वन आन्दोलन 1920-21 तक बेगार आन्दोलन का पूरक हो गया था. इन आन्दोलनों के व्यापक सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा मनोवैज्ञानिक परिणाम हुए. इनसे प्रान्तीय प्रशासन, राजनीति और स्वयं राष्ट्रीय संग्राम प्रभावित हुए थे. जंगलात के एक्टों के बाबत विशेष समिति बनी थी और एक प्रकार से न सिर्फ वनाधिकारों की बहाली हुई थी वरन वन पंचायतों का विचार भी जन्म ले सका था.
बेगार वन आन्दोलनों की सफलता उन्हीं सालों में हुई थी जब गाँधी ने असहयोग आन्दोलन बीच में ही वापस ले लिया था और खिलाफत आन्दोलन एक प्रकार से असफल होकर रह गया था. 1920-21 में संयुक्त प्रांत में अन्यत्र भी किसान आन्दोलन हो रहे थे लेकिन वे इतने सफल नहीं हो सके. अन्य किसान आन्दोलनों को एक प्रत्यक्ष निरन्तरता नहीं मिल सकी. आन्दोलन की इस प्रक्रिया का पूर्वार्ध यदि बेगार उन्मूलन था तो उत्तरार्ध वनाधिकारों की बहाली पर केन्द्रित था. गाँधी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लिये जाने पर कुमाऊँ के काश्तकार अनिर्णय के चौराहे पर न थे बल्कि वे वनाधिकारों की सफल बहाली के लिए एकताबद्ध हुए. स्थानीय समाज का आत्मविश्वास और अधिक गहरा तथा व्यापक हुआ. जागरण और आत्म सम्मान की असाधारण लहर ने औपनिवेशिक शासन के प्रति घृणा तथा आजादी की चाह को बढ़ाया. स्वयं अलमोड़े का डिप्टी कमिश्नर डायबिल इस आन्दोलन के कार्यक्रम और उद्देश्यों को क्रान्तिकारी तथा सरकारी प्रभुत्व को उखाड़ने वाला कहता था. धरमघर की एक मिशनरी ने तो डायबिल को यहाँ तक लिखा कि ग्रामीण जनता कहती है कि अंग्रेजी राज समाप्त हो गया है.
इस आन्दोलन में शिल्पकारों की अपेक्षित हिस्सेदारी नहीं हो सकी, जो कदाचित उत्तराखण्ड की उन्नीसवीं सदी की असंतुलित जागृति से जुड़ी थी. कुमाऊँ परिषद् में भी शिल्पकारों की वांछित हिस्सेदारी नहीं हो सकी थी.
बेगार तथा वन आन्दोलन की सफलता से चिन्तित ब्रिटिश सत्ता ने जब अप्रैल 1921 के बाद दमन तथा गिरफ्तारियां प्रारम्भ की तो इसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इन दो आन्दोलनों का जिक्र नहीं होता था बल्कि इसे राष्ट्रीय असहयोग का हिस्सा मान लिया गया था. 1 जनवरी 1921 से 4 मई 1921 की विस्तृत तालिका से तत्कालीन आन्दोलन का स्वरूप शैली, संगठन तथा नेतृत्व को समझा जा सकता है. यद्यपि मार्च 1921 में नेताओं द्वारा दौरे करने या सभा करने पर रोक लगाई गई और लक्ष्मीदत्त शास्त्री, बदरी दत्त पाण्डे, प्रयागदत्त पंत तथा कृष्णानन्द शास्त्री के व्याख्यानों पर धारा 108 में रोक भी लगी. लक्ष्मीदत्त शास्त्री को पिथौरागढ़ में खतरनाक व्याख्यान देने के कारण गिरफ्तार तक किया गंया था. मार्च 1921 के तीसरे सप्ताह में धारा 107 के अन्तर्गत मोहन सिंह मेहता की गिरफ्तारी हुई. 21 मार्च को वे अपनी मर्जी के विरुद्ध दी गई 6 हजार रुपये की जमानत पर छूटे. बहुत से कुली जमादार कुलियों को भड़काने के आरोप में नौकरी से निकाले गये. अनेक बन्दूक लाइसेंन्स जब्त किए गए और अनेक काश्तकार बेदखल किए गए.
10-11 अप्रैल 1921 को अलमोड़ा में कुमाऊँ परिषद् का विशेष सम्मेलन हुआ. दमन का तीव्र विरोध किया गया था. इस सम्मेलन में जंगलात नीति पर पुर्ननविचार की माँग भी की गई थी. इस साल सूखे का मौसम भी लम्बा रहा था. जंगल की हर आग का दोष -आन्दोलनकारियों पर लगाया गया. वनों के मामले में अनेक गिरफ्तारियां हुई. सोमेश्वर में तो दुर्गादेवी को जंगल में आग लगाने के आरोप में एक माह की सजा हुई. 246 लाख एकड़ जंगल नष्ट हुए. कल 819 वन अपराध किये गये. अलमोड़ा जिले में 549 व्यक्ति दंडित हो गए थे. इसी माह सत्यदेव पर धारा 144 लगी. अनुसूया प्रसाद बहुगुणा तथा केशरसिंह रावत ने उत्तरी तथा दक्षिणी गढ़वाल में हलचल मचाई हुई थी. गढ़वाल का डिप्टी कमिश्नर मेसन भी डायबिल की तरह परेशान और लाचार था.
2 मई 1921 को अलमोड़ा में हेमचन्द्र जोशी, चेतराम वर्मा तथा केदार दत्त शास्त्री के बोलने पर मनाही लगी नैनीताल की एक विशाल सभा को संबोधित करने पर बदरी दत्त पाण्डे तथा लक्ष्मीदत्त शास्त्री को धारा 144 का नोटिस दिया गया. मई दूसरे सप्ताह में ‘शक्ति’ से 6 हजार की जमानत मांगने के साथ कुछ सप्ताह ‘शक्ति’ का प्रकाशन बन्द भी हुआ. उधर चांदकोट के केसर सिंह रावत की गिरफ्तारी होने पर पुरुषोत्तम दास टंडन की अध्यक्षता में दोगड्डा (पौड़ी गढ़वाल) में विशाल सम्मेलन हुआ. देहरादून में सर्वे विभाग के बिहारी लाल को नौकरी से इसलिए निकाल दिया गया कि वे गाँधी टोपी पहनते थे. वे प्रखर आर्य समाजी तथा संग्रामी बने. जून 1921 के बाद गिरफ्तारियां, सभाएं सामान्य बातें हो गई थी. बेगार तथा वन आन्दोलन के अधिकांश कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां हुई. ‘अलमोड़ा अखबार’, ‘गढ़वाली’ तथा सबसे अधिक “शक्ति ने इस युग में जबर्दस्त आक्रामक रूप लिया. इसलिए 1921 से 1925 तक ‘शक्ति’ के अनेक संपादक गिरफ्तार किये जाते रहे थे. इस दौर में प्रान्तीय काउन्सिल में भी स्थानीय प्रश्न बहुत गंभीरता से तारादत्त गैरोला द्वारा उठाये जाते रहे थे. दिसम्बर 1921 में कुमाऊं परिषद् के एक और अधिवेशन में वन अधिनियम की धारा 178 रद्द करने और फसल तथा जीवन रक्षा हेतु हथियार प्राप्त करने के अधिकार बहाल करने की माँग हुई. शिकार खेलने पर लगे प्रतिबन्ध को उठाने की भी माँग हुई. गाँव की सीमा से लगे वनों से लकड़ी तथा घास लाने की छूट भी होनी चाहिए.
असहयोग आन्दोलन के बाद राष्ट्रीय स्तर पर एक उतार और तनाव का दौर था. ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध इस्तेमाल होने वाली ऊर्जा का बड़ा हिस्सा हिन्दू-मुसलमान दंगों में व्यय होने लगा. उत्तराखण्ड में दंगे फसाद नहीं हुए. हिन्दू मुस्लिम एकता का उच्च प्रदर्शन हुआ.
1 जनवरी 1922 को बागेश्वर जा रही जनता को पुलिस द्वारा रोके जाने का विरोध करने के कारण अलमोड़े में मोहन जोशी, हेम चन्द्र जोशी तथा मधु सूदन गुरुरानी को गिरफ्तार कर लिया गया. मोहन जोशी को फरवरी 1923 में भिकियासैण मेले में भाषण देने के कारण भी गिरफ्तार किया गया था. 1924 में संक्रान्ति के दिन उन्होंने बागेश्वर में दफा 144 तोड़ी. वे कोकीनाड़ा कांग्रेस से सीधे बागेश्वर पहुंचे थे. 1923 के प्रांतीय काउंसिल के चुनावों में बेगार तथा वन आंदोलनों का व्यपाक असर देखा गया. इस चुनाव में कुमाउं के नेताओं – हरगोविन्द पंत, गोविन्द वल्लभ पंत तथा मुकुंदी लाल ने क्रमशः कुंवर आनन्द सिंह, राय बहादुर बदरी दत्त जोशी तथा राय बहादुर जोध सिंह नेगी को बुरी तर पराजित किया और यही क्रम 1926 के चुनावों में हुआ जब क्रमशः गोविन्द बल्लभ पंत, बदरी दत्त पांडे तथा मुकुन्दी लाल ने रघुनन्दन प्रसाद/कुंवर भूपाल सिंह, राय बहादुर लक्ष्मी दत्त पांडे तथा सरदार नारायण सिंह को पराजित किया.
1923 में ही स्वराज्य दल का कुमाऊँ में गठन हो गया था और प्रान्तीय काउन्सिल को इस क्षेत्र से अत्यन्त प्रतिभाशाली सदस्य मिले.
मुकुन्दीलाल, गोविन्द वल्लभ पंत, हरगोविन्द पंत तथा बदरी दत्त पांडे ने स्वयं के अत्यन्त महत्वपूर्ण काउन्सिल सदस्य सिद्ध किया था. मुकुन्दी लाल बाद में काउन्सिल के उपसभापति बने तो गोविन्द बल्लभ पंत स्वराज दल के नेता. काउन्सिल की कार्यवाही से इन सदस्यों की सक्रियता, समझ और अपने इलाके की वस्तुस्थिति की गहन जानकारी का पता चलता है.
1925 में कुमाऊँ को गैर आयनी न रहने देने और दीवानी मामलों में इस क्षेत्र को हाईकोर्ट के अधीन रखने की माँग हुई. भावर के किसानों को मौरूसी हक देने तथा कुमाऊँ में औद्योगिक स्कूल खोलने की मांग भी हुई. मार्च 1926 में बजट चर्चा से पूर्व गोविन्द बल्लभ पंत ने काउन्सिल में जोरदार शब्दों में कहा कि यह सरकार जनमत की अवहेलना कर रही है. यह निर्जीव सरकारी ढाँचा बल प्रयोग के अलावा किसी प्रकार झुकना नहीं जानता है.
1926 में कुमाऊँ परिषद् का कांग्रेस में विलीनीकरण कर दिया गया यद्यपि बेगार का उन्मूलन हो गया था लेकिन जंगलात, नयाबाद, लाइसैंस, शिक्षा आदि के प्रश्न अभी भी अपनी जगह पर थे. इसलिये इस विलय के बाद भी उत्तराखण्ड के प्रतिनिधि 1930 में काउन्सिल से त्यागपत्र देने तक यहाँ के स्थानीय प्रश्नों को जिम्मेदारी से उठाते रहे.
उत्तर प्रदेश कांग्रेस का 20वां सफल अधिवेशन 1920 में काशीपुर में हुआ. यह पंडित पंत की सक्रियता का प्रमाण था. इन्हीं दिनों उन्होंने काकोरी कांड के क्रान्तिकारियों की सख्त पैरवी भी की. लेकिन 6 अप्रैल 1927 को रामप्रसाद विस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी तथा रोशन सिंह को फाँसी दे दी गई. 14 अन्य को 5 से 44 साल की सजा हुई. पंत ने उनसे सम्बन्धित कई प्रश्न काउन्सिल में भी पूछे.
पिछली कड़ी कुली बेगार आन्दोलन
मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक द्वारा सम्पादित सरफरोशी की तमन्ना के कुछ चुनिन्दा अंश.
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