हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 29

पहाड़ की प्रमुख मंडी हल्द्वानी के आबाद होने की कहानी बहुत रोचक है. इसका वर्तमान चाहे कितना ही स्वार्थी हो गया हो इसका भूतकाल बहुत ईमानदार और विश्वास पर आधारित था. मूल रूप से रानीखेत के रहने वाले लालमणि ने यहाँ चलता-फिरता कारोबार शुरू किया बाद में इनके पिता खीमदेव यहाँ स्थायी रूप से बस गए और लालमणि-खीमदेव नाम से फार्म स्थापित की. उस समय बरेली, काशीपुर आदि स्थानों से हल्द्वानी का संपर्क था और ऊंट, हाथी से सामन का ढुलान हुआ करता था. तब वे बैलगाड़ी से गुड़, तेल व अन्य सामन रानीखेत में बिक्री के लिए ले जाया करते थे. 1931-32 में लालमणि के पुत्र खीमदेव ने लोहारा आइन में दुकान शुरू की. लीलैंड नमक यह गाड़ी बहुत धीमी गति से चलती थी. प्रातः हल्द्वानी से चलकर यह शाम तक गरमपानी स्टेशन पहुँचती थी फिर अगले दिन रानीखेत के लिए निकलती थी. तब यात्रियों के साथ सामान का ढुलान भी बस से होने लगा. तब हल्द्वानी से बरेली का किराया 1 रुपया 2 आना हुआ करता था. 1 रुपया गैलन पेट्रोल मिल जाया करता था. 2800 रुपये में पूरी गाड़ी आ जाया करती थी. 400 रुपये में पूरी गाड़ी की फिटनेस हो जाया करती थी. रानीखेत का किराया 4 आना हुआ करता था. 1939 में केएमओयू का गठन हुआ तब प्रति सवारी किराया आठ आना हो गया. गाड़ी में 14 सवारियां या फिर 42 तन माल लाने-लेजाने की स्वीकृति मिला करती थी. उस समय हल्द्वानी मंडी की मुख्य व्यापारी फर्में गंगाराम-मंगतराम, सागरमल-दौलतराम, रामस्वरूप-भीखामल, मंगतराम-रामसहाय हुआ करती थी.

उस दौर में सदर बाजार, लोहारा लाइन में तिन की चाट वाली दुकानें थीं, जिनके किवाड़ बांस के होते थे. भोलानाथ बगीचा, कालाढूंगी चौराहे पर खाम का बगीचा बहुत चर्चित था. यहाँ कटहल, लुकाट, आम के पेड़ खूब हुआ करते थे. वर्तमान में खानचंद मार्किट को उस समय भानदेव का बगीचा कहा जाता था. कालाढूंगी चौराहे पर दुर्गादत्त की पान की दूकान हुआ करती थी. 1940 के आस-पास किशन सिंह डाक्टरी करके शहर में आ गए. काशीपुर के व्यापारी लाला बिंद्रावन का तम्बाकू का कारोबार काफी फैला हुआ था. उन्होंने हल्द्वानी में कुछ पिंडी पत्म्बकू रखकर इस कारोबार को शुरू करवाया. बाद में लाला ने यह कारोबार बंद कर दिया लेकिन लालमणि-खीमदेव की फार्म तम्बाकू के लिए प्रसिद्ध हो गयी.

व्यापार के अलावा लालमणि-खीमदेव व्यापारियों का अड्डा भी हुआ करती थी. यह तराई-भाबर के अलावा सीमांत के व्यापारियों का मिलन केंद्र भी हुआ करती थी. इस फार्म में तम्बाकू पीने वालों का भी जमघट लगा करता था. सीमान्त के शौक व्यापारी आलू के अलावा सूखे मेवे, खुमानी, अखरोट, तिब्बत का सुहागा और गरम कपड़े लाया करते थे. सैंकड़ों भेड़-बकरियों के साथ हल्द्वानी पहुँचने वाले इन व्यापारियों को लोग न्यौता देकर अपने खेतों में रहने का निवेदन किया करते थे ताकि उनकी बकरियां खेतों में चुगान की एवज में कीमती खाद दे सकें. तब व्यापार बहुत ईमानदारी से किया जाने वाला काम था. नकद-उधार का व्यापार भी खूब हुआ करता था. व्यापारी आते-जाते समय परिचितों के पास पैसा तक जमा कर जाया करते थे. तब लम्बे सफ़र के दौरान चांदी भारी के भारी रुपयों के होने से उन्हें ढोने में दिक्कत हुआ करती थी. बाद में कागज के नोटों के चलन से सुविधा हो गयी. पहाड़ के शौक व्यापारी उस समय 100 के नोट के दो टुकड़े करके डाक द्वारा दोनों भागों को अलग-अलग भेजा करते थे. एक टुकड़ा खो जाने की स्थिति में दूसरा टुकड़ा रुपया मान लिया जाता था. पहाड़ को लौटते समय व्यापारी नमक ले जाया करते थे. तब नमक की गाड़ी उतारते ही सड़क पर नमक का ढेर लग जाता था, गायें नमक चाटने के लिए सड़क पर इकठ्ठा हो जाया करती थीं. श्रमिक-पल्लेदार तो वैसे ही आवश्यकतानुसार नमक उठा लिया करते थे, कोई कुछ कहने वाला नहीं था. हल्द्वानी मंडी में धेले वाले कारोबार का बड़ा कारोबार हुआ करता था.

हल्द्वानी शहर का घनी आबादी वाला मोहल्ला आनंद बाग़ कप्तान चामू सिंह की पत्नी आनंदी देवी के नाम पर बसा है. कभी यह क्षेत्र लुकाट, आम, लीची का बाग़ हुआ करता था. मुख्य थाना, एसडीएम कोर्ट, तहसील कवार्टर सहित एक बड़ा क्षेत्र इस बाग़ का हिस्सा थे. मूल रूप से काठमांडू (नेपाल) के चामू सिंह वाराथोकी अंग्रेजों के ज़माने में कप्तान थे. प्रथम विश्वयुद्ध में गैलेंट्री अवार्ड में उन्हें हल्द्वानी, पिथौरागढ़ और सोमेश्वर में जमीन अलाट हुई थी. अल्मोड़ा की पलटन बाजार में आनन्द भवन भी उन्होंने बनाया था.

हल्द्वानी के पुराने परिवारों में मुनगली परिवार का नाम भी लिया जाता है. हल्द्वानी का मुनगली गार्डन इसी परिवार के नाम से जाना जाता है. हल्द्वानी बसने की शुरुआत में भवानीगंज और नैनीताल में भवानी लॉज भी इसी परिवार के नाम से जाना जाता है. इसी परिवार के सदस्य डॉ. एनसी मुनगली शहर के वरिष्ठ चिकित्सक होने के साथ-साथ साहित्य, कला, संगीत, इतिहास-भूगोल इत्यादि विषयों में गहरी रुचि रखते हैं.

बरेली रोड, जो रूहेलखंड को पहाड़ से जोड़ती थी, कभी आमों से लड़ी रहती थी. पेड़ लगाना और उन्हें सँवारने का शौक पुराने लोगों में ज्यादा था. तभी तो सड़क के किनारे फलदार पेड़ लगे होते थे. 1850-55 में भवानीगंज में पहला भवन बना. इस प्रकार नैनीताल रोड मंगल पड़ाव से लेकर रामपुर रोड तक का क्षेत्र भवानी गंज कहलाया जाने लगा. यह सारी प्रक्रिया म्युनिसिपल बोर्ड बनने से पूर्व की थी. तब पहाड़ के कारोबारियों में दान सिंह मालदार का बहुत नाम था, उसी प्रकार भाबर में भवानीदत्त मुनगली का भी. उस ज़माने में इनका कारोबार जंगलात का कांट्रेक्टर भी था. ब्रितानी कंपनी इन्डियन वुड प्रोडक्ट, इज्जतनगर बरेली के लिए यहाँ से खैर की लकड़ी सप्लाई होती थी.

( जारी )

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर

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Sudhir Kumar

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