रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ (3 दिसम्बर 1957 – 8 दिसंबर 2015) हिंदी के लोकप्रिय जनकवि हैं. वे स्नातकोत्तर छात्र के रूप में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से जुड़े. यह जुड़ाव आजीवन बना रहा. उनका निधन 8 दिसंबर 2015 को 58 वर्ष की अवस्था में हुआ. जन्म 3 दिसंबर, 1957 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के अंतर्गत आहिरी फिरोजपुर गांव में हुआ. आरंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई. सुल्तानपुर में उन्होंने स्नातक किया. इसके बाद उन्होंने कमला नेहरू इंस्टीट्यूट में वकालत में दाखिला लिया. वे इसे पूरा नहीं कर सके. उन्होंने 1980 में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर में प्रवेश लिया. 1983 में छात्र-आंदोलन के बाद उन्हें जेएनयू से निकाल दिया गया. इसके बावजूद वे आजीवन जेएनयू में ही रहे. वही उनकी कर्मस्थली और कार्यस्थली बना रहा.
अंतिम समय में उन्होंने ऑक्युपाई यूजीसी में जेएनयू के छात्रों के साथ हिस्सेदारी की. इसी दौरान उनका निधन हो गया.
(विद्रोही जी का परिचय हिन्दी विकीपीडिया के आधार पर -सम्पादक.)
नानी
– रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’
कविता नहीं कहानी है,
और ये दुनिया सबकी नानी है,
और नानी के आगे ननिहाल का वर्णन अच्छा नहीं लगता.
मुझे अपने ननिहाल की बड़ी याद आती है,
आपको भी आती होगी!
एक अंधेरी कोठी में
एक गोरी सी बूढ़ी औरत,
रातो-दिन जलती रहती है चिराग की तरह,
मेरे खयालों में.
मेरे जेहन में मेरी नानी की तसवीर कुछ इस तरह से उभरती है
जैसे कि बाजरे के बाल पर गौरैया बैठी हो.
और मेरी नानी की आंखे…
उमड़ते हुए समंदर सी लहराती हुई उन आंखों में,
आज भी आपाद मस्तक डूब जाता हूं आधी रात को दोस्तों!
और उन आंखों की कोर पर लगा हुआ काजल,
लगता था कि जैसे क्षितिज छोर पर बादल घुमड़ रहे हों.
और मेरी नानी की नाक,
नाक नहीं पीसा की मीनार थी,
और मुंह, मुंह की मत पूछो,
मुंह की तारे थी मेरी नानी,
और जब चीख कर डांटती थीं,
तो जमीन इंजन की तरह हांफने लगती थी.
जिसकी आंच में आसमान का लोहा पिघलता था,
सूरज की देह गरमाती थी,
दिन धूप लगती थी,
और रात को जूड़ी आती थी.
और गला, द्वितीया के चंद्रमा की तरह,
मेरी नानी का गला पता ही नहीं चलता था,
कि हंसुली में फंसा है या हसुली गले में फंसी है.
लगता था कि गला, गला नहीं,
विधाता ने समंदर में सेतु बांध दिया है.
और मेरी नानी की देह, देह नहीं आर्मीनिया की गांठ थी,
पामीर के पठार की तरह समतल पीठ वाली मेरी नानी,
जब कोई चीज उठाने के लिए जमीन पर झुकती थीं,
तो लगता था जैसे बाल्कन झील में काकेसस की पहाड़ी झुक गई हो!
बिलकुल इस्कीमों बालक की तह लगती थी मेरी नानी.
और जब घर से निकलती थीं,
तो लगता था जैसे हिमालय से गंगा निकल रही हो!
एक आदिम निरंतरता
जे अनादि से अनंत की और उन्मुख हो.
सिर पर दही की डलिया उठाये,
जब दोनों हाथों को झुलाती हुई चलती थी,
तो लगता था जैसे सिर पर दुनिया उठाये हुए जा रही हो.
जिसमें मेरे पुरखों का भविष्य छिपा हो,
और मेरा जी करे कि मैं पूछूं,
कि ओ री बुढि़या, तू क्या है,
आदमी कि आदमी का पेड़!
पेड़ थी दोस्तों, मेरी नानी आदमियत की,
जिसका कि मैं एक पत्ता हूं.
मेरी नानी मरी नहीं है,
वह मोहनजोदड़ो के तालाब में स्नान को गई है,
और अपनी धोती को उसकी आखिरी सीढ़ी पर सुखा रही है.
उसकी कुंजी यहीं कहीं खो गई है,
और वह उसे बड़ी बेसब्री के साथ खोज रही है.
मैं देखता हूं कि मेरी नानी हिमालय पर मूंग दल रही है,
और अपनी गाय को एवरेस्ट के खूंटे से बांधे हुए है.
मैं खुशी में तालियां बजाना चाहता हूं,
लेकिन यह क्या!!
मेरी हथेलियों पर सरसों उग आई है,
मैं उसे पुकारना चाहता हूं,
लेकिन मेरे होठों पर दही जम गई है,
मैं पाता हूं
कि मेरी नानी दही की नदी में बही जा रही है.
मैं उसे पकड़ना चाहता हूं,
पकड़ नहीं पाता हूं,
मैं उसे बुलाना चाहता हूँ,
लेकिन बुला नहीं पाता हूं,
और मेरी देह, मेरी समूची देह,
एक पत्ते की तरह थर-थर कांपने लगती है,
जो कि अब गिरा कि तब गिरा.
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