सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्रों में स्थायी निवास के साथ-साथ प्रायः एक अस्थाई निवास बनाने का चलन है, जिसे छानी या खेड़ा कहा जाता है. इन छाानियों में कभी खेती-बाड़ी बढ़ाने के लिए तो कभी हवा पानी बदलने के लिए भी लोग निवास करते हैं. गांव यदि ऊँचाई वाले स्थान में होेते तो छानियां घाटी में बनाई जाती और गांव घाटी में हो तो छानियां ऊंची जगहों पर. यदि गांव न कम ऊंचाई और न घाटी में हो तो गांव से ही दूर छाानियां बनवा ली जाती है परन्तु गांव की सीमा के भीतर ही. (Dubli Ka Bhoot)
सुदूर क्षेत्र में एक गांव था झणकुला. उसकी छानियां गांव की पूरब दिशा में लगभग तीन मील दूरी पर थी. पहाड़ी पगडण्डी से होते हुये जब जाते तो दो पहाड़ियां और तीन-चार गदेरे पार करने होते. इसलिये गावं से छानी वाला इलाका दिखायी नहीं देता था. गांव के आसपास सिंचाई वाले खेत थे और छानियों के आसपास असिंचित भूमि. गांव में उपजाऊ सिंचित भूमि थी तो परन्तु पर्याप्त नहीं थी. इसलिये गुजर बसर के लिये असिंचित भूमि में भी फसलें उगानी पड़ती. कोदा, झंगोरा, कौणी, गहथ आदि मोटा अनाज.
गांव सुरक्षा की दृष्टि से कॉलोनी रूप में घना बसा हुआ था परन्तु छानियां दूर-दूर बनायी गयी थी. अपनी-अपनी छानियों के आसपास गांव वालों ने खूब पेड़ पौधे लगाये हुए थे. जेठ महीना खत्म होते-होते, जब सिंचाई वाले खेतों में धान की रोपाई कर ली तो परिवार के कुछ सदस्यों को छोड़कर बाकी सभी गाय, बैल, भैंस व अनाज आदि लेकर अपनी-अपनी छानियों के लिए प्रस्थान कर गये. अब पूरी बरसात के दिन छानियों में काटने थे. खाली जगहों पर पेड़-पौधे लगायेंगे, सब्जियां उगायंेगे और मोटा अनाज खेतों में बोयेंगे. बारिस यदि ठीक-ठाक हो गयी तो फसलें खेतों में खूब लहलहायेगी. सभी खुश होकर उत्सव मनाएंगे.
ब्राह्मण को पातड़ा (कुण्डली) दिखाकर, दिन-वार निकलवाकर हर साल की तरह रैचन्द भी अपनी गाय भैंसों को लेकर गांव वालों के साथ ही छानी चला गया. रैचन्द के परिवार में कुल दो ही सदस्य थे, वह और उसकी माँ. उसकी माँ बताती थी कि औलाद तो सात जलमी थी उसने पर केवल चार ही जीवित रह पायी – तीन बेटियां और आखरी औलाद रैचन्द. बेटियां बड़ी थी तीनो की शादी हो गयी.
शादी तो रैचन्द की भी हुयी थी परन्तु शादी के दो साल तक कोई संतान न होने पर पत्नी नाराज होकर मायके चली गयी, तो फिर लौटकर नहीं आयी. जाने क्या कमी थी और किसमें थी. कई बार खबर भिजवाई किन्तु वह नहीं लौटी तो नहीं ही. बीबी को मनाने वह गया नहीं, मर्द जो ठहरा. ‘औरत तो पैर की जूती होती है’ गांव के बड़े-बूढों ने उसे यही समझा रखा था. वैसे रैचन्द डील-डौल से तो ठीक-ठाक था किन्तु था वह वास्तव में निपट गंवार ही. पिछले साल पिता भी गुजर गए थे. अब परिवार में रह गए वह और उसकी माँ. उसकी माँ ने उसे काफी समझाया परन्तु हठी होने के कारण वह अकेले ही भैंसों को लेकर छानी चला गया. गांव के सभी बुजुर्ग लोग गांव में ही रहते थे क्योंकि गांव में मकान व शेष सम्पति की चौकीदारी भी जरूरी थी. गांव में माँ भी अकेली रह गयी.
रैचन्द हर हफ्ते-दस दिन में गांव आ जाता. कुछ देर माँ के साथ रहता, घर के काम निपटाता और राशन पानी लेकर शाम को वापिस छानी लौट जाता. इधर सबने गौर किया कि छानी में जहाँ लोगों की सेहत बनती है, वहीं रैचन्द दिनो-दिन कमजोर होता जा रहा था. सब उसे दुबला, दुबला कहने लगे. माँ को चिंता होनी स्वाभाविक थी. जानना चाहा तो रैचन्द हर बार टाल जाता. गांव वालों की तर्ज पर माँ भी उसे अब दुबला और अति लाड़ में ‘दुबली’ कहकर पुकारने लगी तो वह गांव में ‘दुबली’ नाम से ही प्रसिद्ध हो गया. एक दिन माँ ने अपनी कसम देकर उससे उगलवाया तो सुनकर दंग रह गयी.
दुबली ने माँ को बताया कि उसकी छानी में रोज अन्धेरा होते ही एक भूत आता है. दुबली जो भी काम करता है भूत उसकी नक़ल जरूर उतारता है. वह भैंस दुहता है तो भूत बगल में बैठकर भैंस दुहने का उपक्रम करता है, वह रोटी बेलता है तो भूत भी रोटी बेलने की नकल करता है, रात को शरीर पर जब तेल मालिश करता है तो भूत भी वही करता है. वह भूत से डरता कतई भी नहीं है और न ही भूत उसे कोई नुकसान पहुंचाता है. लेकिन वह फिर भी पता नहीं क्यों कमजोर होता जा रहा है. माँ ने दुबली को चुपचाप कुछ समझाया और निश्चित होकर छानी जाने को कहा.
दुबली अर्थात रैचन्द शाम को छानी लौट आया. हर रोज की तरह वह जो जो करता रहा भूत भी उसकी नकल करता रहा. खाना खा लेने तथा सारे काम निपटाकर दुबली ने तेल की कटोरी निकाली और पास बैठे भूत के आगे माँ की दी हुयी लीसे; चीड़ के गोंद की दूसरी कटोरी खिसका दी. दुबली शरीर पर तेल की मालिश करता रहा और भूत लीसे की. फिर दुबली ने रुई से शरीर को पोंछा और भूत के आगे माँ द्वारा दी हुयी कपास रख दी. भूत कपास से शरीर पोंछने लगा जो हाथ में कम आयी और लीसे के कारण शरीर पर अधिक चिपकती गयी. फिर दुबली चीड़ के जलते छिलके से अपना शरीर गौर से देखने का नाटक करने लगा- कि तेल की मालिस भली-भांति हुयी या नहीं. भूत ने भी वही किया तो उसके शरीर पर लगा लीसा और कपास आग पकड़ गया. भूत चिल्लाते हुए बाहर की ओर भागा और दहाड़ मार कर रोने लगा कि ‘दुबली ने मुझे जला दिया, दुबली ने मुझे जला दिया…’ भागते-भागते भूत अपने को बचाने के लिये दो मील नीचे घाटी में बह रही नदी में कूद गया.
घनाघोर अँधेरी रातों में घाटियों से टकराती हुयी भूत की दहाड़ें वर्षों तक लोगों ने सुनी, परन्तु भूत लौटकर छानी में कभी नहीं आया. सैकड़ों साल बीत गये किन्तु आज भी जब कभी झणकुला गांव के लोग अपनी छानियों में जाकर रहते है तो भूत का रोना रात को कभी-कभार सुनाई देता है. भूत को दुबली ने मार भगाया था इसलिये लोग आज उस इलाके में लोग उसे ‘दुबली का भूत’ नाम से जानते हैं. बचपन में गौरेया हमारे जीवन में रची-बसी थी
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देहरादून में रहने वाले शूरवीर रावत मूल रूप से प्रतापनगर, टिहरी गढ़वाल के हैं. शूरवीर की आधा दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपते रहते हैं.
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