Featured

गढ़वाल रायफल्स और प्रथम विश्व युद्ध

प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वालियों ने अपना पराक्रम दिखाकर देश को ही नहीं बल्कि दुनिया को चकित कर दिया था. मेरठ डिवीजन की उनकी दोनों बटालियनों  को गढ़वाल ब्रिगेड के नाम से फ्रांस भेजा गया. वहां पर भारी जर्मन हमले के सामने मित्र राष्ट्रों की रक्षा पंक्ति बिखरती जा रही थी. गढ़वालियों ने इस रक्षा पंक्ति को मजबूत किया और साथ ही जर्मनों को पराजय का स्वाद भी चखाया. फेस्टूवर्ट की शीतकालीन भयंकर लड़ाई में पहली बटालियन के नायक दरबान सिंह ने गजब के साहस का परिचय दिया और सर्वोच्च वीरता पुरस्कार विक्टोरिया क्रॉस पाया. ब्रिटेन के सम्राट ने युद्ध भूमि में ही उन्हें इस पुरुस्कार से सम्मानित किया.

फ्रांस की लड़ाई में अनेक गढ़वाली वीर हताहत हुये और बटालियनों की सैनिक संख्या बहुत कम हो गई. परिणामस्वरूप दोनों बटालियनों को मिलाकर ‘दि गढ़वाल राफल्स’ बना दी गई. अक्टूबर 1915 तक सैनिकों की संख्या बहुत कम होने पर रेजिमेंट को फ्रांस से वापस बुला लिया गया. सर जेम्स के शब्दों में वहां गढ़वाल राइफल्स ने बड़ा नाम कमाया. फ्रांस में जो भी उन्हें देखता उनका नाम इज्ज़त के साथ लेता. यहाँ तक की जर्मन सैनिक भी उन्हें पूरा सम्मान देते थे.

भारत लौटने पर इन बटालियनों को पुनर्गठित किया गया. मार्च 1917 में गढ़वाली फिर चल पड़े. इस बार जंग के लिये पश्चिम एशिया की ओर जहां उन्हें तुर्की सेना के विरुद्ध अनेक सफलताएं मिली. 1916 और 1918 में गढ़वालियों की तीसरी और चौथी बटालियन का भी गठन किया गया. इन दोनों बटालियनों ने अफगान युद्ध के दौरान विशेष वीरता का प्रदर्शन किया. इसी युद्ध के दौरान चौथी बटालियन के कम्पनी कमांडर लेफ्टिनेंट कनै ने अद्भुत वीरता के लिये विक्टोरिया क्रॉस हासिल किया.

पहले विश्व युद्ध और इसके बाद की लड़ाइयों में उच्च कोटि के पराक्रम के लिए ब्रिटिश सम्राट ने गढ़वाल रेजीमेंटों को राजसी खिताब से सम्मानित किया. गढ़वाली सैनिकों ने युद्ध में एशिया के रेगिस्तानी इलाकों, बर्मा के घने जंगलों और इटली के पठारी क्षेत्रों में कई खुली लड़ाइयां लड़ीं. उनके द्वारा जीते गए बैटल आनर्स (युद्ध सम्मान) इस बात के साक्षी हैं.

एक विशेष युद्ध स्मृति के मौके पर 11 नवंबर 1923 को गढ़वाल राइफल्स की प्रथम विश्व युद्ध में विशेष भूमिका के लिये गढ़वाल सैनिक की कांस्य प्रतिमा बनाकर सम्मानित किया गया. यह प्रतिमा आज भी लैंसडाउन में विद्यमान है.

चंद्रपाल सिंह रावत की किताब गढ़वाल और गढ़वाल  पर आधारित है .

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago