हफ्ते भर पहले उत्तर उजाला के समाचार सम्पादक व दगड़ू चन्द्रशेखर जोशी के साथ बचदा (जनमैत्री संगठन के बच्ची सिंह बिष्ट) के घर गया तो वहॉ उनके सगवाड़े में धुँआर देखकर मन प्रसन्न हो गया. लौटते समय मैंने बचदा से धुँआर की कुछ पत्तियॉ और कुछ पौधे मांग लिए. घर आने के बाद मैंने धुँआर के पौधों से पत्तियां काट लीं और उनकी जड़ों को गमले में लगा दिया. कभी भाबर के हर घर में उगाए जाने वाला धुँआर अब यहां के गांवों से लगभग गायब हो गया है. बचदा का अपने गांव में लगभग हर हफ्ते आना – जाना होता है. इसी कारण उन्होंने हल्द्वानी के अपने सगवाड़े में धुँआर को भी जगह दी है और छौंके में उसका ही उपयोग करते हैं. (Forgotten Kumaoni Spice in Traditional Cuisine)
पहाड़ के लोगों ने अपने परम्परागत मसालों से भी तौबा कर ली है. कभी धुँआर हर घर में छौंके के मसाले के तौर पर उपयोग में लाया जाता था जो अब लुप्त होने की कगार पर है. कभी पहाड़ से भाबर में उतरे लोग भी सालों तक अपने सगवाड़े में धुँआर को लगाते थे और छौंके में इसका भरपूर उपयोग होता था. पहाड़ के लोग छौंके में धनिया के बीज और धुँआर की पत्तियों का ही उपयोग करते थे. धुँआर की विशेषता यह है कि इससे भोजन तो सुपाच्य होता ही है, पेट में भोजन से अकारण पैदा होने वाली गैस भी नहीं बनती. साथ ही यह बाय-बात की बिमारी में भी लाभदायक होता है. Forgotten Kumaoni Spice in Traditional Cuisine
यह प्याज कुल के एलिएसी की एक प्रजाति है. इसके नजदीक के रिश्तेदारों में प्याज, लहसुन और हरा प्याज शामिल हैं. धुँआर शताब्दियों से खाने के मसाले और औषधीय उपयोग में आने वाला पौधा है. जिसकी जड़ में बहुत छोटी सी कली होती है. जो एक तरह का कंदमूल है और धुँआर का बीज भी है. इसकी पत्तियों का ही छौंके तौर पर उपयोग होता है. पतली और लम्बे आकर की हरी पत्तियों को छोटे – छोटे आकार में काटकर भी इसका उपयोग छौंके लिए उपयोग किया जाता है. इसका छौंक दाल व झोली – पल्यो को बहुत ही स्वादिष्ट बना देता है. इसके छौंक से गहत की दाल का स्वाद दोगुना हो जाता है. पहाड़ में कई स्थानों में इसे दुन व दुनू भी कहते हैं.
पहाड़ में ठंडी जगह पर पूरे साल इसकी पैदावार होती है. भाबर जैसी जगहों पर इसकी पैदावार केवल जाड़ों में ही ली जा सकती है. जाड़ों में इसकी पत्तियों को छोटे – छोटे आकार में काट कर छाया में सूखा लिया जाता है. जिससे धुँआर की पत्तियों का हरापन बरकरार रहता है. इन सूखी हुई पत्तियों का उपयोग ही गर्मी व बरसात के दिनों में छौंके के तौर पर किया जाता है. धुँआर के छौंके की खुशबू एक अलग ही तरह की होती है, जो अपने खुशबू के अहसास को हवा के झौंके से दूर तक पहुँचा देती है. Forgotten Kumaoni Spice in Traditional Cuisine
पहाड़ के गॉवों में भी बाजार द्वारा फैलाए गए विभिन्न तरह के मसाले पहुँच गए हैं, जिनकी वजह से धुँआर जैसे हमारे परम्परागत व स्थानीय मौसम के अनुसार उपयोगी मसाले कब रस्या (रसोई) से गायब हो गए, लोगों को पता ही नहीं चला. पहाड़ में कुछ गिने – चुने गांवों व परिवारों में ही धुँआर अब बचा हुआ है. भाबर में तो यह लगभग गायब ही हो गया है. आज की नई पीढ़ी से इसके बारे में पूछो तो वह कहती है, “यह क्या होता है?” मतलब ये कि धुँआर के छौंके का स्वाद तो दूर उसने इसका नाम तक नहीं सुना है. छां और दही में इसका छौंका लगा देने से इनकी ठंडी और बादीपन वाली तासीर खत्म हो जाती है. जो लोग छां व दही के ठंडी और बादीपन वाली तासीर के कारण इनका उपयोग करने से बचते हैं, वे भी धुँआर के छौंके के बाद इनका उपयोग कर सकते हैं.
हमने जिस तरह से बाजार आधारित मसालों को बिना सोचे – समझे अपने रोज के आहार का अंग बना लिया है, वह हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गया है. बाजार आधारित इन मसालों ने हमारी जीभ को भी चटोरा बना दिया है. अपने स्वास्थ्य को ठीक करने के लिए हमें स्थानीय स्तर पर अपने परम्परागत खान-पान और मसालों के उपयोग की ओर बढ़ना होगा.
आलेख एवं फोटो : जगमोहन रौतेला
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काफल ट्री के नियमित सहयोगी जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. अपने धारदार लेखन और पैनी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं.
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