[पिछली क़िस्त: 1888 में अंग्रेजी मिडिल स्कूल की तरह शुरू हुआ था हल्द्वानी का एम. बी. कॉलेज]
लकड़ी का कारोबार यहाँ बहुतायत में होता था तथा काठगोदाम में काठबांस की चौकी थी. पहाड़ों से गौला में ‘बहती’ के रूप में पहुंची लकड़ी का भण्डार होने के कारण इस स्थान को काठगोदाम कहा जाने लगा. जिस संकरी घाटी को आजकल गुलाबघाटी के नाम से जानते हैं बमौरी का दर्रा या घाटा नाम से जाना जाता था.
24 अप्रैल 1884 को यहाँ सबसे पहले रेल पहुंची. उन दिनों यह इलाका बियाबान जंगल था. रेल कि पटरियों पर हाथी और शेर घूमा करते थे. धुवां उगलते हुए रेल का आना एक अजूबा था, लोग इसे देखकर भागने लगते थे और इसे अंग्रेजों का खतरनाक कारनामा समझते थे. कितनी मजेदार बात है यह कि 16 अप्रैल 1853 में पहली रेल भारत में चली और उसके बाद मात्र 31 साल बाद वह काठगोदाम तक पहुंचा दी गई. सन 1905 में अंग्रेजों ने टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन के अलावा चौखुटिया, जौलजीबी रेल लाइन का सर्वेक्षण करवाया. सर्वेक्षण का यह कार्य सन 1939 में पूरा हो गया. किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के कारण सरकार का ध्यान इससे हट गया. उस दौरान व बाद में जब भी पर्वतीय क्षेत्र में रेल विस्तार योजना पर विचार किया गया तब सर्वेक्षण में इस बात का पूरा अंदाजा लगाया गया था कि इस क्षेत्र को रेल लाइन से जोड़ने पर क्या लाभ होगा.
तत्कालीन स्थितियों के अनुसार इस क्षेत्र के अधिक आवागमन की सुविधाओं पर भी विचार किया गया. इस क्षेत्र की सर्वाधिक उपजाऊ रेलपथ की घाटियों में कृषि-बागवानी के लाभ का भी पूरा ध्यान रखा गया. उस वक़्त पर्यटन को एक उद्योग के रूप में नहीं आँका गया था किन्तु इस बात पर चर्चा हुई कि बाहरी क्षेत्रों से आने वाले लोगों को भी इससे लाभ पहुंचेगा. आजादी के बाद क्षेत्र वासियों ने इस मांग को आन्दोलन के जरिये कई बार उठाया किन्तु पहाड़ के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकने वाली इस रेल लाइन के निर्माण कि ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया और इस योजना को चुनावी घोषणाओं के बतौर प्रयुक्त किया जाता रहा. अंग्रेजों के लिए तराई-भाबर के जंगल आमदनी का बड़ा स्रोत थे. इसलिए जंगलों से लकड़ी के भारी गिल्टे एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए जंगलात विभाग ने 1920 में नन्धौर ट्राम व ट्रेन का सञ्चालन किया. नन्धौर ट्राम व ट्रेन दो रूटों पर चलती थी. इसमें एक रूट लालकुआँ- हुराई- सेला-चोरगलिया करीब 21 किमी तथा दूसरा रूट हुराई-हंसपुर और जौलासाल करीब 20 किमी के जंगल का था.
चोरगलिया के लाखनमंडी के पास इसका एक डिपो था, जहाँ लकड़ियाँ लोड होती थीं. करीब 34 साल तक चलने के बाद 1954 में ट्रेन को बंद कर दिया गया. रेल विभाग ने इसकी बोगियों को नीलाम कर इसकी पटरियों को काटकर पिलर बना डाले. इसके कुछ अवशेष तिकोनिया स्थित वन विभाग के परिसर में रखे गए थे. ट्रेन का सञ्चालन बंद करते समय वन विभाग के पास तीन इंजन थे. दो इंजन गोरखपुर भेज दिए गए और ‘जॉन फाउलर कंपनी’ का एक इंजन लम्बे समय तक लालकुँआ में पड़ा रहा.
1989 में इसे एफटीआई हल्द्वानी में रख दिया गया. इसी तरह टनकपुर में भी जंगलों तक ट्राम वे लाइनें बिछाकर ट्रेने चलाई गयी. हल्द्वानी तक बड़ी रेलवे पहुँचाने के लिए भी कई बार सर्वे किया गया. 6 अक्तूबर 1968 को तत्कालीन राज्य वित्त मंत्री के.सी. पन्त के साथ यहाँ पहुंचे तत्कालीन रेल मंत्री सी. एम. पुनाचा ने भी बड़ी रेल लाइन के प्रस्ताव को स्वीकारा.
बहुत वर्षों के इन्तजार के बाद मई 1994 के प्रथम सप्ताह में काठगोदाम से रामपुर बड़ी रेल सेवा चालू हो सकी. 126 साल से कुमाऊँ क्षेत्र के लोगों को लाने ले जाने वाली नैनीताल एक्सप्रेस 31 दिसंबर 2011 को अपने आखिरी सफ़र पर रवाना हुई. भाप के इंजन से डीजल इंजन तक सफ़र पूरा करने के बाद नयी पीढ़ी के लिए बड़ी रेलवे लाइन का रास्ता छोड़ दिया. बरेली से काठगोदाम के बीच रेलवे लाइन बिछाने वाली कंपनी का नाम था ‘रूहेलखंड-कुमाऊँ रेलवे कंपनी.’ प्रारंभ के वर्षों में रेल लाइन डालने वाली कंपनी ट्रेनों से सवारियां ढोने के अलावा काठगोदाम से आगे नैनीताल तक यात्रियों को लाने लेजाने के लिए घोड़ा-गाड़ियों को भी चलाती थीं. बरेली के इज्जतनगर रेलवे स्टेशन का नाम पहले आइजेटनगर था. इज्जतनगर मंडल 1 मई 1969 को अस्तित्व में आया.
(जारी है)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी-स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर
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Confuse ..but 1999 ki jagah I think 1939 hona chahiye ..
Sorry if I wrong
ठीक कर दिया है कमल जी. ध्यान दिलाने के लिए आपका धन्यवाद!