इन दिनों जब घाम थोड़ा सा गुनगुना हो जाता है. बर्फ पहाड़ों से उतर कर गधेरों में भर जाती है. पहाड़ों की ठंडी नम जमीनें नन्हे-नन्हे कोंपलों से हरिया जाती है. चमकीली हरी मुलायम पत्तियों के बीच में प्योंली की पिंगलाई ओने- कोनों में फैल जाती है. पूरे जंगल में बुरांश टहोकने लगते है. गांव की सारी लड़कियां फुलियारी बनी गेहूं के खेतों में खिली सरसों के फूलों, खेतों की मेड़ों में खिले बनफसा फूलों से अपनी बांस से बनी टोकरियों को भरने के लिए कुलांचे भरती हैं. इन्हीं फूलों से सुबह मुंह अंधेरे में वो सबकी देहरियों को पूर देती है.
ठीक इन्हीं दिनों छतनार टहनियों से ढके पेड़ की पत्तियों के पीछे से एक चिड़िया कातर स्वर में आवाज देती है:
काफल पाक्यो, मील नी चाख्यो
(काफल पाक गए,मैंने नहीं चखे)
दूसरी चिड़िया बोलती है:
उत्तगी छन, उत्तगी छन
(उतने ही है)
दादी कहतीं – “द बाबा बोलने लगी ये बेचारी अब.”
“जरूर इस बेचारी चखुली की कोई कहानी होगी, है न दादी!”
दादी हाँ में सिर हिलातीं और सिर के साथ दादी के कानों में पहनी सोने की मुर्किली भी हिल-हिल हिलती. फिर कहानी शुरू होती.
दूर पहाड़ों के पार एक गांव के एक परिवार में बस दो जन, मां और बेटी, रहती थी. उस बरस जंगल में खूब बड़े-बड़े, काले-काले, रसीले काफल (खट्टा-मीठा जंगली फल) फले. मां जंगल से घर आते एक टोकरी भर के काफल तोड़ लाई. घर में मां ने माणे (सेर) से काफल नाप कर टोकरी ढक के रख दी. मां बेटी से बोली – “तू अकेले-अकेले मत खाना ये काफल. मैं काम निबटा के आती हूँ दोनों मिल के खाएंगे.” मां गयी थी लकड़ी काटने दूर बण, घर आने में रुमुक पड़ गयी.
आते ही माँ ने देखा टोकरी के काफल कम हो गए हैं. मां को बहुत गुस्सा आया. थक के आई थी. बेटी के कहना न मानने से चिंघा गयी, पास पड़ा डंडा उठा के दे मारा बेटी पे. बोली “निहत्ती सबर नहीं था तुझे, साथ खाएंगे बोलने के बाद भी आधे खा गयी.” बेटी कुछ बोलती उससे पहले ही डंडा उसके सर पर लगा और वो मर गयी.
अब मां रो-रो कर बेहाल हो गयी. अरे बाबा जरा से काफल के मारे मैंने अपनी बेटी को मारा ही क्यों. रोते-रोते दिन ढल गया. काफल की कौन पूछ करता. बाहर गुठ्यार में थे. वहीं खुले में छूट गए. सुबह मां ने देखा काफल की टोकरी तो वैसे ही भरी रखी है.
मां काफल की टोकरी देख कर जोर से चीत्कारी और उसके भी प्राण निकल गए. हुआ ये कि दिन भर धूप से काफल सूख गए थे इसलिए कम दिखाई दिए. जैसे ही उन्हें ओस की नमी मिली काफल फूल गए और टोकरी पहले की तरह भर गयी.
तब से बेटी और माँ दोनों चखुली बन-बन-बन डोलती हैं. काफल का मौसम आते ही बेटी कारुणा करती है – “काफल पाक्यो,मिल नी चाख्यो.” मां पुकारती कहती है – “उत्तगी छन,उत्तगी छन.”
दादी कहती – “हे राम बाबा यही तो है पहाड़ों का सत्त. यहाँ पर रहने वाले जो इंसान पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, गाड़, गधेरे होते हैं और यहाँ का जो सारा चर-अचर इंसान होता है वो एक दूसरे में जन्म लेते हैं.
-गीता गैरोला
देहरादून में रहनेवाली गीता गैरोला नामचीन्ह लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. उनकी पुस्तक ‘मल्यों की डार’ बहुत चर्चित रही है. महिलाओं के अधिकारों और उनसे सम्बंधित अन्य मुद्दों पर उनकी कलम बेबाकी से चलती रही है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगी.
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9 Comments
Kamlesh Kandpal
Hello
Anonymous
शानदार
शशि
अनेकानेक शुभकामनाएं, एक ऐसा पोर्टल जो हमारे लोगों के लिए, उनकी बातों और संस्कृति के लिये उपयोगी होगा।
मेरी काफल टीम,सदस्यों को बधाई,शुभकामनाएं।
Anonymous
Aisa laga jaisai maa site hue apne bachhe ko koi kahani suna Rahi ho….bahut Sundar mam
Dr S K Joshi
दादी सच कहती थी।
Madhu Sudan Juyal
I haven’t seen such types of a whatsapp group.
Really it is amazing.
I am feeling very proud of become a member of the same.
Congratulation.
Great!
Dheeraj Rawat
Really very beautifull story
अमरजीत सिंह
मैं कविता की यह पंक्तियाँ अक्सर अपने बचपन से लेकर आज चौंसठ साल की उम्र होने तक गाया करता हूं. मेरे इन पंक्तियों को अक्सर गुनगुनाते हुये सुनकर मेरे छोटे पुत्र ने भी सीख लिया था .
इसलिए जब इलाहाबाद में पहली बार एक स्कूल में प्रवेश के दौरान वह इतना प्रसन्न था कि वंहा प्रांगण में उगे एक वृक्ष को हाथ से पकड़ कर उसके चारों तरफ घूमते हुये यही पंक्तियां दोहरा रहा था ; काफल पाकौ मैल नी चाखौ ….
यह कविता और इससे जुड़ी कथा, मैं कभी नंही विस्मृत कर पाउँगा .???
Subhash
मेरी काफल टीम,सदस्यों को बधाई,शुभकामनाएं।