पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में लंबे समय तक संस्कृत के प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष रहे डीडी शर्मा अवकाश प्राप्त करने के बाद हल्द्वानी नवाबी रोड में निवास कर रहे थे. वे उत्तरी भारत में अपनी श्रेणी के प्राच्यविद और भाषा शास्त्री माने जाते हैं. कई भारतीय व विदेशी भाषाओं के ज्ञाता डॉ. शर्मा को 1984 में भाषा विज्ञान विषय पर प्रकाशित कृतियों के लिए डी लिट की उपाधि से सम्मानित किया गया. हिमालयी क्षेत्रों का सर्वेक्षण व जनजाति भाषाओं में शोध एवं लेखन के क्षेत्र में योगदान के लिए ‘इंटरनेशनल बायोग्राफिकल सेंटर कैंब्रिज, इंग्लैंड’ द्वारा उन्हें वर्ष का अंतरराष्ट्रीय व्यक्ति (इंटरनेशनल मैन ऑफ द ईयर) घोषित किया गया. डॉ. शर्मा को अनेक राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा जाता रहा. वर्ष 2011 में डॉ. शर्मा को पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. उनका उत्तराखंड का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास 8 खंडो में बहुत महत्वपूर्ण है. बहुत ही सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले डॉ. शर्मा की नगर में होने वाले साहित्यिक सांस्कृतिक समारोह में उपस्थित ही महत्वपूर्ण रहा करती है. 88 वर्ष की आयु में 16 मार्च 2012 उनका देहांत हो गया.
27 जनवरी 1943 में चितल गांव पिथौरागढ़ में जन्मे डॉ. पराग जोशी फिरोज गांधी महाविद्यालय रायबरेली से अवकाश प्राप्त कर यहां चंद्रावती कॉलोनी छोटी मुखानी में निवास कर रहे हैं. डॉ जोशी लोक साहित्य के अध्येताओं और संग्रहकों की श्रेणी में वरीयता प्राप्त लेखक हैं. कुमाऊं और गढ़वाल के लोकजीवन से जितना तल्लीन रिश्ता इनके अध्ययन का रहा वैसा अन्य लोग नहीं कर पाए हैं. उनकी पहली रचना कुमाऊं, गढ़वाल की लोककथा, गाथाओं का विवेचनात्मक अध्ययन दो भागों में प्रकाशित हुआ. कुमाऊं की लोकगाथाएं तीन भागों में प्रकाशित हुई. वनराजियों खोज उनकी गहन अध्ययन एवं एवं अनुसंधानपरक कृति है. राजी जाति पर पहला व्यापक और सामाजिक अध्ययन भी है रवाईं से उत्तराखंड लोक में उनकी पैठ की साक्ष्य कृति है.
विरासत को पीढ़ी से जोड़ने के प्रयास के लिए 1986 में एक संस्था का गठन किया गया था, नाम था ‘उत्तराखंड शोध संस्थान’ इस संस्था के अध्यक्ष थे गिरिराज शाह 1983-84 में शाह हल्द्वानी में खुफिया विभाग के प्रमुख के रूप में तैनात थे लेकिन तबादलों के चलते वे स्थान पर नहीं रह सकते थे. रुद्रपुर में भी उन्होंने शहर से लगे एक स्थान पर गांव में एक घर बनाया. घर के सामने नैनीताल की झील की शक्ल का एक बहुत बड़ा तालाब भी बनवाया, ताकि नैनीताल की याद बनी रहे. रिटायर होने के बाद वे नैनीताल से तकरीबन 4 किलोमीटर दूर भवाली रोड पर रहने लगे. पुलिस विभाग की गैर साहित्यिक और व्यस्ततम जीवन शैली के बीच विभिन्न विषय 50 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित कर एक रिकॉर्ड उदाहरण प्रस्तुत किया. उत्तराखंड नामक एक पत्रिका का प्रकाशन उत्तराखंड शोध संस्थान के माध्यम से उन्होंने करवाया, जिसमें विभिन्न विषयों के महत्वपूर्ण लेख उत्तराखंड की पीढ़ी को विरासत से जोड़ने के लिए दिए जाते थे.
1984 से आधारशिला के नाम से दिवाकर भट्ट एक स्त्री साहित्यिक मासिक पत्रिका का प्रकाशन कर रहे हैं वह बैंक में सेवारत रहते हुए ही आधारशिला नामक पत्रिका का प्रकाशन करने लगे थे. उनका रुझान बैंक की आकर्षक सेवा से अधिक पत्रकारिता और साहित्य की ओर था. इस रुझान के चलते हुए बैंक की सेवा से त्यागपत्र देकर अमर उजाला से जुड़ गए. साथ ही आधारशिला का प्रकाशन नई संभावनाओं के साथ करने लगे. वर्तमान में प्रकाशित हो रही पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ में आधारशिला ने अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है.
जब हम हल्द्वानी नगर की चर्चा करते हैं तो प्रसंगवश उसके साथ नैनीताल रामनगर तथा आसपास के नगरों को भी शामिल कर लिया करते हैं. क्योंकि इन नगरों में होने वाली गतिविधियों में एक-दूसरे की भागीदारी अक्सर रहा करती है. इसी क्रम में कुमाऊं विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रवक्ता एवं विभागाध्यक्ष रहे कथाकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ हैं. रामगढ़ में महादेवी वर्मा साहित्य पीठ की स्थापना करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा. वे समय-समय पर महादेवी वर्मा शैलेश मटियानी सुमित्रानंदन पंत आदि को लेकर साहित्यिक गोष्ठीयों का आयोजन करते रहे हैं. और इन गोष्ठियों में देश के नामचीन साहित्यकारों नामवर सिंह, अशोक बाजपेई, मैनेजर पांडे आदि को आमंत्रित करते रहे हैं तथा इन साहित्यिक गोष्ठी और परिचर्चा में वे क्षेत्र के लेखकों व साहित्य प्रेमियों की भागीदारी पर भी बराबर ध्यान देते रहे हैं. नैनीताल रामगढ़ हल्द्वानी कौसानी आदि स्थानों पर वे इन गोष्ठीयों को आयोजित करते आए हैं. इसी तरह की साहित्यिक संगोष्ठी अथवा पत्रकार संगठनों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में यहां सुप्रसिद्ध साहित्यकार कथाकार लेखक पत्रकार समय समय पर आते रहे हैं. डॉ रमेश चंद्र शाह, हिमांशु जोशी, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी, पंकज बिष्ट, शेखर जोशी, देवेंद्र उपाध्याय, नवीन जोशी, इब्बार रब्बी, प्रेम सिंह नेगी, डॉ राम सिंह, देवेंद्र मेवाड़ी, यशोधर मठपाल, मथुरा दत्त मठपाल, शेर सिंह पांगती, गोविंद गोविंद पंत ‘राजू’ आदि आते रहे हैं. कुमाऊं विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति व वैज्ञानिक डॉ. डीडी पंत जहां अपने अंतिम दिनों तक यहां रहे, वहीं वैज्ञानिक व पूर्व कुलपति डॉ. आरसी पंत यहीं निवास करते हैं. कहने का मतलब यह है कि यह शहर केवल व्यवसायियों व व्यवसायिक मनोवृत्ति रखने वालों से ही नहीं भरा पड़ा है. यहां अनेक विधाओं के विद्वान वह मनीषी भी निवास करते आए हैं और उनका यहां बराबर आना जाना रहा. हिंदुस्तान के संपादक व सुप्रसिद्ध कथाकार हिमांशु जोशी पत्रकार संगठनों के बुलावे पर यहां आते रहे हैं.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 36
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