देर तक बातें की जा सकती हैं. यदि आप आते, जाते रहते हैं. पता नहीं खाने का शौक उन्हें कितना है, पर बनाने का – और उसे कई लोगों को खिलाने-पिलाने का उन्हें बड़ा शौक है. आप कुछ न कुछ ऐसा जरूर खाकर आयेंगे जो संभवत: पहले कभी आपने कहीं और न खाया-पिया होगा. कुकिंग से उन्हें बड़ा प्रेम है. हमें उस घर में बड़ा सुकून मिलता है. उनका व्यक्तित्व उनके घर में पूरी तरह रौशन है. ज्ञान की तरह.

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