पहाड़ों में जिन पक्षियों ने जनमानस को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है उनमें से एक है घुघूती. इससे जुड़े गीतों किस्से कहानियों किवदंतियों से शायद ही उत्तराखंड का कोई हिस्सा अछूता रहा हो. यह आकार मे छोटी और स्वरूप में कबूतर से काफी ज्यादा मिलती जुलती है. इसकी पूंछ लंबी होती है और पखों मे सफेद चित्तीदार धब्बे होते हैं. ये उड़ान के समय अपनी मनोहारी छटा बिखेरते हैं. घुघूती का वैज्ञानिक नाम डस्की ईगल आउल और स्पॉटेड डव भी है.
इससे जुडी एक लोककथा इस प्रकार है कि कभी पुराने समय में अपनी बहन से मिलने उसका भाई उसके ससुराल गया था. उस समय वह बहन सो रही थी. भाई को बहन की नींद तोड़ना नागवार गुजरा, वह बहुत देर तक बैठ कर इतंजार करता रहा पर बहना की नींद नही खुली. घर पहुँचने पर रास्ते में अंधेरा न हो जाए इस डर से भाई अपनी बहन को सोते हुये छोड़ कर वापस चला गया.
उधर जब बहन नींद से उठी तो उसने अपने पास मे अपनी मां के हाथों से बने पकवानों और बाल मिठाई को देखा. काफी देर सोचने के बाद जब उसने पास-पड़ोस की औरतों से पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि हमने तुम्हारे भाई को आया देखा था. अपने भाई को भूखा लौटा देख कर बहन विलाप करते करते मर गयी. फिर यही बहन घुघूती बनी. कहानी काल्पनिक हो या वास्तविक पर घुघूती के स्वर मे तो सच्ची कसक और पीड़ा सुनाई देती है.
15 जनवरी को पड़ने वाले मकर संक्रांति के त्यौहार को, जिसे देश के मैदानी हिस्सों में खिचड़ी कह कर बुलाया जाता है, उसे भी पहाड़ों में घुघूती त्यार कहकर मनाया जाता है. बच्चों के गले में मीठे आटे की तेल में तली हुई चिड़िया से मिलती-जुलती आकृति के पकवानों की माला पिरोकर डाल दी जाती है. सुबह-सुबह कौआ महाराज को घुघूती, पूड़ी, बड़े पत्ते मे परोस छत मे रखकर खाने के लिए गीत गा-गा कर बुलाया जाता है.
काले कौआ काले
घुघूती माला खाले
काले कौआ काले
लगड़ (पूरी) खा ले
पहाड़ के सबसे लोकप्रिय गीतों को भी लोकप्रिय बनाने में घुघूती को अपनी उपस्थिति देनी पड़ी, मानो इसकी अनुपस्थिति पहाड़ के लोगों को स्वीकार नहीं.
नरेंद्र सिंह नेगी का गाना,
घुघूती घुरोण लागी म्यार मैत की,
बौडी बौडी आयी गै ऋतु की.
हो या गोपाल बाबू गोस्वामी का गाना
आम की डाई मे घुघूती नी बासा … घुघूती नी बासा
तेरी घुरू घुरू सुणि मी लागो उदासा
स्वामी मेरा परदेशा बर्फीलो लद्दाख.
सोचिये क्या घुघुति की उपस्थिति बिना इन गीतों ने ऐसी धूम मचाई होती.
हल्द्वानी के रहने वाले नरेन्द्र कार्की हाल-फिलहाल दिल्ली में रहते हैं.
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