अल्मोड़ा जिंदगी में नमूदार हुए कुछ उन शहरों में रहा जिन्होंने न केवल प्रभावित किया बल्कि अंदर तक हिलाया भी. (Famous Ramlila Tradition of Almora)
अल्मोड़ा बिना अभिभूत किए छोड़ता नहीं है. शहर और यहां के बाशिंदों दोनों में एक दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ मची रहती है. हालांकि बाशिंदों के बिना शहर और शहर के बिना बाशिंदों की कल्पना निरी कल्पना होती है और कुछ नहीं. (Famous Ramlila Tradition of Almora)
शहर और बाशिंदे, मिलकर एक कल्चर का निर्माण करते हैं और कल्चर की बात आए तो अल्मोड़ा को उत्तराखंड की बौद्धिक, सांस्कृतिक राजधानी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.
किसी भी स्थान का कल्चर अपने आपको हजार-हजार रूपों में प्रकट करता है. उनमें हर रूप का महत्व वहीं तक महत्वपूर्ण है जहां तक आपकी संवेदना और बौद्धिक विस्तार में उसे समझने की क़ाबिलियत हो.
अल्मोड़ा की रामलीला अल्मोड़ा की सर्वसमावेशी संस्कृति का सबसे बड़ा चेहरा है.
नगर में दसियों जगह रामलीला का आयोजन होता है. हर जगह का अपना-अपना स्कूल है. हर रामलीला की शैली, संवाद, प्रस्तुतीकरण एवं अभिनय बगल वाली रामलीला से एकदम अलग. हालांकि इस अंतर को प्रथम दृष्टया समझा नहीं आ सकता परंतु यह होता अवश्य है, जो बिना किसी अल्मुड़िये का साथ लिये समझ नहीं आता.
नगर के चारों तरफ भिन्न-भिन्न विचारधारा और भिन्न सामाजिक ताने-बाने के साथ बसी बस्तियां और मोहल्ले अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता और कल्चरल ओरिजिनेलिटी को ज्योग्राफिकल इंडेक्स बनाने में लगे रहते हैं.
इस सांस्कृतिक पहचान का आरंभ होता है तालीम से. जी हां. हर “स्कूल ऑफ रामलीला थॉट“ की अपनी-अपनी तालीम होती है. अमूमन अगस्त महीने के आखीर और सितंबर के प्रारंभिक दिनों में आरंभ होने वाली तालीम के प्रत्यक्षतः चार उद्देश्य होते हैं- पहला अनुभवी कलाकारों के द्वारा नए रंगरूटों को ट्रेनिंग देना, दूसरा शहर में रामलीला का माहौल बनाना, तीसरा किसी नए प्रयोग की स्वीकार्यता और उसके प्रक्षेपण का प्रयोगशाला परीक्षण करना, चौथा “बारिश में कहां जाऐं“ जैसे सार्वकालिक प्रश्न का सही उत्तर खोजना.
तालीम के लिए बाकायदा स्थानीय समाचार पत्रों में खबरें प्रकाशित होती हैं. तालीमी इदारे अपने-आप को सांस्कृतिक रूप से उच्च सिद्ध करने के लिए कभी भी मर्यादा, गरिमा और तमाम पुरानी लक्ष्मण रेखाओं को नहीं लाँघते हैं.
राग-रागनियां, तबले की थाप, बॉडीलैंग्वेज, उच्चारण, भावभंगिमा, टोन का उतार-चढ़ाव से लेकर बैकस्टेज, लाइट, साउंड, डायलाग डिलीवरी से लेकर फाइनल एक्शन तक का सारा रिहर्सल इन्हीं तालीमी बैठकों में बड़े गूढ तरीके से संपन्न किया जाता है. ठीक कुश्ती की प्रैक्टिस की तरह. अगर किसी तालीम दिए जाने वाले घर के आस-पास से कोई निकल रहा हो तो उसका प्रैक्टिस की आवाज सुनकर डरना, चौंकना और कभी-कभी दुम दबाकर भाग लेना स्वाभाविक है.
तालीम के बाद नंबर आता है फंड कलेक्शन और आवश्यक सामान खरीदने की बारी का, जिसमें अल्मोड़ा के सुधीजन श्रद्धानुरूप योगदान करते हैं, जिसकी वजह से यह तालीमी स्कूल चलते आ रहे हैं.
सन अठारह सौ पचास के लगभग बदरेश्वर में रामलीला का आरंभ हुआ तो यह अल्मोड़ा के लिए एक चौंका देने वाली बात नहीं थी, क्योंकि हल्द्वानी में रामलीला उससे भी पहले से होती आ रही थी.
जी. आई. सी., हुक्काक्लब, मुरलीमनोहर, नंदादेवी से लेकर पोखरखाली, कर्नाटकखोला, खत्याड़ी, रजपुरा सब में अलग-अलग तरीके की रामलीला.
कहते हैं कि मुरलीमनोहर की रामलीला, प्रबंधक कमेटी और कलाकार एसोसिएशन के झगड़ों के चलते बंद हो गई. मुद्दा खोजने पर पता चला की फंड का नवाचार के नाम पर दुरुपयोग. हालांकि इसकी सत्यता संदिग्ध है.
अल्मोड़े की रामलीला पर स्थानीयता का प्रभाव मात्र आंशिक है. पूरे संवाद ब्रज और हिंदी में होते हैं .एक विशेष तथ्य यह है की अल्मोड़ा की रामलीला के संवाद मूल रूप से पद्य में होते हैं, जबकि मैदानी क्षेत्रों में संवाद गद्य और पद्य मिश्रित.
आमतौर पर राधेश्याम रामायण के प्रसंगों, जयजयंती, देशराग खमाज, बिहाग और राग जंगला आदि जैसे सरल और कर्णप्रिय रागों के साथ खड़ी चैपाई और सादा चैपाई में संवाद कहे जाते हैं. विशेष रुप से रावण के संवाद खड़ी चैपाई में बोले जाते हैं, ऐसे तमाम रामलीला के पात्र जो अपनी बोल्डनेस और ताकत के लिए जाने जाते हैं, अपने संवाद खड़ी चैपाई में सांस खींचकर, पंचम स्वर में एक खास लचक के साथ बोलते हैं. पंचम स्वर की तीव्रता में लचक का निबाह आसान नहीं होता फिर भी अल्मोड़ा में संभव है.
राजपुरा की रामलीला सारे अल्मोड़े से अलग है. इस अलगाव के पीछे मूल कारण अलगाव से उत्पन्न विद्रोह एवं इस विद्रोह से उत्पन्न ताप है. सामाजिक ताने-बाने में बसी कुरीतियों को उसी स्तर पर जाकर पटखनी देना और अपने भावों को प्रकट करना, इन मोहल्लों की रामलीला की खास पहचान है.
एक नवाचार और देखने को मिलता है की कथ्य को प्रकट करने के लिए शब्द, सुर, लय, तान को कहीं से भी आयात करने में कोई गुरेज नहीं होता हैं, यह उस सांस्कृतिक वर्जना को तोड़ने के साहस का प्रतीक है जो सदियों से मगज को जकड़े हुए थे.
किरदार के लिए तमाम प्रकार की नैतिक सामाजिक वर्जनाएं अपने-आप तय हो जाती हैं. मसलन रामलीला के तालीमी अखाड़े की मिट्टी बदन पर लगते ही जमूरे का बीड़ी, सिगरेट, दारु, बीयर सब बंद. एकदम बंद. कलाकारों की हालत को एक स्थानीय कहावत में व्यक्त किया जा सकता है-
“कोई नचावे हरूली, कोई नचावे परुली हमें क्या“
रामलीला कहने को तो राम की लीला मात्र है पर इस लीला के माध्यम से शहर अपनी सांस्कृतिक एकनिष्ठता के साथ गहन आत्मिक संवाद स्थापित करता है जो एक खास किस्म की महीन से भी महीन सांस्कृतिक धरोहर आने वाली पीढ़ी को सौंपकर खुद को बचाये रखता है.
रोजमर्रा की जिंदगी में पत्रकार, डॉक्टर, व्यापारी, नौकरीपेशा, ठेली लगाने वाले रात को कैरेक्टर में घुसकर एकदम समाजवादी हो जाते हैं. कोई किसी से बड़ा नहीं, कोई किसी से छोटा नहीं. एक संस्कृति से रात भर रूबरू होने का नाम है रामलीला. रामलीला जिसमें भाव है, ताप है, षड्यंत्र है, संगीत है, सृष्टि है, विनाश है, वध है, और कहा जाए तो जिसमें अल्मोड़ा में यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक धरोहर बनने का माद्दा रखने वाली अल्मोड़ा की रामलीला, अल्मोड़े को और अल्मोड़ा रामलीला को बस ऐसे ही पकडे-जकड़े रहे यही दुआ है.
आमीन.
विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं.
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4 Comments
dipesh kumar
बहुत ही शानदार तरीक़े से लिखा है सर आपने. अपनी भाषाशैली के द्वारा शब्दों के द्वारा सजीव चित्रण देखने को मिलता है. शब्दों का ऐसा सधा हुआ चित्रण किया गया है कि चित्रण एक सजीव नज़ारा लगता है. आप ऐसे ही अलमोडा के लिये लिखते रहें यही दिल से शुभकामनायें हैं
Anurag Mishra
अल्मोड़ा की आंचलिक संस्कृति प्रस्तुति अच्छी है लेकिन पूर्णविराम जैसे हिन्दी के नियमों का प्रयोग उचित होगा, अन्यथा हिन्दी से कटाव महसूस होता है। लेखन में गहराई प्रशंसनीय है।
Raj Pushp
मेरा लेखक महोदय से व्यक्तिगत परिचय है आपने कम समय में ही अल्मोड़ा को बहुत सुंदर समझा है
Kailash singh garia
किसी विशेष सँस्कृति को शब्दों के द्वारा अविव्यक्ति का अद्वतीय प्रयास,,बहुत ही लंबे अरसे से आपका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सानिध्य मिलता रहा है परन्तु लेखनी पर ऐसा प्रचंड और खूबसूरत आधिपत्य को देखकर अभिभूत हूँ,,,
अल्मोड़ा की रामलीला को बहुत ही सरल और सहज शब्दावली से सजाकर जिस खूबसूरती के साथ आपने परोसा है वाकई बहुतई लज़ीज़ और लाजवाब है,,,
आपकी लेखनी के जादू के दीदार बस यूं ही होते रहें,,
….आमीन