न तराई-भाबर में रहने वाले इंसानों को अंदाजा था न यहां के घनघोर बियावान में रहने वाले जानवरों को कि पिछले कुछ सालों से जंगल में हो रही खटर-पटर का नतीजा क्या होना है. फिर आया 24 अप्रैल 1884 का दिन. चौहान पाटा में बना रेलवे स्टेशन भीड़ से ठस था. आगे गोरे अंग्रेज थे पीछे-पीछे गरीब भारतीय. भाबर के जंगलों से होता हुआ धुआं छोड़ता हुआ बहुत बड़ा सा लोहे डिब्बा चलता हुआ आया. सुबह से पहली बार रेल देखने आई पहाड़ी जनता को कुछ समझ न आया. इतने बड़े चलते हुये लोहे के डिब्बों को देखकर लोग डर गये और भीड़ भागने लगी. इस तरह पहली बार 24 अप्रैल 1884 को काठगोदाम में पहली ट्रेन लखनऊ से आई.
(First Train Reached Kathgodam)
शुरुआत में काठगोदाम से ज्यादातर मालगाड़ियाँ ही चला करती थीं. बाद में सवारी गाड़ियाँ भी चलायी जाने लगीं. सवारियों की खासी तादाद को देखते हुए धीरे-धीरे इसे देश के कई प्रमुख शहरों से जोड़ दिया गया. उस समय यहाँ से तक छोटी रेल लाइन (मीटर गेज) बिछायी गयी. 4 मई 1994 को यहाँ से बड़ी रेल लाइन (ब्रॉड गेज) पर ट्रेनों का सञ्चालन शुरू किया गया.
चन्द शासन काल में काठगोदाम गाँव को बाड़ाखोड़ी या बाड़ाखेड़ी के नाम से जाना जाता था. उस दौर में यह एक सामरिक महत्त्व की जगह हुआ करती थी. उन दिनों गुलाब घाटी से आगे जाने के लिए किसी तरह का रास्ता नहीं था.
बहुत वर्षों के इन्तजार के बाद मई 1994 के प्रथम सप्ताह में काठगोदाम से रामपुर बड़ी रेल सेवा चालू हो सकी. 126 साल से कुमाऊँ क्षेत्र के लोगों को लाने ले जाने वाली नैनीताल एक्सप्रेस 31 दिसंबर 2011 को अपने आखिरी सफ़र पर रवाना हुई. भाप के इंजन से डीजल इंजन तक सफ़र पूरा करने के बाद नयी पीढ़ी के लिए बड़ी रेलवे लाइन का रास्ता छोड़ दिया.
(First Train Reached Kathgodam)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी-स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर
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