समाज

सोरघाटी में वर्षा का देवता मोष्टामानू

पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय से 9 किमी के दूरी पर उत्तरी दिशा में मोष्टामानू का मंदिर है. समुद्र तल से इस मंदिर की ऊँचाई 6500 फिट है. चंडाक के दाई ओर स्थित मोष्टामानू का यह पौराणिक मंदिर पिथौरागढ़ के छः पट्टी सोर का देवता है.

फोटो कार्तिक’ भाटिया

इस मंदिर के विषय में अनेक कहानियां प्रचलित हैं. मंदिर परिसर में स्थित वृक्ष के विषय में कहा जाता है कि सोर घाटी का यह पूरा क्षेत्र एक विशाल चारागाह हुआ करता था. जिसके बीच में वृक्ष हुआ करता था. सूखे के कारण यह वृक्ष आधा सूखा रहता था. लेकिन दिन में एक बार सभी गायें इस वृक्ष के नीचे खड़ी होती जहाँ अपने दूध से वृक्ष को सींचती.

फोटो कार्तिक भाटिया

मंदिर स्थापना के संबंध में सबसे लोकप्रिय सोर लोककथा पांडे बंधु और नेपाली धनसिंह की लोककथा है. कहा जाता है कि वर्तमान पांडेगांव को एक समय कार्की गांव कहा जाता था. कार्की गाँव में रहने वाले दो पांडे भाई एक बार नेपाल शक्तिपीठ कालिका – मालिका और पशुपति के दर्शन के लिये गये. सामान बोकने के लिये धनसिंह नाम के एक नेपाली को भी साथ ले गये. दर्शन से लोटते समय पांडे भाईयों ने एक शिवलिंग के आकार का पत्थर मसाले पिसने के उद्देश्य धनसिंह के डोक्के में डाल दिया.

आगे चलकर जब धनसिंह ने आराम करने के लिये डोक्का जमीन पर रखा फिर उससे वह डोक्का तब तक न उठा जब तक उसने वह पत्थर वहीँ न छोड़ दिया. बाद में पांडे भाई और धन सिंह को एक सपना आया जिसमें एक सफ़ेद कपड़े पहना आदमी घोड़े में आया और उसने कहा कि वह क्षेत्र की रक्षा के लिये उनके साथ आया था लेकिन उन्होंने उसे रास्ते में ही छोड़ दिया. ब्राह्मणों की राय पर यह शक्ति शिला को उठा का मंदिर में प्रतिस्थापित किया गया. इस धार्मिक अनुष्ठान में क्षेत्र के सभी लोगों ने भाग लिया. तभी से पूरे क्षेत्र में मोस्टामानो देवता की पूजा की जाने लगी.

शक्तिपीठ बनने के बाद वार्षिक मेले को लेकर पहली बैठक कुमौड़ और दूसरी बजेटी में हुई. मोस्टादेवता की पूजा, हवन आदि के लिये जब तक कुमौड़ महर, चौदासी, छानापांडे, मड़ खड़ायत आदि स्थानों के प्रतिनिधि उपस्थित नहीं होते हवन शुरू नहीं किया जाता. इसे आज तक निभाया जाता है.

मोस्टा देवता को सोर घाटी में वर्षा का देवता माना जाता है. कहा जाता है कि मोस्टा देवता इंद्र के पुत्र हैं जिन्हें इंद्र ने धरती का प्रशासक नियुक्त किया है. एक कहानी के अनुसार एक बार सोर घाटी में भयंकर सूखा पड़ गया. जिसके चलते तत्कालीन अंग्रेज तहसीलदार को किसी ने मोष्टादेवता के मंदिर में हवन करने की सलाह दी. पूरे सरकारी खर्चे पर मंदिर में एक विशाल हवन का आयोजन किया गया. अंग्रेज अधिकारी घोड़े के साथ मंदिर में आया और डंगरिया को हथकड़ी दिखा कर डराते हुये कहने लगा कि यदि तेरे वचन झूठे निकले तो हथकड़ी पहना कर हवालात में बंद कर दूंगा. डंगरिया ने कांपते हुये कहा की देखते हैं कोन गोठ में जाता है.

कहते हैं कि अंग्रेज अधिकारी जब लौटने को हुआ तो भयंकर आंधी तूफान के साथ बारिश होने लगी जिसके चलते पूरे तीन दिन अंग्रेज अधिकारी को मैला गांव के एक खंडहर घर की गोठ में गुजारने पड़े. तभी से अंग्रेज अधिकारी भी मोष्टामानू देवता की शक्ति भी मानने लगे.

मंदिर को दुबारा बनाने के लिये 1924 में सोर के स्थानीय लोगों ने चंदा इकट्ठा किया. 1926 तक इस मंदिर का निर्माण कार्य पूरा हो गया. आज भी प्रत्येक वर्ष ऋषिपंचमी के दिन इस मंदिर में मेले का आयोजन किया जाता है. मेले के दिन लोक देवता का डोला खुकदे के जागर काल से शुरू होता है. मंदिर के चारों ओर परिक्रमा कर डोला जुलूस के रूप में धूनी के पास पहुंचता है जहान जागर के साथ मेले की समाप्ति होती है. इस क्षेत्र में आज भी मान्यता है कि जब भी वर्षा नहीं होती है मोस्टामानू देवता का हवन करने के बाद जरूर वर्षा होती है.

वर्तमान में मोस्टामानू मंदिर की कुछ फोटो. सभी फोटो कार्तिक भाटिया की हैं

 

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Girish Lohani

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