भरपूर चढ़क रूढ़ (गर्मी) पड़ रही थी. माटु, ढुंगी, पेड़, पत्ती, अल्मोड़ी, घिलमोड़ी, पौन-पंछी, कीट-पतंगारे, सांप-बाघ सब रूढ़ से बेहाल. सरग में दूर-दूर तक बादल का एक छींटा तक नहीं दिख रहा था. बिचारे पेड़-पौधों को छोड़ कर सब छैल के पीछे-पीछे भागते मारे-मारे फिर रहे थे. धारे-पंदेरो में बिनसर से रुमुक तक सब पाणि-पाणि की गुहार लगाते, पर तीस थी कि बुझने में नहीं आती.
ऐसे रूढ़ में भी पहाड़ों की एक पराणी जो सब घरों में होती, जिसका होना काम का होना था, जिसे सब ब्वारी (बहू) कहते थे, आने वाले चौमास की फिकिर में झुरझुर झूरती. करड़ी रूढ़ के बाद जब चौमासे की झड़ी लगती न तब ऐसे बहुत से काम थे जो हो ही नहीं सकते थे.
जैसे सट्टी (धान) झंगोरा कूटने के उरख्याले बारिश से गीले रहते. गेहूं, कोदा पीसने से पहले बिना घाम के बिसगुण (कूटने पीसने का अनाज) कैसे सुखाते. तो ये भरपूर रूढ़ बसगुण को कड़कड़ा सुखा देती. कूटने-पीसने को घर की बेटी-ब्वारियां गर्मियों के इन दिनों की झुसमुसी बिन्सरी में बियाणा आने से पहले उठ जाती और घमाघम चार-छै घाणे कूट देती.
जिनके घरों में दो कुटदारी होती, दो गज्याली एक सुर में हुशह-हुशाह करती, ले धमाधम घाम आने से पहले चार छै पाथे नाज कूट कर कुठार में धर देती. जो अकेली होती उसकी सास पड़ोसन की सैर करती, ब्वारि को सुनाती – द फलाने करौंका तो चौमासे के लिए पूरा कुठार भर गया बल. हमारा क्या होगा ब्वेई. हुआ न ब्वारी का किया धरा सब एक किनारे!
ऐसी ही एक इकलवांस ब्वारी की बात है. सच्ची-मुच्ची की. किसने किसको सुनाई. किसकी दादी की नानी ने अपनी परदादी से सुनी इसका गति, तिथि में कहीं कोई जिक्र नहीं है पर इतिहास तो है ही. कहा-कहाया, सुना-सुनाया. लोक जिन्दा रहेगा तो कहा-कहाया भी ज़िंदा रहेगा. अब तक कहा है आगे भी कहा जायेगा. और पहाड़ों की वो पराणी तो तब भी थी और आज भी अपने होने की गवाह है.
हाँ तो दिनभर दस पाथे सट्टी सुखाने के बाद दूर दीवा के डाण्डे के पार जब सास को दो लंगेती सफेद बादलों की डोलती नजर आई तो बुढ़िया को कौ बौ लग गयी. हे ब्वेई बैशाख का महीना तो जाता ही है. क्या अर हमार बिसगुण जन का तन रहता है अब. क्या जो होलु न त कुटुयुं अर न पिस्युं. मांड बी कहाँ से पीना बल.
ब्वारी बिचारी चुप. क्या जो जबाब दे. उसने टप्प अपनी सिराणी में टोप मार दी. दिन भर कमर टूट गयी काम करते. बोझा ढोते चुफ्फे के बाल खुरसै गए अर इस बुढ़िया का काम अब तिथाणे (श्मशान) पर जा की ही धौ होगा. बहू की आँखों से दणमण अंसधरी चूने लगी. कड़वे तेल से चिपचिपी उसकी सिराणी को रोज ब्वारी के आंसू पीने की आदत पड़ गयी थी. बेजान सिराणी ने अपने बीच में थोड़ी सी गोल जगह खाली कर ब्वारी के सर को सहलाया सो जा बाबा सुबेर मै तुझे भोर का तारा उगने से पहले ही जगा दूंगी.
स्नेह की छुअन ने ब्वारी की आँखों को झपका दिया. जाने क्या बगत रहा होगा अचानचक उसकी आँखे खुल गयी. वो चम्म से उठी और नाज की बीठाली उठा कर उरख्याली की तरफ चल दी. बेजान सिराणी रोकती रह गयी पर काम के बोझ से दबी ब्वारी कहाँ रुकती.
उरख्याली में नाज के ऊपर गंज्याली की धमाधम से दिन भर गर्मी से कुम्हलाये पेड़-पौधे असमय उठाये जाने पर अचकचा कर कुनमुनाने लगे. पौन-पंछियों ने नींद से भारी आँखें खोलने की कोशिश में आसमान की तरफ देखा अरे अभी तो आधी रात है. ये इंसान भी न अजीब ही पराणी होते है. करने दो जो करते हैं और अपने पंखों में मुंडी डाल के मस्त सो गए. गंज्याली की लय और मेहनत से फूलती साँसों को गंज्याली की ताल से मिलाती ब्वारी के मुँह से निकलती हुशह हुशह की आवाज उन्हें लोरी सुनाने लगी.
ब्वारी अपने काम की धुन में मस्त थी उसे सुबह तक सारा नाज कूट देना है बस यही सोच के ले धमाधम जोर से हाथ चलने लगती. इतने में क्या सुनती है कि खरगड़ के पल्ली छाल जोर से टौखने (अजीब किस्म की चीख) की आवाज आ रही है. उसने ज्यादा ध्यान नहीं दिया. अपनी धुन में कूटती रही. दूसरी टौख नजदीक आ गयी. तीसरी और नजदीक और चौथी ठीक खेतों के नीचे.
वो समझ गयी कि अभी आधी रात है. काम के बोझ की बैचेनी में उसने ये भी नहीं देखा की बिएणा नहीं आया. खाट खटुली (सप्तऋषि) कहाँ पर है. ये आवाज अऐड़ी की है. अब क्या करे. हे भूम्याल, हे नागर्जा, हे भैरऊँ, हे कुल देव नरसिंगा, हे मेरी ब्वेई. सबको याद करती जब उसे अपनी माँ याद आई तो ये भी याद आया माँ कहती थी कोई भी छल-छपेट कभी भी जानवरों के पास नहीं आता. ये बात याद आते ही वो एक ही छलांग में दोनों बैलों के बीच जा कर बैठ गयी.
इधर अएड़ी उरख्याले में किसी को न देख कर बहुत बिकराल हो गयी. अबी यखम छै अबी कख ग्या. ले लगा नाज की छत्तारोली. छट्टी बत्ती. इतने में भोर का तारा निकल आया. पौन-पंछी उठ गए. एक चखुली भूमि पूजन करने लगी पृथ्वी भ्यौ नमो.
अएड़ी तो ये जा और वो जा. ब्वारी ओबरे से बाहर आई उसने अपने मायके के डाण्डे को, दोनों बैलों को, बिएना को, और पृथ्वी भ्यौ नमो का गीत गाने वाली उस चखुली को माथे पर हाथ लगा कर धन बोला जिनके कारण वो आज फिर दुनिया में जीने के लिये मौजूद थी.
-गीता गैरोला
देहरादून में रहनेवाली गीता गैरोला नामचीन्ह लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. उनकी पुस्तक ‘मल्यों की डार’ बहुत चर्चित रही है. महिलाओं के अधिकारों और उनसे सम्बंधित अन्य मुद्दों पर उनकी कलम बेबाकी से चलती रही है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगी.
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गीता दी नमस्कार,
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