तोरमाणः- सन् पांच सौ ई. के लगभग हूण सरदार तोरमाण ने मालवा तक अपना शासन स्थापित किया और महाराजाधिराज की पदवी धारण की. तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल की राजधानी शाकल सम्भवतः सहारनपुर देहरादून की सीमा पर स्थित भग्नावशेष शाकल है जो अब शाकम्बरी देवी के नाम से जानी जाती है. गुप्त साम्राज्य के विषय में चीनी यात्री फाहियान (405-411) के यात्रा का वर्णन से अनके बातों का ज्ञान होता है. गुप्त शासन काल के शिलालेखों में महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक उपाधियाँ राजाओं के नाम के साथ लिखी मिलती है. साम्राज्ञी महादेवी कहलाती थी और बडा लडका कुमार भट्टारक या युवराज कहलाता था. साम्राज्य के मुख्य अधिकारियों में महासेनापति भटाश्वपति, संधि विग्रहिक महासंधि विग्रहिक, महादण्ड नायक, दण्डाधिप आदि नाम कत्युरी ताम्रपत्रों के समान है. जिलों के लिये विषय नाम कत्युरी शिलालेखों में भी है और गुप्त राजाओं के ताम्रपत्रों में भी.
फाहियानः- फाहियान चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में स्थल मार्ग से चीन से भारत आया था और जल मार्ग के द्वारा चीन वापस गया था. उसके साथ चार अन्य या़त्री भी भारत आये थे. फाहियान ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और तीस देशों के विषय में व्यापक सूचनायें दी है.
इसके अनुसार गुप्त कालीन भारत की आर्थिक स्थिति कृषि परक थी. जमीदारी प्रथा नहीं थी. कृषि योग्य भूमि पर परिवारों तथा व्यक्तियों का अधिकार था. यही कृषि परक जमींदार विहीन स्वामित्व की प्रथा कुमाऊं में आज भी है तथा कत्यूरी राजाओं के शासनकाल में भूमि की उपज पर उसकी उर्वरता के अनुसार चैथाई से सौलहवें भाग तक कर के रूप में लिया जाता था. समस्त प्रकार के धातु उद्योग इस समय उन्नति पर थे. लोहे की कला का उदाहरण दिल्ली में कुतुबमीनार के निकट लोहे की मीनार है.
लौहित्य देश: – गुप्त काल में विविध उद्योगों में लगे व्यवसायियों की श्रेणियों तथा व्यापारिक तथा व्यापारिक संघों का पर्यात्व महत्व था. कुमार गुप्त के मंदसौर के लेख में एक पटकार श्रेणी का उल्लेख आया है. जो लाट देश से आकर दसपुर में निवास करने लगी थी. सम्भवतः इसी काल में काली कुमाऊं में आये पटुवे (पटकार) लोगा कालान्तर में इस नाम से कुमाऊं में जाने जाते रहे हों. इस काल के सिक्कों पर यूनानी सिक्कों का व्यापक प्रभाव भी यह सिद्ध करता हैं कि गुप्त वंश के राजा पश्चिमोत्तर भारत के ग्रीक रोमन शासकों से संबंध थे. कुमू काली (कुमाऊं) का लौहे के बर्तन बनाने का उद्योग बहुत पुराना है. कुमू के लोहारों के बनाये हुए भदेलै और जबरिये (हंड और बडे कटोरे) आज भी मेलों में बिकने हेतु लाये जाते है. काली पार का क्षेत्र तांबे के उद्योग के लिए प्रसिद्ध रहा है. नेपाल शब्द तांबे का पर्यायवाची है. काली कुमू गुप्त राजाओं के समय में लोहे ताँबे के उत्पादन के लिये प्रसिद्ध रहा होगा. सम्भतः धातुओं के उत्पादन के कारण ही इसे लौहित्य (लोहाघाट, लोहावती घाटी) देश नाम दिया गया होगा. कुमार गुप्त के पौत्र महासेन गुप्त द्वारा लौहित्य देश पर अधिकार करने का इतिहासकारों ने उल्लेख किया है.
बाणभट्ट का हर्ष चरित्र और कुमाऊं गुप्तकाल में कुमाऊं रुहेलखंड के कत्यूरी राज्य को सभी इतिहासकार, प्रयाग स्तंभ लेख में समुद्रगुप्त की प्रशस्ति के विजित कर्तुपुर नहीं मानते हैं. इसका उल्लेख पहले भी हो चुका है डॉक्टर राय चौधरी और मिस्टर फ्लीट इसे कर्तारपुर (पंजाब) मानते हैं किंतु श्री भंडारकर और डॉक्टर वासुदेव शरण अग्रवाल इससे कत्यूर घाटी ही मानते हैं. हर्ष के समय में बाणभट्ट कृत हर्षचरित कर्तुपुर के शासको को शक जाति ही कहा गया है. राज शेखर कृत काव्य मीमांसा में इन्हें खस लिखा गया है. समुद्रगुप्त की दिग्विजय के समय पांच सीमांत पर्वतीय राज्यों का उल्लेख हुआ है. वे हैं दबाक, नेपाल, कामरूप, समतट और कर्तुपुर. ये पाँचों राज्य समुद्र गुप्त को कर देते थे. नेपाल को वर्तमान नेपाल में के आकार में मानना एक भ्रान्ति होगी. तब नेपाल बागमती घाटी के अनेक राज्यों में से एक छोटा सा राज्य था जिसमें लिच्छवि वंश के राजा राज्य करते थे. अठारहवीं सदी तक भी यही स्थिति थी.
(समाप्त )
श्री लक्ष्मी भंडार अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित ‘पुरवासी’ के अंक-11 से साभार तिलाराम आर्या के आलेख के आधार पर )
गुप्त वंश तथा कुमाऊं भाग-2 के लिए यहाँ देखें
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