कठपतिया के बारे में बचपन से सुनते आया था, कुछ दिन पूर्व इसी पोर्टल पर प्रख्यात कथाकार बटरोही जी के चर्चित उपन्यास ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ के अंश में कठपतिया के बारे में पढ़ने को मिला तो बचपन की यादें पुनः ताजा हो उठी. बचपन में जब भी अपने परिजनों के साथ बियावान जंगलों से गुजरते तो कठपतिया से रूबरू होने का मौका मिल ही जाता. परम्परा के अनुसार कुछ पत्तियां अथवा काष्ठ रास्ते में चढ़ाने की रस्म कर आगे निकल जाते. लेकिन बरबस एक सवाल मन में उतरता कि न कोई देवालय, न दूर-दूर तक कोई बस्ती, इस निर्जन स्थान में इस प्रकार की रस्म का क्या विधान है. किसी से पूछने पर इसे वनदेवता का स्थान कहकर जिज्ञासा शान्त कर दी जाती. लेकिन वहां पर न तो गांव के लोग किसी तिथि-त्यौहार पर पूजा करने आते, न कोई मन्नतें मांगते सुना और न उस स्थान से गुजरने के बाद वह लोगों के बीच कभी चर्चा का विषय रहता.
पहाड़ी धुर जंगलों के बीच चढ़ती -उतरती पगडण्डियों से गुजरते हुए, किसी निर्जन स्थान पर हुआ करता था -कठपतिया. कुमाऊँ के हर पहाड़ी जंगल में कठपतिया नाम का स्थान अवश्य मिल जायेगा, जैसे – मटेला, चोपड़ा, चापड़ हमारे गांवों के ’कॉमन’ नाम हुआ करते हैं. निर्जन पहाड़ी रास्तों से गुजरते हुए यदि आपको भी कहीं कठपतिया मिले तो स्थानीय रस्मों के अनुसार आपको भी वहां पास में उगी कोई वनस्पति व लकड़ी रास्ते में डालकर ही आगे बढ़ना है, अन्यथा किसी अनिष्ट की आशंका स्थानीय लोगों में व्याप्त है. आमतौर पर कठपतियां ऐसे बियावान जंगल के रास्तों में होता है, जहां एक ओर चढ़ाई खत्म होती है और दूसरी ओर को ढलान प्रारम्भ होता है, जिसे स्थानीय भाषा में ’छीना’ कहते हैं. इसी से हरछीना, गोलूछीना, धौलछीना, कूकूछीना, कनालीछीना जैसे नाम भी पड़े. इसी तरह जैसा कि शब्द से ही स्पष्ट है, काष्ठ और पत्तियां डालने से इस क्षेत्र का नाम भी कठपतिया हो गया. सवाल मन में ये भी आया कि कठपतिया यदि वनदेवता है, तो निश्चित रूप से उस वन क्षेत्र पर स्वामित्व भी उसी का होगा. लेकिन उसी की वनभूमि से वनस्पतियां तोड़कर उसी को अर्पण करने पर उसे सन्तुष्टि मिलती होगी अथवा असन्तुष्टि ये तो कठपतिया ही जाने.
इसी सन्दर्भ में एक प्रसंग याद आया – कोई साधु ने रास्ते से गुजरते हुए पास बहती नदी में स्नान का मन बनाया. साधु के पास ओढ़े गये रामनामी वस्त्र के अलावा दूसरा वस्त्र नहीं था. सोचा इसे ही धोकर सुखा लेगें और स्नान के बाद सूखने पर पुनः इसी को ओढ़ लेगें. वस्त्र को धोने के बाद लंगोट पहनकर वह साधु राम नामी वस़्त्र को किसी पेड़ की ढॅूठ को ढकते हुए सुखाकर नहाने चला गया. वस्त्र को सूखने की प्रतीक्षा में नहाने के बाद नदी किनारे ही बैठ गया. एक-आध घण्टे बाद जब सोचा कि वस्त्र सूख गया होगा, सूख चुके वस्त्र को लेने उसी स्थान पर गया तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गयी. जिस ठूँठ पर वह अपनी ओढ़नी सुखा गया था, वहां राह में आने-जाने वाले पथिकों का तांता लगा है, लोग उसे देव आकृति मानकर प्रसाद चढ़ा रहे हैं, पूजा कर रहे हैं, मन्नतें मांग रहे हैं, किसी ने ये जुर्रत भी कहीं की, कि वस्त्र उठाकर अपने अज्ञात आराध्य के दर्शन तो कर लेता. जब साधु ने सूखी ओढ़नी ठूॅठ से उठायी तो सब की आंखें फटी की फटी रह गयी. जिसके अन्दर वे देवाकृति समझ बैठे थे, निरा ठूंठ निकला.
यह प्रसंग यहां इसलिए कि कहीं कठपतिया भी इसी ’गतानुगति को लोकः’ की अन्धभक्ति का दंश तो नहीं झेल रहा. पुराने समय में सभी यात्राएं पैदल हुआ करती थी -कई कई दिनों की. तब न आज जैसे यातायात के साधन थे और न संचार सुविधा. पैदल राहगीर जब निर्जन वनों के रास्ते से गुजरते होंगे, तो रास्ता बताने वाला कोई मिले, जरूरी नही. ऐसे में तिराहे या चौबाटे पर संकेत रूप में वहां उपलब्ध जो भी वस्तु मिले, उसे रास्ते में डालकर पीछे आने वाले पथिक को अनुसरण का संदेश होता. क्योंकि जंगल के रास्तों में लकड़ी-पत्तों के अलावा और चीज हो ही क्या सकती है ? कालान्तर में यहीं परम्परा तब भी जारी रही, जब इसकी आवश्यकता नहीं थी. लकड़ी-पत्ते डालने से उस जगह का नाम पड़ गया – कठपतिया, जब पहाड़ के गांव ही वीरान हो रहे हैं, तो वीरान होते ये जंगली रास्तों का कठपतिया भी एक दिन इतिहास गर्त में दफन हो जायेगा.
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं
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