फेसमास्क लापरवाही से गले पर लटकाये, अधीरता से गाड़ी की खिड़की से अंदर झांकते हुए, पुलिस वाला शेखर को शक की निगाह से घूर रहा था — नाजुक नाक-नक्श, गोरी त्वचा जो उम्र के बजाये सुस्त स्वास्थ्य से कुछ फूली हुई थी. शेखर ने संकोच करते हुए अपना पहचान पत्र और रोड परमिट उसे थमाया. (Story by Bela Negi)
“पहाड़ में अभी ये बीमारी फ़ैली नहीं है और आप मुँह उठाये चले आये,” इलज़ाम लगाते हुए वह बोला.
“माँ बहुत बीमार हैं… सीधा मुंबई से उन्हें देखने आया हूँ.” शेखर ने जरूरत से ज्यादा हिचकिचाहट से कहा.
गाड़ी की छत को ठोंकते हुए पुलिस वाला दहाड़ा — “लेकिन परमिट तो सिर्फ काठगोदाम तक का है, चलो वापस घुमा लो.“
गाड़ी स्टार्ट नहीं हुई कि वह स्कूटर पर बैठा, मानो कहीं पहुँचने की हड़बड़ी में हो और मोड़ से घूम कर गायब हो गया. शेखर ने ड्राइवर को चलते रहने का आदेश दिया, याद दिलाते हुए कि इस सफ़र के लिए उसने कितनी बड़ी रकम ऐंठी है. बस अब आगे और चेकिंग न हो!
घाटी पीछे छूट रही थी और चौड़ी-सी सड़क पहाड़ से लिपटते हुए ऊपर की ओर बढ़ रही थी. बाहर का नज़ारा अपरिचित सा लग रहा था — पहाड़ी के कुछ बड़े हिस्सों को भूस्खलन तबाह कर चुका था. ऊपर से पक्की सड़क के निर्माण ने घाटी को देखने का परिप्रेक्ष्य ही बदल दिया था. सड़क के छोर पर चीड़ के पेड़ों के उधड़े तने एक सुंदर-सी लय से गुजरते हुए शेखर की चिंता घोलते जा रहे थे और न जाने कब वह इत्मिनान की नींद में सरक गया. उसका सर सीट के सिरहाने की ओर लुढ़क गया और खिड़की को चीरती तेज धूप उसके चेहरे पर गिरने लगी. जब गाड़ी झटके से एक तीव्र मोड़ पर घूमी, जग कर भी उसकी आँखों में धूप की धुंधली लाली के अवशेष तैर रहे थे.
जैसे-जैसे चढ़ाई बढ़ती गई सड़क की चौड़ाई घटती गई. ताज़ी ठंडी हवा की चुभन से उसकी थकी हुई नसें खिलने लगीं और रूखी त्वचा पर लाली आ गयी. गाड़ी के शोर के ऊपर उसे घाटी की गहराइयों में दौड़ती हुई नदी की झनझनाहट और पहाड़ों को ढंके हज़ारों पेड़ों की सरसराहट सुनायी दे रही थी. घाटी की पल्ली ढलान पर खड़ी पगडंडियां आड़ी-तिरछी भाग रहीं थीं. बारीकी से देखने पर एक महिला नज़र आयी जो अपनी पीठ पर भारी बोरी लादे धीमी चाल से चढ़ रही थी. न जाने क्यूँ उस दृश्य ने शेखर के भीतर कुछ भूले हुए अहसासों की हलचल मचा दी.
सड़क में इक्का-दुक्का वाहन दिख जाता था लेकिन पिछले आधे घंटे से सड़क सुनसान ही थी. ड्राइवर के गिले-शिकवे शुरू हो गये और उदासीन सलेटी आसमान मनहूस स्वर में गरज रहा था. इस इलाके में गूगल मैप्स किसी काम के नहीं थे, लेकिन शेखर के अंदाज़े से उसका गाँव पास ही था.
सड़क के किनारे की तीनों दुकानें जर्जर हाल में थीं. हालांकि आस-पास कोई नज़र नहीं आ रहा था, फिर भी शेखर ने अंदर झांक कर आवाज लगाई. थका हुआ ड्राइवर गाड़ी के हॉर्न पर अपनी चिड़चिड़ाहट उतार रहा था. गाड़ी में बैठने के लिए शेखर मुड़ा, इस विश्वास के साथ कि उसके गाँव का जीवंत बाजार बस कुछ ही दूर है. तभी अचानक उसके कदम थम गए. ठीक सामने, पत्थर की चट्टान का एक ऊंचा और सपाट पथरीला हिस्सा सड़क की ओर झुका हुआ था. शक की कोई गुंजाइश न थी. हैरानी में उसने घूम कर उजड़ी पड़ी दुकानें पर दोबारा नज़र दौड़ाई, फिर थोड़ी दूरी पर विशाल पांगर के पेड़ पर. दिल जोर-ज़ोर से धड़कने लगा था. एकाएक बिना ढोल-तासों के शेखर अपने गाँव पहुँच चुका था.
ड्राइवर उसे इस वीराने में छोड़ने के लिए अनिच्छुक था लेकिन शेखर ने उसे आश्वस्त किया कि उसका गाँव पैदल रास्ते से पास में ही है. सवारी से मोटी रकम पाकर, जो शेखर की बचत का एक बड़ा हिस्सा थी, चालक खुशी-खुशी रवाना हुआ. हाथ में एक छोटा सा बैग थामे शेखर कच्चे रास्ते से उतरने लगा. वह सोच रहा था कि न जाने बाज़ार को किस नई जगह में बसा दिया होगा. हाल की बारिश ने ढलान को फिसलन भरा बना दिया था और उसे बड़ी सतर्कता से चलना पड़ रहा था.
हर कदम पर लग रहा था मानो हर पत्थर, झाड़ी वैसी की वैसी ही है, अपरिवर्तित, ताकि शेखर आसानी से घर का रास्ता पहचान पाये. बांज और बुरांश के पेड़ भी उसकी नज़र के जवाब में सरसरा रहे थे. आगे उतरने पर सीढ़ीदार खेतों में जंगली घास इतनी लम्बी हो गयी थी कि रास्ता कभी-कभी गायब ही हो जाता था. शेखर ने सोचा कि शायद गांव के लिए अब तक पक्का रास्ता बन गया होगा जिस वजह से इस कच्चे रास्ते का इस्तेमाल नहीं होता है. वह हैरान था कि कैसे हर मोड़ उसकी चेतना में लौट रहा है, जैसे वह गांव से दूर कभी गया ही न हो. बिना सोचे पगडंडी में बाएं मुड़ा तो बचपन की स्मृति सामने आ गयी. वह सरसों के खेतों के बीच से स्कूल को दौड़ लगा रहा है और उसके पीछे छोटी बहनें हांफते हुए उसे रुक जाने को चिल्ला रही हैं. बाबू, धोती और कोट पहने, शेखर के बहुत आगे निकल गए हैं क्योंकि मंदिर में पूजा के लिए देर हो रही है.
शहरी लोगों के कमज़ोर घुटनों के लिए पहाड़ी रास्तों पर उतरना शायद उनपर चढ़ने से कहीं ज़्यादा कठिन होता है, शेखर यह अब सीख रहा था. अपनी फूलती सांस और मन में उठती विडम्बना, दोनों पर लगाम लगाने के लिए वह एक बड़े पत्थर पर बैठ गया. बाबू… क्या अब भी ज़िंदा होंगे? शेखर जानता था कि यह उम्मीद रखना कि वे उसे बिना कोई क्लेश या आपत्ति के स्वीकार कर लेंगे, बेवकूफी थी. एक आवाज़ कह रही थी कि वह वापस लौट जाये, उस घर की ओर आगे ना बढ़े जो उसने सालों पहले छोड़ दिया था. लेकिन शहर में कुछ भी नहीं बचा था. महामारी फैलने के बाद उसे भारी नुकसान हुआ था और बैंक के ऋण का भुगतान करने के लिए उसे अपना छोटा ट्रांसपोर्ट कारोबार बेचना पड़ा था.
पहाड़ के रास्ते कितना भ्रमित करते हैं! उसे याद आने लगा. जो स्थान पास में लगता है वह चलते रहने पर और दूर खिसकता जाता है, क्योंकि दृष्टि उन उतार-चढ़ावों को नहीं देख पाती जो पहाड़ की परतों में छिपे होते हैं. कुछ देर बाद शेखर को स्लेट की छत नज़र आने लगी और साथ ही मन के संकोच ने दोबारा सर उठाया. ईजा… उसको क्या कहूंगा? वह तो तुरंत मुझे गले लगा लेगी, लेकिन मैं अडिग रहूंगा, उसने खुद को समझाया. बहनें तो ब्याह के चली गई होंगी लेकिन क्या उसका छोटा भाई उसे अपना पायेगा? आखिर शेखर को क्या चाहिए था? सिर्फ ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा जहाँ वह कुछ समय सुकून से बिता सके.
गाँव में घर पंक्तियों में बने थे और इन पंक्तियों के बीच खेत थे. अब उसे सबसे ऊपर की पंक्ति दिखने लगी थी. सोचा था कि गांव के बच्चे उसे दूर से देखते ही दौड़ते हुए आएंगे. पूछेंगे, दाज्यू जाना कहाँ है? और जवाब मिलने पर तुरंत घर में उसके आगमन की घोषणा करने भाग जायेंगे. उसे याद था कि बचपन में जब कोई शहर से खाली हाथ आता था तो कितनी निराशा होती थी, इसलिए वह अपनी जेबें टॉफियों से भर कर आया था.
गांव में छाए भयावह सन्नाटे से वह झुंझला उठा. पहले घर को तेज़ी से पार कर वह दूसरे घर के पास आ खड़ा हुआ और कुछ क्षणों बाद आंगन में पहुँचने वाली संकरी पत्थर की सीढ़ी पर चढ़ गया. भूले हुए घर की बिखरी यादों को एकाएक ठोस छवि मिल गई. लेकिन सोचा क्या घर इतना छोटा हुआ करता था? आंगन भी सिकुड़ कर दो कदम भर का ही रह गया है. और सब लोग आखिर गए कहाँ हैं? दरवाज़े पर तो भारी ताला लटका हुआ है. शायद शादी-ब्याह में कहीं गए होंगे… लेकिन मकान की हालत साफ़ बता रही थी कि वह काफी समय से छोड़ा हुआ है. हकबका कर शेखर दरवाज़ों पर खटखटाने लगा, ईजा को आवाज़ लगाते हुए, इस उम्मीद से कि कोई खिड़की खुल पड़ेगी और ईजा का चिरयुवा चेहरा उससे झांकेगा. पड़ोसियों को तो सब पता ही होगा, उसने खुद को भरोसा दिलाते हुए सोचा. लेकिन आसपास के खेतों की घास इतनी लम्बी तनी थी कि दूसरे घर नज़र नहीं आ रहे थे. शेखर ने सोचा आंगन की भिड़ में कुछ पल बैठ लूँ. लम्बी यात्रा से थका हूँ, अपनी ताकत और ख्यालों दोनों को बटोर लूँ.
अपने घर से दोबारा परिचित होने के लिए उसने हर कोने पर नज़र दौड़ाई — न जाने कितनी हथेलियों से चिकने बने वह लकड़ी के जंघले, फूलों की नक्काशी वाले दरवाज़े, खिड़कियां, जिन के कुछ हिस्सों में अब भी हरा रंग चिपका हुआ था, आंगन के पत्थर जिनके बीच घास उग आयी थी — उसकी नज़र एक पत्थर पर आ कर ठहर गयी जो टूटा हुआ करता था, पर देखा कि उसकी मरम्मत हो गयी है. आंगन में बैठा हुआ शेखर — चवालीस साल उम्र, सुस्त शरीर जिसपर हलकी तोंद के लक्षण दिखने लगे थे, सर पर चैक वाली टोपी भूरी-हरी आंखों को ढंके हुए, चेहरे पर उम्र से भी लम्बी अनुभव की रेखाएं — उसने खुद को नौ साल की उम्र में याद किया जब उसने यह घर छोड़ा था.
सबसे बड़ा होने के नाते वह घर के कामों में हाथ बंटाता था, ताकि ईजा का बोझ कम कर पाए. ईजा का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था और मानो वह हमेशा पेट से ही होती थी. शेखर ने कम उम्र में ही खाना बनाना सीख लिया था, क्योंकि कभी-कभार जब ईजा को माहवारी होती तो वह गोठ में सीमाबंध रहती. शेखर के तीन छोटे भाई-बहनों के अलावा, उसने दो मृत बच्चों को भी जन्म दिया था. हर प्रसव के बाद वह और कमज़ोर होती गई. चूँकि बाबू मंदिर के मुख्य पुजारी थे और उच्च कोटि के ब्राह्मण होने पर उन्हें बहुत गर्व था, घर में कोई भी व्यवस्था टस से मस होती तो उनके गुस्से का ठिकाना नहीं रहता. ईजा का हाथ बंटाने के अलावा शेखर को स्कूल जाने से पहले बाबू के साथ मंत्र भी जपने पड़ते थे. शेखर के लिए बाबू के सपने बहुत बड़े थे — कि वह सरकारी नौकरी में लगेगा. इसलिए वे उस पर पढ़ाई का भी बहुत दबाव डालते थे. शेखर भी बाबू के अनुमोदन के लिए तरसता था. उसकी निष्ठा देख कर बाबू को उस पर गर्व तो था, लेकिन उनकी उम्मीदें बढ़ती चली गईं और उसकी छोटी सी गलती पर वह बौखला उठते.
न जाने कितनी बार शेखर ने उस दिन की घटना को बारीकी से याद किया था. लेकिन कभी भी, अपने ख़ास दोस्तों तक को भी, कुल बात नहीं बताई थी. पर आज, पैंतीस साल बाद उसी आंगन में बैठे हुए, पूरी सच्चाई से वह यादें वापस आने लगीं. उस दिन बाबू पूजा करवाने पास के गांव में गए थे. ईजा बीमार थी तो आधे किलोमीटर दूर नौले से पीने का पानी ढोना था इसलिए शेखर स्कूल से जल्दी छुट्टी ले कर घर आ गया. तांबे की गगरी में पानी भर कर घर पहुंचा तो देखा बाबू वापस आ गए हैं. थके हुए, कुछ उखड़े से आंगन में बैठे हैं. शायद दिन अच्छा नहीं गया होगा, यह सोच कर शेखर ने हौले से गगरी नीचे रखी और हल्की आवाज़ में बताया कि ईजा बीमार हैं. रोष में आकर बाबू उसपर लपके, “तो क्या स्कूल छोड़ देगा? अपनी ईजा के पिछौड़े से चिपका रहेगा?” और बेरहमी से उसे पीटने लगे. उस दिन वृत्ति में जो अपमान सहा था उसका पूरा गुस्सा उस पर निकालने लगे.
गागर को उठा कर ढलान में फेंक दिया. नीचे लुढ़कते हुए उसकी ठनक आज भी शेखर के कानों में गूंजती है. फिर बाबू ने उसकी स्कूल की कमीज का कॉलर पकड़ कर उसे ज़मीन पर पटक दिया. आंगन का एक पत्थर टूटा हुआ था और उसका नुकीला कोना शेखर के माथे में घुप गया. खून देख कर बाबू का हाथ भी थम गया. ईजा भाग कर बाहर आयी लेकिन बाबू के गुस्से के सामने उसके हाथ-पैर ठंडे पड़ गए. उसकी गोद में छोटा भाई ज़ोर से रोने लगा. “चुप करा इसको!” बाबू ईजा पर चीखे. फिर मुड़ कर शेखर से बोले — जा गागर वापस ले कर आ, मैं पट्टी तैयार करता हूँ.”
खून से लथपथ माथे को दबाते, सिसकियों को सँभालते हुए शेखर ज़मीन से उठा. आस-पास सब की स्तब्ध नज़रें उसपर थीं. उसे आंगन से निकलते देख पड़ोसी सहानुभूति में फुसफुसाने लगे कि बेचारा अब गागर ढूंढने जा रहा है. लेकिन बाबू की अकारण बर्बरता ने शेखर के अंदर कुछ तोड़ दिया था. उसने निश्चय किया कि जिस जतन से अब तक वह बाबू की सराहना पाने के लिए मेहनत करता था उतने ही जतन से वह उनको ठेस पहुंचाएगा.
अगले कुछ साल मानो धुंध में लुप्त हो गए. पहले वह गांव के पास ही एक क़स्बे में टिका. एक ढाबे में बर्तन घिसने का काम करने लगा. उस समय लगता था न जाने वह गांव से कितनी दूर चला आया है. उसने अपना नाम बदल लिया ताकि उसकी खबर घर वालों को ना लगे. जब गुस्सा ठंडा हुआ तो शर्म और भय से वह वापस न लौट पाया. कई जात-धर्म के लोगों के साथ रहने के बाद बाबू कहाँ उसे घर में वापस कदम रखने देते? लेकिन पिछले पैंतीस सालों के संघर्ष के दौरान, जीवन के कई उतार-चढ़ावों में, एक बड़े शहर में और असफल विवाह में होने के बाद भी, अपने गांव की याद एक सपना बन कर उसके सामने आ खड़ी होती. क्या उन्होंने उसको ढूंढने के प्रयास किये? क्या बाबू को अपने किये पर पछतावा हुआ? क्या उसकी माँ छोटे भाई-बहनों की सुरक्षा कर पाई? यह सवाल उसको सताते रहते और उसे अपने अधूरे बचपन से बांधे रखते. वर्षों बाद उसने अपना असली नाम फिर अपना लिया, अपने अतीत से जुड़े रहने के प्रयास में और आंशिक रूप से, एक ब्राह्मण होने की उच्च स्थिति पर दावा करने के लिए भी. लौटने का ख्याल उसके मन में कई बार आया था, लेकिन साल बीतने के साथ-साथ उसकी हिम्मत भी पिघलती गई.
जैसे चौमास की शाम घाटी पर गिरी, उसकी गहराइयों से घना कोहरा उठने लगा. एक शैतान की तरह वह आंगन में रेंगता हुआ घुसा, घर को धुंध में लपेटते हुए, इस आदमी को भ्रमित करने के लिए, जो सोच बैठा था कि उसे अपना घर मिल गया है. पड़ोसियों को मिलने के लिए जब शेखर उठा तब उसकी नजर दरवाजे पर पड़ी. याद आया कि घर के दरवाज़े के ऊपर भगवान शिव की खुदी हुई छवि हुआ करती थी, जो अब नहीं है. यह लो! वह तो गलत आंगन में घुस आया था! अब उसे अन्य विसंगतियां भी दिखने लगीं. बेसब्री से वह अगले आंगन की ओर बढ़ा.
लेकिन यहाँ भी सुनसानी छाई थी और मकान का हाल और भी बुरा था. उसका घर दूसरा… नहीं तीसरा हुआ करता था? सोचा, शायद उसके जाने के बाद और घर बन गए होंगे.
जैसे शेखर खेतों को पार करते हुए एक आंगन से दूसरे तक भटक रहा था, हवा पर सवार कोहरा गांव को उसकी नज़र से मिटा रहा था, उसकी आशंका बढ़ा रहा था. हर मकान की बनावट लगभग एक जैसी ही थी, लेकिन किसी में भी शेखर अपने घर को नहीं ढूँढ़ पा रहा था. घर-वापसी, जो शेखर की कल्पना में सालों से बसी हुई थी, दूर खिसकती जा रही थी.
घने कोहरे में रास्ता भी ठीक से नहीं दिख रहा था. कांटेदार बाढ़ को पीट कर वह गांव के आख़िरी मकान तक पहुँच गया. अब तो कोई शक नहीं रहा कि पूरा का पूरा गांव ही वीरान पड़ा था.
कोहरे की सफ़ेद चादर, दिन ढलने से कुछ मटमैली लगने लगी थी. झिंगुरों के ऊंचे-चुभते स्वर घाटी में छाए सन्नाटे में गूँज रहे थे. कांपते पैर और मायूसी भरा दिल ले कर शेखर लौटने लगा. ऊपर बैग छूटा हुआ था. सावधानी से कदम रखने पड़ रहे थे ताकि ढलान में कहीं लुढ़क न जाए. तभी हवा का एक झोंका उसके आसपास छाए कोहरे को बिखेर गया. उसके सामने एक दरवाज़ा प्रकट हुआ. बढ़ते अँधेरे में शेखर ने बारीकी से उसे देखा. दरवाज़े के ऊपर शिव की छवि अंकित थी. उम्मीद फिर से लपक कर खड़ी हो गई. घर मिल गया! पहले कैसे नहीं देखा उसने? काठ का वह भारी दरवाज़ा उसे अपनी सुरक्षा की तह में आमंत्रित कर रहा था.
शेखर ने सोचा — बैग को छोड़ो, सुबह उठा लूँगा. दरवाज़े की ओर बढ़ा और उस पर लटके ताले को ज़ोर से खींचा. जंग से कमज़ोर हुआ ताला आसानी से टूट गया और दरवाज़ा चरमरा कर खुल गया. झट से घर में घुस कर उस ने कोहरे को बाहर ही रोक दिया. सपाट अँधेरे में उसने मोबाइल फ़ोन का टोर्च ऑन किया और मिट्टी से लीपी सीढ़ियां चढ़ कर गोठ के ऊपर कमरों में घुस गया. दाईं ओर बाबू का पूजाघर हुआ करता था जो अब खाली था. दीवार पर फटा-सा कैलेंडर लटका हुआ था जिस पर छपी लक्ष्मी की जानी-पहचानी छवि, होंठों पर दिव्य मुस्कान लिए उसे देख रही थी. जुलाई 2013 का दिनांक था. उस साल पहाड़ों में बाढ़ एक आपदा के रूप में आयी थी और भारी तबाही मची थी. उसी के बाद शायद लोग गांव छोड़ कर चले गए होंगे. लेकिन गए कहाँ थे? और बकरी, गाय-भैंस का क्या?
घर में सीलन और धूल बसी हुई थी, पर अपने घर में होने का अवर्ण्य अहसास शेखर के तन-मन को अत्यंत सुकून दे रहा था. एक-एक कमरे को छांटते हुए वह उस कमरे में आया जहाँ वह सोया करता था. पटखाट पड़ी हुई थी और उसे देखते ही वह उसमें ढह गया. ढंकने के लिए कोने में पड़ी मैली सी चादर और एक तकिया उठा लिया. खाट की खुरदुरी रस्सियां उसके शरीर को काटने लगीं. कंपन रोकने के लिए उसने अपने शरीर को कस कर मोड़ लिया.
बाहर तेज़ बारिश गिरने लगी. पानी की मोटी बूदें पत्थर की छत पर गोलियों की तरह बरस रहीं थीं. दूर घाटी से उठती हुई उदासीन कराह, शोक में डूबी एक महिला के विलाप की तरह शेखर के कानों तक पहुँची. वह ईजा के बारे में सोचने लगा. उसका डरा हुआ निस्तब्ध चेहरा, जब शेखर ने उसे आख़री बार देखा था, बार-बार उसके नज़रों के सामने आ जाता. इन लम्बे वर्षों में वह उसके प्रति जो अत्यधिक अपराधबोध महसूस करता था, वह गहरी टीस जो निसंदेह उसने उसे पहुंचाई थी और उसके बारे में कुछ न कर पाने का खेद, एक ऐसा कांटा बन गया था जो उसे बाबू के प्रति क्रोध से ज़्यादा चुभता था. लेकिन उसे हमेशा यह यकीन था कि जब कभी वह वापस लौटेगा ईजा उसका इंतज़ार कर रही होगी.
अभी सीलन भरे तकिये में भी उसने ईजा की महक ढूंढ ली — साबुन, मिट्टी और घास के मिश्रण के साथ उसकी नर्म त्वचा की भीनी खुशबू, जिसकी मिठास कई बार सुबह उठते ही उसे याद आती थी. बाबू की तरह वह कभी भी लाड़ दिखाने में संकोच नहीं करती. जब शेखर बकरियां चराने जंगल जाता तो वह उसके पीछे-पीछे जाती, पिछौड़े में गुड़ या कोई पकवान बांध कर और बड़े चाव से उसे खिलाती. सरसराती घास के बीच बैठे हुए शेखर को अपने सीने से लगा लेती. बरसात की ऐसी ही रातों में वह उसे थपथपा कर सुलाती, उसके गोरे महीन चेहरे पर अंतहीन बोझ की छाया जो जीवन ने उसे प्रदान की थी.
अब शेखर का मन हुआ कि वह बाहर जा कर उस उदासीन चीख को सराहे जो एक तेज़ हवा ने रची थी.
आंगन में चिड़ियों की ज़ोरदार चहचहाहट सुन कर शेखर जब उठा तो कुछ क्षणों के लिए समझ नहीं पाया कि वह कहाँ है. वह तकिया जो उसने सीने से चिपकाया था, अब बासी तेल की बू मार रहा था. उसे फेंकते हुए वह उठ बैठा. धूप की किरणें खिड़की के चीरों से कमरे में घुस आयी थीं और मकड़ी के जालों से गुज़रती हुई दीवार पर लगी एक फोटो पर गिर रहीं थीं. ठंड से ठिठुरा हुआ शेखर बड़ी मुश्किल से बिस्तर से उठा और फोटो के फ्रेम को कील से उतारा. उस पर धूल की चिपचिपी परत लगी थी.
आंगन में घुसते ही तेज़ धूप की सेंक से शेखर की कंपन बंद होने लगी. भिड़ पर बैठ कर उत्सुकता से उसने टूटे हुए फ्रेम से फोटो निकाली. कई क्षणों तक उसे देखता रहा. एक अनजान परिवार उसे घूर रहा था. फोटो उसके हाथ से गिर गयी. नज़र उठाने पर महसूस हुआ कि सामने के पहाड़ दूर भाग रहे हैं. भिड़ को कस कर पकड़ कर उसने अपने आप को संभाला. मुड़ कर खट्टे मन से उस घर को देखा जो एक पल में अजनबी बन गया था.
पूरी घाटी स्थिर थी, सिवाए बादलों के जो एक पतली परत में आसमान में तेज़ी से दौड़ रहे थे. शेखर ने ऐसे पहाड़ी गाँवों के बारे में सुना था जो पूरे के पूरे खाली हो गए थे. जहाँ की पूरी बसासत काम ढूंढने या आराम की ज़िंदगी जीने शहरों में जा बसी थी. पर उसे कभी ऐसा ख्याल नहीं आया था कि उसका मल्लागांव भी उनमें से एक हो सकता है.
पेट ज़ोर से गुड़गुड़ाया तो शेखर को ध्यान आया कि खाना खाये उसे कई घंटे हो गए थे. क्या कल ही वह गांव पहुंचा था? लग रहा था जैसे लम्बा अरसा बीत गया.
आंगन में बैग बारिश से भीग कर तर हो गया था. बिस्कुट का पैकेट खोल कर भूख के मारे इतनी जल्दी खा दिया कि उल्टी आने लगी. पीने का पानी नहीं था तो जूस की आधी बोतल ही पी डाली. फिर सोचा कि स्कूल हो कर आना चाहिए. पहाड़ी की चोटी पर स्थित स्कूल के पास से पक्की सड़क गुज़रती थी जहाँ किसी न किसी से तो भेंट हो ही जाएगी. वीरान घरों के आंगन से गुज़रते हुए उसका ध्यान छोटी-छोटी चीज़ों पर जाने लगा — उस रिंगाल की डलिया पर जो दरवाज़े के बाहर पड़ी थी. जंग लगी दरांती पर जो दीवार पर टंकी हुई थी. साड़ी के बचे-खुचे चीथड़ों पर जो रस्सी पर लटके थे. लगा कि किसी भी वक़्त लोग बाहर निकलेंगे और आज के दिन की शुरुआत थोड़ी देर से करेंगे.
ऊपर चढ़ते हुए कई सवाल उसके मन में उठ रहे थे. क्या उसे शहर लौट जाना चाहिए? अपने परिवार को वह कैसे ढूंढें? ज़मीन तो यहाँ पड़ी थी पर क्या उसे यही चाहिए था? अगले आदमी को वह कैसे साबित करे कि खेत उसके थे? आखिर किस उम्मीद से वह वापस आया था? क्या पाने के लिए…? दिमाग की व्यग्रता से उसके कदम लड़खड़ा रहे थे और वह कई गलत मोड़ ले रहा था.
हांफते हुए वह पेड़ की छाया के नीचे कुछ देर रुक गया. पहाड़ी के दूसरी ओर कुछ घर नज़र आ रहे थे पर वह भी वीरान लग रहे थे. उसे याद आया की वह तल्लागांव है, जहाँ छोटी जात के माने जाने वाले शिल्पकर रहते थे. उनके घर स्पष्ट रूप से कुछ दूरी में बसे हुए थे, ताकि मल्लागांव में रहने वाले उच्च जाति वालों का उनसे अनावश्यक संपर्क न हो. बाबू तो उनकी परछाई से भी कतराते थे.
आगे काफी चढ़ाई बाकी थी और शेखर ने अपने कदम फिर बढ़ाये. आखिरकार, पसीने से तर, वह स्कूल के मैदान में पहुँच गया. स्कूल क्या, खँडहर रह गया था. पूरी तरह से नष्ट हो चुका था. जंगल तो उसके अंदर ही घुस आया था, फटी दीवारों पर घुमावदार बेल फेंके हुए, उस ज़मीन में पेड़ों के अंकुर डालते हुए जिसके ठंडे स्पर्श में बच्चे किताबों पर झुके हुए बैठा करते थे. गीली घास के बीच चलते हुए शेखर को यहाँ बिताये हुए दिन याद आये जब वह टीचर के पीछे तोते की तरह बड़ी ईमानदारी से रट्टा लगाया करता था.
एक छोटा सा कक्षाघर अभी भी बचा हुआ था. ज़मीन पर फटी किताबें और टूटे मेज़ ऐसे पड़े थे मानो अकस्मात आया एक तूफ़ान सब को उड़ा कर ले गया हो. शेखर किताबों को छानने लगा, शायद किसी में कोई फ़ोन नंबर या पता लिखा हुआ मिल जाए. दीवार पर टंके चार्ट पर उसकी नज़र गयी जो निसंदेह कोई परिश्रमी टीचर का प्रयत्न था, बच्चों को समझाने के लिए कि उत्तराखंड के पहाड़ों में कहाँ-कहाँ से और कब-कब लोग आये थे. बाबू का तो मानना था कि उनके पूर्वज वेदों के युग से ही इस देवभूमि में बसे थे, लेकिन ईजा बताती थी कि कैसे लोग भारत के अलग-अलग कोनों से यहाँ आये. उत्पीड़न, अपमान या दुश्मन से बचने के लिए. या फिर अवसर, भूमि और भगवान की तलाश में.
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लेकिन पहाड़ के आश्रय में वह एक हो कर नहीं रह पाए बल्कि फिर से बंट गए, जाति और विशेषाधिकार के बलबूते पर. मुंह में उठती खटास को निगलते हुए शेखर ने सोचा कि ऐसी शिक्षा का क्या फायदा जो आदमी को अपनी ज़मीन से ही अलग कर दे, जो निर्बल की मर्यादा ही कुचल दे, जो बच्चों को सुरक्षित ही न रख सके. निराश हो कर उसने ज़मीन पे बिखरे पन्नों को देखा, सूत्र और अक्षर, जो किसी भी अर्थ की पूर्ति नहीं कर सके थे.
बाहर बैठ कर वह पर्वतीय श्रृखंलाओं के बीच धुंधली नीली अनंतता को देख रहा था. वे मैदानी इलाके जहाँ से वह स्वयं लौटा था और जहाँ इस क्षेत्र के सभी लोग अज्ञात भीड़ में विलीन होने निकल गए थे.
जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, घाटी की गहराइयों से कोहरा फिर से उठने लगा. दिमाग में कोई विचार न था तो टकटकी लगाए शेखर कोहरे को देख रहा था, जो जादू की छड़ी की तरह अपने रास्ते से सब कुछ मिटाते हुए चल रहा था. तभी उसकी नज़र तल्लागांव के एक घर से उठ रहे धुएँ पर पड़ी. अपने हाथों को दूरबीन की तरह उसने आँखों के पास लगाया तो उसे एक घाघरे की लहर जैसी दिखी.
उसने नीचे की ओर दौड़ लगा दी. अंधेरा होने से पहले उसका पल्ली तरफ पहुंचना ज़रूरी था. महिला के पास गांव के किसी व्यक्ति का पता या फोन नंबर तो जरूर होगा, अपनी गति दुगुनी करते हुए उसने सोचा. रास्ता सीधा उसे नदी के पास ले कर आया, बिना किसी उतार-चढ़ाव के, मानो उसपर इतनी निराशा लादने के बाद उसे कुछ तसल्ली दी जा रही हो.
उथली धारा पार करने पर पाया कि रास्ते पर कोई मानवीय गतिविधि नहीं होने के कारण मोटी काई जम गयी है. गिरते-पड़ते जैसे ही वह दूसरे पहाड़ पर चढ़ने लगा तो कोहरे के लपेटे में आ गया. अब हर कदम सावधानी से लेना पड़ रहा था.
तल्ला गाँव के मकान काफी छोटे थे. एक आंगन में रिंगाल के डल्लों का ढेर गिरा पड़ा सड़ रहा था. शेखर ने इस गांव के उस लड़के का नाम याद करने की कोशिश की जो उसकी कक्षा में हुआ करता था और जिससे दूर रहने के लिए बाबू ने सख्त निर्देश दिए थे.
यहाँ भी वीरानी छाई थी और शेखर एक बंद मकान से दूसरे की ओर बौखला कर दौड़ लगा रहा था. क्या वह औरत उसकी दृष्टी का भ्रम मात्र थी?
कोहरे ने आस-पास की दुनिया को मिटा दिया. नीचे देखा तो उसके हाथ पैर भी सफ़ेद कफ़न में गायब हो गए थे. वह एकदम स्थिर खड़ा रहा, सिर्फ अपनी सांसों को सुनते हुए, मानो उसका बाकी का अस्तित्व एक क्षण में मिट गया हो.
यह कहना मुश्किल था कि वह इस तरह कितनी देर खड़ा रहा, जब उसे एक मंदिर की घंटी की आवाज़ सुनाई दी. एक छोटे पूजा घर की स्मृति मन में उभर आई. दिये की मोटी बत्ती भगवान की कई मूर्तियों पर लाली फैलती हुई और ईजा की लम्बी सीधी पीठ झुक कर उनका नमन करते हुए. वह इस छवि से किसी धार्मिक भावना की वजह से नहीं जुड़ा था, बल्कि उस अटूट सुरक्षा के विश्वास से जो सालों पहले यह उसमें जगाती थी. अगर ऐसा मुमकिन है कि गहरी उदासीनता और पूर्ण पूर्ति का अहसास एक साथ हो सकता हो तो शेखर कुछ ऐसा ही अनुभव कर रहा था.
हवा के एक चुस्त झोंके ने कोहरे को भगाया और उसके आस-पास की दुनिया फिर प्रकट हो गई. ठीक उसके आगे गेंदे के फूलों की क्यारी थी. शुद्ध घी में प्रसाद के भुनने की महक उस तक पहुंची. सामने टूटे हुए मकान से एक नाटी बूढ़ी औरत, घाघरा-पिछौड़ा पहने, उसकी ओर दौड़ते हुए आई.
“ललित तू आ गया?” ख़ुशी से वह चिल्लाई.
शेखर का चेहरा अपने खुरदुरे हाथों से सहलाते हुए, उसकी मोतियाबिंद वाली आँखें सांवले, झुर्रियों भरे चेहरे से उसे देख रहीं थीं.
“मुझे पता था तू ज़रूर लौटेगा.”
शेखर ने सोचा कि वह ललित ही तो है और झुक कर उसे गले लगा लिया.
साबुन, मिट्टी और घास के मिश्रण में गेंदे के फूलों की भी खुशबू घुली थी.
अगली सुबह ईजा ने उसे बीज दिए. चौमास सर पर था पर सर्दियों की फसल की कोई तैयारी नहीं हुई थी. फल के बग़ीचे से गुज़र रहा था, जब उसने काकू के पेड़ के नीचे एक सांप को धूप सेंकते हुए देखा. आहट सुन कर वह आराम से दूसरी क्यारी में सरक गया. पक्षियों द्वारा कुतरे काकू को पेड़ से तोड़ कर शेखर ने उसका स्वाद लिया. जब वह खेत में बीज बो रहा था ईजा दिन का खाना बना रही थी. (Story by Bela Negi)
(यह मूल अंग्रेजी कहानी सिंगापुर से प्रकाशित किताब ‘द बेस्ट एशियन शॉर्ट स्टोरीज-2021’ में छप चुकी है. कहानी का हिंदी अनुवाद बेला नेगी ने ख़ुद किया है)
फ़िल्मकार और लेखिका बेला नेगी का बचपन नैनीताल में बीता. फिलहाल मुंबई में रहते हुए, अपनी फिल्मों, लेखन और शैक्षिक कार्यों के माध्यम से पहाड़ों से गहरा जुड़ाव बनाये रखतीं हैं.
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