प्रख्यात जनधर्मी कलाकार-कवि के रूप में गिर्दा हमारे दिलों में अमर हैं. गिर्दा के अवसान के बाद उनके परम मित्र और हिन्दी के बड़े कवि वीरेन डंगवाल ने कबाड़खाना ब्लॉग पर एक बेहतरीन स्मृतिलेख लिखा था. गिर्दा यानी गिरीश चन्द्र तिवाड़ी नाम के उस शानदार शख्स के जीवन और काव्य के अनेक पहलुओं को स्पर्श करता यह आलेख आज फिर लगाया जा सकता है. यह अलग बात है कि आज इस आलेख को लिखने वाले वीरेन डंगवाल भी हमारे बीच नहीं रहे– सम्पादक
(Girish Chandra Tiwari Girda)
क्या शानदार शवयात्रा थी तुम्हारी जिसकी तुमने जीते जी कल्पना भी न की होगी. ऐसी कि जिस पर बादशाह और मुख्यमन्त्री तक रश्क करें. दूर-दूर से गरीब-गुरबा-गंवाड़ी. होटलों के बेयरे और नाव खेने वाले और पनवाड़ी. और वे बदहवास कवि-रंगकर्मी, पत्रकार, क्लर्क, शिक्षक और फटेहाल राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता जिनके दिलों की आग अभी भी ठण्डी नहीं पड़ी है. और वे स्त्रियां, तुम्हारी अर्थी को कन्धा देने को उतावली और इन सब के साथ ही गणमान्यों – साहिबों – मुसाहिबों का भी एक मुख़्तसर हुजूम. मगर सबके चेहरे आंसुओं से तरबतर. सब एक दूसरे से लिपट कर हिचकियां भरते. सबके रुंधे हुए कण्ठों से समवेत एक के बाद फूटते तुम्हारे वे अमर गीत जो पहले पहल सत्तर के चिपको आन्दोलन के दौरान सुनाई दिए थे और उसके बाद भी उत्तराखण्ड के हर जन आन्दोलन के आगे आगे मशाल की तरह जलते चलते थे: “जैंता एक दिन तो आलौ, दिन यो दुनि में/ आएगा मेरी प्यारी जैंता वो दिन/ चाहे हम देख सकें चाहे तुम न देख सको/ फिर भी आएगा तो प्यारी वो दिन/ इसी दुनिया में.” वो एक सुदूर झिलमिलाता सपना जैसे एकमेक हो चुके दिलों में हिलोरें लेने लगता था. रोमांच, उम्मीद और हर्षातिरेक से कंपकंपाते हुए ये जुलूस आज भी स्मृति में एक खंडित पवित्रता की तरह बसे हुए हैं.
क्या बात थी यार गिर्दा तुम्हारी भी! अफ़सोस, सख़्त अफ़सोस कि मैं तुम्हारी इस विदा यात्रा में शामिल नहीं हो पाया जिसका यह आंखों देखा हाल मैं लिख रहा हूं. और इस समय मुझे तुम्हारी वह खरखरी हंसी साफ़ सुनाई दे रही है जिसे तुम गले से सीधे गालों में भेजते थे और दांतों में थोड़ा सा चबाकर बाहर फेंक देते थे. कैसा विचित्र नाटक है यार!
क्या तो तुम्हारी बातें, क्या तो तुम्हारे शब्द. घाटियों, चोटियों, जंगलों, बियावानों जनाकीर्ण मेले-ठेलों, हिमालय की श्रावण संध्याओं और पहाड़ी स्त्रियों के पुलकते और गमगीन दिलों से बटोरे गए काष्ठ के अधिष्ठान्न, जिनमें आग जलाई जाएगी और खाना पकेगा. और तुम्हारी वो आवाज़? बुलन्द, सुरीली, भावों भरी, सपनीली: “ऋतु औनै रौली, भंवर उड़ाला बलि/ हमरो मुलुका भंवर उड़ला बलि/ चांदनी रातों में भंवरे उड़ेंगे सुनते हैं/ हमारे मुलुक में खूब भंवरे उड़ेंगे सुनते हैं. हरे – हरे पत्ते में रखकर खूब बढ़िया दही खाएंगे हम सुनते हैं. अरे क्या भला लगेगा कि हमारे मुलुक में भंवरे उड़ेंगे ही!”
कभी वो पुकार होती थी तुम्हारी, पुरकशिश. क्षुब्ध आन्दोलनों की हिरावल ललकार: “आज हिमाला तुम्हें बुलाते हैं. जागो -जागो हे मेरे लाल. जागो कि हम तो हिल भी नहीं सकते. स्वर्ग में हैं हमारी चोटियां/ और जड़ें पाताल. अरी मानुस जात, ज़रा सुन तो लेना/ हम पेड़ों की भी बिपत का हाल. हमारी हड्डियों से ही बनी कुर्सियां हैं इनकी/ जिन पर बैठे वे हमारा कर रहे ये हाल/ देखना-देखना एक दिन हम भी क्या करते हैं इनका हाल.” ये केवल पेड़ नहीं हैं जिनकी हड्डियों से उनकी कुर्सियां बनी हैं. ये केवल आत्मरक्षा की फ़रियाद भी नहीं, परस्पर सहयोग की मांग है. ये केवल हिमालय भी नहीं है जो अपने बच्चों से जागने को कह रहा है. इतिहास, प्रकृति, लोक और वर्तमान का ये अनूठा जद्दोजेहद भरा रिश्ता है जो लोकगीतों की मर्मस्पर्शी दुनिया के रास्ते गिर्दा ने अपनी कविता में हासिल किया है और जिस रिश्ते के साथ वह बेईमानी, अत्याचार, ढोंग और अन्याय के ख़िलाफ़ अपना मोर्चा बांधता है: “पानी बिच मीन पियासी/ खेतों में उगी उदासी/ यह उलटबांसियां नहीं कबीरा/ खालिस चाल सियासी.” किसान आत्महत्याओं के इस दुर्दान्त दौर के बीस-पच्चीस बरस पहले लिखी उसकी यह ’कबीर’ ही नहीं, उसकी समूची कविता, उसके गीत, उसके नाटक, उसका रंगकर्म – उसका समूचा जीवन सनातन प्रतिरोध का है. जैसा कि मौजूदा हालात में किसी भी सच्चे मनुष्य और कवि का होगा ही.
(Girish Chandra Tiwari Girda)
तीस पैंतीस साल के मुतवातिर और अत्यन्त प्रेमपूर्ण सम्बन्ध के बावजूद मुझे ये मालूम ही नहीं था कि गिर्दा की उम्र कितनी है. दोस्तों, हमखयालों, हमराहों के बीच कभी वह बड़ा सयाना लगता और कभी खिलखिलाते हुए सपनों और शरारत से भरा एकदम नौजवान.
ये तो उसके मरने के बाद पता चला कि उसकी पैदाइश १० सितम्बर १९४३ की थी, अल्मोड़ा ज़िले के गांव ज्योली की. वरना वो तो पूरे पहाड़ का लगता था और हरेक का कुछ न कुछ रिश्तेदार. जब उसने काफ़ी देर से ब्याह किया और प्यार से साज-संभाल करने वाली हीरा भाभी उस जैसे कापालिक के जीवन में आई तो लम्बे अर्से तक हम निठल्ले, छोकड़ों की तरह दूर से देखा करते थे कि “देखो, गिर्दा घरैतिन के साथ जा रहा है.” कभी थोड़ा आगे और अक्सर थोड़ा पीछे हमारी सुमुखी भाभी, और साथ में लजाए से भीगी बिल्ली से ठुनकते गिर्दा. दाढ़ी अलबत्ता चमक कर बनी हुई, मगर कुर्ता वही मोटा-मोटा और पतलून, और कन्धे पर झोला जिसमें बीड़ी-माचिस, एकाध किताब-पत्रिका, मफ़लर. यदा-कदा कोई कैसेट और कुछ अन्य वर्जित सामग्री भी. आख़िर तक उसकी यह धजा बनी रही. अलबत्ता दिल का दौरा पड़ने के बाद पिछले कुछेक बरस यह फ़ुर्तीली चाल मन्द हो चली थी. चेहरे पर एक छिपी हुई उदासी की छाया थी जिसमें पीले रंग का एक जुज था – अपरिहार्य आगात का पीला जुज. और झाइयां आंखों के नीचे, और बातचीत में रह-रहकर उमड़ता लाड़.
सन सतत्तर – अठत्तर, उन्यासी या अस्सी साल के जो भी रहा हो, उस से पहली मुलाकात मुझे साफ़-साफ़ और बमय संवाद और मंचसज्जा के पूरम्पूर याद है. नैनीताल में ऐसे ही बरसातों के दिन थे और दोपहर तीन बजे उड़ता हुआ नम कोहरा डीएसबी के ढंके हुए गलियारों-सीढ़ियों-बजरी और पेड़ों से भरे हसीन मायावी परिसर में. हम कई दोस्त किसी चर्च की सी ऊंची सलेटी दीवारों वाले भव्य ए एन सिंह हॉल के बाहर खड़े थे जहां कोई आयोजन था. शायद कोई प्रदर्शनी. रूसी पृष्ठभूमि वाली किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म्के इस दृश्य के बीचोबीच सलेटी ही रंग के ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले, तीखे-लगभग ग्रीक नैननक्शों और घनी घुंघराली ज़ुल्फ़ों वाला एक शख़्स भारी आवाज़ में कह रहा था: “ये हॉल तो मुझे जैसे चबाने को आता है. मेरा बड़ा जी होता है यार इसके इर्दगिर्द ‘अंधायुग’ खेलने का. मैंने चिहुंक कर देखा – डीएसबी कॉलेज में अंधायुग? वहां या तो अंग्रेज़ी के क्लासिक नाटक होते आए थे या रामकुमार वर्मा, विष्णु प्रभाकर के एकांकी. राजीव लोचन ने आगे बढ़कर मुझे मिलवाया: ये गिरीश तिवाड़ी हैं वीरेन जी, ’चिपको’ के गायक नेता और ज़बरदस्त रंगकर्मी. वैसे सॉंग एन्ड ड्रामा में काम करते हैं. बड़े भाई हैं सबके गिर्दा.. गिर्दा ने अपना चौड़ा हाथ बढ़ाया. किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म के दयालु रूसी पात्र जैसा भारी चौड़ा हाथ. देखते देखते हम दोस्त बन गए. देश-दुनिया में तरह तरह की हलचलों से भरे उस क्रान्तिकारी दौर में शुरू हुई हमारी वह दोस्ती २१ अगस्त २०१० को हुई उसकी मौत तक, बग़ैर खरोंच कायम रही. उसके बाद तो वह एक ऐसी दास्तान का हिस्सा बन गई है जिसे अभी पूरा होना है. जिसके पूरा होने में अभी देर है.
गिर्दा को याद करते हुए ही इस बात पर भी ध्यान जाता है कि यह शख़्स अपने और अपने भीषण जीवन संघर्ष के बारे में कितना कम बोलता था. वरना कहां तो हवालबाग ब्लॉक का उसका छोटा सा गांव और कहां पीलीभीत-लखीमपुर खीरी के तराई के कस्बे-देहातों और शहर लखनऊ के गली कूचों में बेतरतीब मशक्कत और गुरबत भरे वे दिन. गरीबी से गरीबी की इस खानाबदोश यात्रा के दौरान ही गिरीश ने अपने सामाजिक यथार्थ के कठोर पाठ पढ़े और साहित्य, लोक रंगमंच और वाम राजनीति की बारीकियां भी समझीं. संगीत तो जनम से उसके भीतर बसा हुआ था.
१९६७ में उसे सॉंग एन्ड ड्रामा डिवीज़न में नौकरी मिली जो उत्तराखण्ड के सीमावर्ती इलाकों में सरकारी प्रचार का माध्यम होने के बावजूद बृजेन्द्रलाल साह, मोहन उप्रेती और लेनिन पन्त सरीखे दिग्गजों के संस्पर्श से दीपित था. यहां गिर्दा खराद पर चढ़ा, रंगमंच में विधिवत दीक्षित हुआ और उसकि प्रतिभा को नए आयाम मिले. कालान्तर में यहीं वह क्रान्तिकारी वामपन्थ के भी नज़दीक आया. खासतौर पर पहाड़ के दुर्गम गांवों की जटिल जीवन स्थितियों से निकट के सम्पर्क, द्वन्द्वात्मक राजनीति चेतना, और मानवीयता पर अटूट विश्वास ने ही इस अवधि में गिरीश चन्द्र तिवाड़ी को गिर्दा बनने में मदद दी है. ’चिपको’ के उन जुझारू नौजवानों का भी इस रूपान्तरण में कुछ हाथ रहा ही है जो अब अधेड़, और कई बार एक दूसरे से काफ़ी दूर भी हो चुके हैं, पर जो तब परिवर्तन के साझा सपनों के चश्मदीप और एकजुट थे, वे पढ़ते थे, सैद्धान्तिक बहसें करते-लड़ते भी थे. एक दूसरे को सिखाते थे. नुक्कड़ नाटक करते-सड़कों पर जनगीत गाते थे. साथ साथ मार खाते और जूझते थे. शमशेर सिंह बिष्ट, शेखर पाठक, पी सी तिवारी, प्रदीप टम्टा, ज़हूर आलम, राजीव लोचन साह, निर्मल जोशी, गोविन्द राजू, हरीश पन्त, महेश जोशी – एक लम्बी लिस्ट है. गिर्दा ने जब भी बात की इन्हीं और इन्हीं जैसी युवतर प्रतिभाओं के बाबत ही की. ’नैनीताल समाचार’ और ’पहाड़’ और ’युगमंच’ के भविष्य की. अपने और अपनी तकलीफ़ों के बारे में उसने मुंह तक कभी नहीं खोला.
मुझे याद है मल्लीताल में कोरोनेशन होटल के नाले के पास नेपाली कुलियों की झोपड़पट्टी में टाट और गूदड़ से भरा उसका झुग्गीनुमा कमरा जिसमें वह एक स्टोव, तीन डिब्बों, अपने सम्भवतः नेपाली मूल के दत्तक पुत्र प्रेम, और पूरे ठसके के साथ रहता था. प्रेम अब एक सुघड़ सचेत विवाहित नौजवान है और ग़ाज़ियाबाद के एक डिग्री कालेज में पढ़ाता है. अलबत्ता ख़ुद गिर्दा का बेटा तुहिन अभी छोटा ही है और ग्रेजुएशन के बाद के भ्रम से भरा आगे की राह टटोल रहा है. एक बात थोड़ा परेशान करती है. एक लम्बे समय तक गिर्दा काफ़ी हद तक अवर्गीकृत हो चुका संस्कृतिकर्मी था. उसकी सामाजिक, आर्थिक महत्वाकांक्षाएं अन्त तक बहुत सीमित थीं. जनता के लिए उसके प्रेम में लेशमात्र कमी नहीं आई थी. यही वजह है कि उसके निर्देशित नाटकों, खासतौर पर संगीतमय ’अन्धेरनगरी’ – जिसे युगमंच अभी तक सफलतापूर्वक पेश करता है – ’अंधायुग’ और ’थैंक यू मिस्टर ग्लाड’ ने तो हिन्दी की प्रगतिशील रंगभाषा को काफ़ी स्फूर्तवान तरीके से बदल डाला था. इस सब के बावजूद क्या कारण था कि जनसांस्कृतिक आन्दोलन उसके साथ कोई समुचित रिश्ता नहीं बना पा रहे थे.उसके काम के मूल्यांकन और प्रकाशन की कोई सांगठनिक पहल नहीं हो पाई थी. ये अलग कि वह इसका तलबगार या मोहताज भी न था. अगर होता तो उसकी बीड़ी उसे भी जे. स्वामीनाथन बना देती.आख़िर कभी श्याम बेनेगल ने उसके साथ एक फ़िल्म करने की सोची थी,कहते हैं.
(Girish Chandra Tiwari Girda)
अपनी आत्मा से गिर्दा नाटकों और कविता की दुनिया का एक चेतना सम्पन्न नागरिक था. उसके लिखे दोनों नाटक ’नगाड़े ख़ामोश हैं’ और ’धनुष यज्ञ’ जनता ने हाथों हाथ लिए थे. लेकिन जानकार और ताकतवर लोगों की निर्मम उदासीनता और चुप्पी उसे लौटाकर लोक संगीत की उस परिचित, आत्मीय और भावपूर्ण दुनिया में ले गई जहां वह पहले ही स्वीकृति पा चुका था और जो उसे प्यार करती थी.
मगर गिर्दा था सचमुच नाटक और नाटकीयता की दुनिया का बाशिन्दा. हर समय नाट्य रचता एक दक्ष पारंगत अभिनेता और निर्देशक. चाहे वह जुलूसों के आगे हुड़का लेकर गीत गाता चलता हो या मंच पर बांहें फैलाए कविता पढ़ते समय हर शब्द के सही उच्चारण और अर्थ पर ज़ोर देने के लिए अपनी भौंहों को भी फरकाता. चाहे वह नैनीताल समाचार की रंगारंग होली की तरंग में डूबा कुछ करतब करता रहा हो या क्मरे में बैठकर कोई गंभीर मंत्रणा – हमेशा परिस्थिति के अनुरूप सहज अभिनय करता चलता था वो. दर असल लगभग हर समय वह ख़ुद को ही देखता-जांचता-परखता सा होता था.ख़ुद की ही परछांई बने गिर्दा का द्वैध नहीं था यह.शायद उसके एक नितान्त निजी अवसाद और अकेलेपन की थी यह परछांई. ख़ुद से पूरा न किए गए कुछ वायदों की. खण्डित सपनों, अपनी असमर्थताओं, जर्जर होती देह के साथ चलती अपनी ही लालसाओं के यौवन की परछांई थी यह. लोग, उसके अपने लोग. इस परछांई को भी उतना ही पहचानते थे जितना श्लथ देह गिर्दा को.
सो ही तो, दौड़ते चले आए थे दूर दूर से बगटुट वे गरीब-गुरबा-गंवाड़ी नाव खेने वाले. पनवाड़ी, होटलों के बेयरे. छात्र-नौजवान, शिक्षक, पत्रकार. वे लड़कियां और गिरस्तिन महिलाएं – गणमान्यों के साथ ही बेधड़क उस शवयात्रा में जिसमें मैं ही शामिल नहीं था. मरदूद!
(Girish Chandra Tiwari Girda)
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