सन् 1970 तक शादी-ब्याह की रस्में भी यहां ठेठ ग्रामीण परिवेश में ही हुआ करती थीं. न्योतिये प्रातः पहुँच जाते और साग सब्जी काटना, हल्दी-मसाले घोटना, टेंट कनात लगाने में सहयोग करना, आदि में जुट जाते. Forgotten Pages from the History of Haldwani 42
पहाड़ी मूल के लोगों के इस आयोजन में भोजन व्यवस्था भी ग्रामीण ढंग से ही हुआ करती थी और मैदानी क्षेत्र के लोग आपसी सहयोग के साथ हलवाई की व्यवस्था करते थे. 1985 तक हिन्दू धर्मशाला रामपुर रोड़, राम मंदिर धर्मशाला और भोलानाथ धर्मशाला व सत्यनारायण धर्मशाला कालाढूंगी रोड के अलावा ऐसा कोई बड़ा स्थान नहीं था जहाँ बारात की व्यवस्था की जा सके. अधिकांश लोग अपने ही आंगन या आस-पास की खाली पड़ी भूमि या सड़क पर ही छोटा सा टेंट लगाकर शादी की रस्म पूरी कर लिया करते थे.
आज की जैसी सजावट का भी प्रचलन नहीं था. अब तो हर गली में कई विवाहगृह खुल गए हैं जिनका किराया ही उस वक्त की पूरी शादी के खर्च से अधिक बैठता है और एक लाख से ऊपर सजावट में ही लोग खर्च कर दे रहे हैं. इसका प्रभाव उस अक्षम तबके पर पड़ रहा है जिसकी आमदनी सीमित है.
बिजली विभाग में काम करने वाले रामदत्त पन्त जी और नगरपालिका पुस्तकालय की देखरेख करने वाले चन्द्र बल्लभ पांडे जी उन दिनों पहाड़ी पंडितों की ही तरह अधिकांश घरों में रसोइये हुआ करते थे. वणिक वर्ग खाना बनाने के लिए हलवाई बुलाता था. शेष अन्य घरों में भी अपनी-अपनी सामर्थ्य व परिचय के दायरे के अनुसारी रसोई का इंतजाम हुआ करता था.
टेंट हाउस से बर्तन तभी मॅंगाए जाते थे जब किसी कारण वश गुरूदारे में बर्तन न मिल पायें, अन्यथा शादी-ब्याह आदि के लिए गुरूदारे से ही बर्तनों का इन्तजाम हो जाया करता था. लड़की की शादी में दिनभर काम करने के बाद न्योतिये बारात आने के बाद बिना भोजन किए ही अपने घरों को वापस लौट जाते थे. लड़की की बारात में भोजन करना ठीक नहीं समझा जाता था. लेकिन अब घराती बरातियों से पहले भोजन पर टूट पड़ते हैं.
इसी तरह किसी की मृत्यु पर श्मशानघाट जाने वाले मलामी (शवयात्रा में जाने वाला व्यक्ति) को ही बारहवें दिन भोजन के लिए बुलाया जाता था. यदि वह न पहुँच पाता तो उसके घर चावल-दाल वगैरह पहुंचा दिया जाता. उस भोजन को सिर्फ वही व्यक्ति खाता जो श्मशानघाट गया हो. किन्तु आज इस आयोजन को ‘ब्रह्मभोज’ का नाम दे दिया गया है और तमाम परिचितों को आमंत्रित कर स्वादिष्ट पकवान खिलाये जाने लगे हैं.
इस दिन क्रियाकर्म में बैठे लोग पीपल में पानी देते हैं ताकि वे इस क्रिया के बाद शुद्ध हो सकें. अलग-अलग प्रजाति के वृक्षों के साथ आदमी के सम्बंधों की परम्परा एक अलग ही अध्याय की विषय वस्तु है किन्तु यहाँ यह रस्म ढकोसला बनती जा रही है.
इस क्रिया के बाद नई पीढ़ी समझ नहीं पा रही है कि ऐसा क्यों किया जा रहा है. अब एक पीपल की टहनी तोड़ कर आंगन में रोप दी जाती है और हर आने वाले से कहा जाता है कि वह उस टहनी में पानी डाले. लोग उस गमगीन माहौल में यह सब करते हैं लेकिन उन्हें पता नहीं होता कि पीपल पानी की यह रस्म केवल मृतक के परिवारजनों को ही करनी होती है. यह भी ‘भबर्योव’ का ही एक नमूना है. Forgotten Pages from the History of Haldwani 42
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर
पिछली कड़ी – तराई भाबर में जमीनों की लूट का इतिहास
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