उद्यानिकी के क्षेत्र में ग्राफ्टिंग टैक्नीक (कलम बन्दी विधि) कोई नया प्रयोग नहीं है, वर्षों से उद्यानों में इस विधि से उन्नत किस्मों के पौधों की ग्राफ्टिंग कर फलों की गुणवत्ता में सुधार वर्षों से चला आ रहा है. सामान्यतः एक ही प्रजाति के पौधों में अच्छी नस्ल के पौधों की ग्राफ्टिंग कर कलमी नस्ल तैयार की जाती है। आम, आड़ू, पुलम, खुमानी, सेब, नासपाती में हम इसका प्रयोग करते आये हैं. जंगल में स्वतः उगने वाले पौधे कुछ ऐसे भी हैं जो उद्यानों में उगाये जाने वाले पौधों की प्रजाति के समकक्ष होते हैं और इन पौधों में इसी कुल के पौधे की कलमें आसानी से लग जाती है. मसलन जंगली मेहल में नासपाती और पद्म (पईंया) में चेरी की कलम लगाना आम बात है.
(Grafting Methods and Uttarakhand)
इस तकनीक में एक पौधे के ऊतकों के अन्दर दूसरे पौधे के ऊतक प्रविष्ट कराये जाते हैं, जिससे दोनों के वाहिका ऊतक आपस में मिल जाते हैं तथा अलैंगिक प्रजनन से पौधे तैयार होते हैं. ऊतकों को प्रविष्ट कराने की दो विधियां है. बड़े पेड़ों में टहनी को आरी से काटकर कटे हिस्से के किनारे की ओर तीन-चार इंच का चीरा लगाया जाता है और उस चीरे में इच्छित पेड़ की पतली टहनी काटकर उसके नीचे वाले सिरे को दोनों तरफ से कलम के आकार में धारदार चाकू से छिल कर कलम को चीरे के अन्दर लगभग तीन चार इंच नीचे तक डाल दिया जाता है और इसे चारों ओर से लाल मिट्टी का लेप लगाकर कसकर बांध दिया जाता है , ताकि हवा प्रवेश न कर पाये और कलम तथा चीरे के अन्दर के ऊतक परस्पर जुड़े रहें.
आजकल बांधने के लिए चैड़े टेप का प्रयोग भी किया जाता है, जो अधिक कारगर होता है. यदि छोटे पेड़ों में कलम बांधनी हो तो उसकी टहनी के बाहर के छिलके को तेज चाकू की मदद से इस तरह छिला जाता है कि उसके अन्दर दूसरे पेड़ की कोपल घुस जाय. जिसकी कलम आपको लगानी हो , उसका वह हिस्सा जहाॅ पर नयी कोपल फूटने के लिए अंकुरित हो रही हो , उसे चाकू से छिलकर इस तरह निकाला जाता है कि उसकी छाल सहित कोपल निकल आये और उस कोपल को दूसरे पेड़ के तने की छाल के अन्दर आराम से डाल दिया जाता है तथा मिट्टी का लेप लगाकर कसकर बांध दिया जाता है. जब कुछ समय बाद कोपल में पत्तियां उगने लगती है तो मूल पेड़ की टहनी के ऊपरी हिस्से को काट दिया जाता है, जिससे पेड़ का पूरा पोषण उस कली को मिल जाय. इस विधि को गूटी बांधना या बट्टा लगाना कहा जाता है. आम तौर पर कलम पतझड़ के मौसम विशेषकर सर्दियों में लगायी जाती है , ताकि बसन्त में नयी कोपल आने के समय उसे पूरा पोषण मिल सके. वैसे पेड़ों की प्रजाति के अनुरूप कलम लगाने का समय अलग-अलग होता है.
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उत्तराखण्ड के जंगलों में वन्य पेड़ों की प्रजातियों का विशाल भण्डार है. जिसमें कुछ फलदार पौधे हैं, जैसे मेहल, पद्म, काफल, घिंगारू, ज्रगली पांगर, तिमला, बेड़ू आदि जो जंगलों में स्वतः उगते हैं और वन्य जीवों के आहार के प्रमुख स्रोत हैं. इसी आहार चक्र पर जैव विविधता फलते-फूलते आयी है. लेकिन बढ़ती आबादी व बाजारीकरण से इन्सानों की दखल जंगलों तक होने के कारण जंगली जानवरों का आहार छिनता चला गया और उन्होंने बस्तियों की ओर रूख करना शुरू किया तथा मांसाहारी जानवर जो इन शाकाहारी जानवरों के शिकार पर निर्भर रहा करते थे, स्वाभाविक रूप से उनका भी मानव बस्तियों की ओर आने का सिलसिला शुरू हुआ. पहाड़ों में खेतों तक जंगली जानवरों की दस्तक से जहाॅ खेती को उनसे बचाना चुनौती पूर्ण साबित हो गया वहीं आये दिन हिंसक जंगली जानवरों ने भी गांवों में इन्सानों व मवेशियों को अपना शिकार बनाना शुरू किया, परिणाम स्वरूप पहाड़ से पलायन स्वाभाविक वृत्ति बन उभरकर सामने आयी जो पलायन आज पहाड़ों की प्रमुख समस्या बन चुकी है.
साल 2016 में अमेरिका के प्रो0 वान ने ग्राफ्टिंग तकनीक से एक ही पेड़ पर 40 तरह के फल उगाकर लोगों को हैरत में डाल दिया था। इसी से प्रेरित होकर मध्यप्रदेश के किसान मिश्री लाल ने एक जंगली पौधे से तीन तीन तरह की सब्जियां उगाकर कृषि वैज्ञानिकों को भी अचम्भे में डाल दिया है. आज मध्यप्रदेश में लोग इस तकनीक का अनुसरण कर अपनी आर्थिकी सुधार रहे हैं. तब क्या कारण है कि उत्तराखण्ड जैसा प्रदेश , जिसमें 71.05 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित है और वनस्पतियों की अनगिनत प्रजातियां मौजूद हैं इस तकनीक को अपनाकर औद्यानिक क्रान्ति नहीं ला सकते. इसके लिए भूमि मुफ्त की , उगा उगाया पेड़, जंगली प्रजाति होने से सूखा व अन्य विपरीत परिस्थितियों से जूझने पेड़ की ताकत, चन्द वर्षों में ही फल देने की क्षमता, जंगल में फल जो उगेंगे वे विशुद्ध आॅर्गनिक तथा गुणवत्ता में घरों में उगने वाले पौधों से ज्यादा पौष्टिक व प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले साबित होंगे. आवश्कयता है तो केवल नीति नियन्ताओं की प्रबल ईच्छाशक्ति की. यदि वन विभाग व उद्यान विभाग समन्वित रूप से कार्य योजना तैयार करे और संरक्षित वन क्षेत्र में इस अभियान की शुरूआत करे तो आने वाले 10-15 सालों में प्रदेश की तस्वीर बदल सकते हैं. आवश्यकता केवल इस ओर विशेष ध्यान देने की होगी कि नये विकसित हो रहे फलदार वृक्षों को वनाग्नि से क्षति न पहुंचे.
जंगलों में मेहल के पेड़ों में नाशपाती व गढ़मेहल, पद्म के पेड़ों में चेरी, बेड़ू के पेड़ पर अंजीर ,जंगली पांगर (चेस्टनट) के पेड़ जो उत्तराखण्ड में बहुतायत से पाये जाते हैं, उनमें मीठे पांगर की कलम लगायी जा सकती है. मीठा पांगर का एक ही वृक्ष क्विंटलों के हिसाब से फल देता है, जब कि मीठे पांगर की बाजार में न्यूनतम कीमत 50-60 रूपये प्रति किलो से कम नहीं होती. इसी तरह घिंगारू जो सेब की प्रजाति का ही एक पेड़ है और पहाड़ के गाड़ गधेरों में बहुतायत से पाया जाता है , उसमें यदि सेब की ग्राफ्टिंग विकसित करने की तकनीक सफल साबित हो तो बीहड़ों पर भी बागान तैयार करने में देर नहीं लगेगी. इसी तरह पहाड़ों में जंगली पेड़ों की और भी कई ऐसी प्रजातियां हैं, जिनमें दूसरे फलांे की ग्राफ्टिंग की अपार संभावनाऐं हैं, सिर्फ इस दिशा में अनुसंधान और प्रयास की आवश्यकता है. वन विभाग द्वारा जो बरसात के मौसम में बृहद वृक्षारोपण किया जाता है, उसमें सुदूर वन प्रान्तरों में भी फलदार पौधों के रोपण को प्राथमिकता देनी होगी. अगर कांठी अखरोट भी वनों में रोपित किया जायेगा तो कम से कम वन्य जीवों को इससे आहार मिलेगा.
सूदूर घने जंगलों में इस तकनीक का प्रयोग करने पर इन्सान भले इन फलों का उपयोग न कर पायें, लेकिन वन्य शाकाहारी जीवों को भरपूर भोजन मिलेगा, जिससे वन्य जीवों का बस्ती की ओर पलायन रूकेगा, और वन्य जीवों के आहार चक्र में कुदरत के अनुकूल मांसाहारी हिंसक जीवों को भी उनका आहार वनों में ही मिलने लगेगा, जो जीव आज बस्तियों को और उनके भय से इन्सान शहरों को पलायन कर रहे हैं, स्वतः रूक जायेगा.
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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1 Comments
कमल लखेड़ा
अच्छी जानकारी और संभावनाओं पर प्रकाश डालता लेख । कृषि अनुसंधान और उसकी जनसामान्य तक आसान पहुंच इस कार्य में तेजी और सफलता ला सकती है ।