एक फलसफा कहीं सुना था कि जिंदगी में और दफ्तर में कुछ भी फालतू (Faltu Sahab of Almora) नहीं होता पर अल्मोड़े में कचहरी में एक चीज ऐसी थी जिसे उसके यार अहबाब फालतू साहब कहते थे.
अमिताभ बच्चन की स्टाइल में बीच से मांग निकाले मझोले कद काठी वाले मुंह में पान खोंसे रहने वाले साहब ही फालतू साहब थे.
जिले में किसी अधिकारी को पैदल करना कलेक्टर के हाथ में उतना नहीं होता जितना कि अपने ही नायब कलेक्टर को पैदल करना. कलेक्टर साहब की भृकुटी जिस डिप्टी कलेक्टर पर चढ़ी उसी को फालतू बना दिया.
फालतू का शालीन अर्थ अतिरिक्त मजिस्ट्रेट और गैर शालीन अर्थ लफत्तू मजिस्ट्रेट हुआ जिसे उसके दो चार निकट के लोग फालतू साहब भी कहते हैं. धीरे धीरे परंपरा चल निकली और फालतू साहब व्यापक रूप से प्रयोग किए जाने वाला शब्द हो गया. पीठ पीछे तो अर्दली ,चपरासी ,पेशकार ,कानूनगो तक भी पहले दबी जुबान में फिर थोड़ा कम दबी जबान में मौके बे मौके साहब को फालतू कहने से ना चूकते.
सूचना क्रांति की औलाद मोबाइल में तो कभी-कभी लोग साहब का नाम “फाo साo” भी सेव कर लेते थे. अरे भाई क्या यह ठीक है कि जो आदमी खुद साहब के फेर में फंसकर फालतू हो गया हो उसका नाम फांस या फालतू रख दिया जाए.
अल्मोड़ा में हमारे साहब बस नाम भर के ही फालतू थे वैसे तो वह बहुत काम के थे. हां, शेरो शायरी के साथ और कभी किसी से हुए इश्क ने निकम्मापन ला दिया था सो वह बड़े साहब की नजरों में मुकामी नहीं बन सके. हां बाद में बड़े साहब जो खुद फालतू साहब की नजरों में सबसे बड़े फालतू थे के हटते ही फालतू साहब को बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियों से नवाजा गया.
झोली, डुबके और टपकिये के बहाने अल्मोड़े के खाने के अड्डों की सैर
बकौल फालतू साहब फालतू होने का अपना एक मजा है. इस मजे में उनके कुछ सिद्धांत बना दिए थे जो शॉर्टकट में “पी पी पी” के नाम से जाने जाते थे. पहली नजर में यह “पी पी पी” पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप समझ आता था. पर ऑल टाइम “पी पी पी” मोड पर रहने वाले साहब के मुताबिक यह पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप ना होकर “पान पानी पेशाब” था.
पानी पिया, फिर पान चबाया, फिर कुछ देर में उधर को चले गए. फिर थोड़ी देर में आकर पानी पिया फिर पान चबाया और फिर उधर को चले गये. दिन भर इस रूटीन को बनाए रखने के कुछ फायदे साहब की नजर में थे.
नंबर एक पानी आपके मगज को ठंडा रखेगा जिससे फालतू का गुस्सा नहीं आएगा क्योंकि बिना ओहदे के गुस्से का ना तो कोई लोड लेता है और ना ही कोई परवाह करता है. खुद की नजरों में डॉबरमेन बने भौंकते रहो.
नंबर दो पान जब तक मुंह में रहेगा तब तक आप खामोश रहेंगे और जब खामोश रहेंगे तो बड़े साहब के खबरी आपके मुंह से कोई बात नहीं चुरा पाएंगे और आप भी बचे रहेंगे.
नंबर तीन पेशाबघर चूंकि दूर है सो एक बार जाने पर आधी पूरी कचहरी के हालचाल का पता चल जाता है. एक चौथाई किलोमीटर की वॉक भी हो जाती है जो घुटनों और कमर के लिए ठीक भी है. इसके अलावा उस तरफ जाने का मतलब है कि आप बीस मिनट के लिए फालतू के दफ्तर से मुक्ति .
क्या कमाल का फंडा है अगले का. वाह! फालतू रह कर अपने आप को सबकी नजरों में प्रासंगिक बनाए रखने का इससे अच्छा नवाचारी प्रयोग मुझे समझ में नहीं आया. क्या खूब निकाला “पान पानी पेशाब पी पी पी”!
दिन भर मगर यह राउंड 6 बार भी चल गया तो आप 3 घंटे के लिए दफ्तर से मुक्त. कैरियर की वह स्थिति जिसमें दफ्तर बिना काम के, नाम के, दाम के आप का फालतू में खून चूसे, उससे बचने का कितना शानदार सरल उपाय ढूंढा था फालतू साहब ने.
जिंदगी में, सबकी जिंदगी में किसी न किसी स्तर पर कुछ समय ऐसा आता है जब व्यक्ति अपने आप को फालतू समझने लगता है. फालतू होना समय और संसाधन दोनों पर किया जाने वाला अत्याचार है मगर सिस्टम में कुछ ऐसा है कि बड़ा साहब किसी को भी डी-रेल कर देता है यहां तक कि दूसरे को फालतू बनाने के चक्कर में कभी कभी खुद बड़ा साहब भी फालतू हो जाता है.
देखा गया है कि जो जितना बड़ा साहब उसका फालतू पना या लफाड़ीपना उतनी ही उच्च श्रेणी का. फालतूपने से निपटने के लिए पीपीपी मोड का आविष्कार सबके बस की बात नहीं होती है. इसके लिए कुछ दोस्तों को साथ रखकर उनके चाय चखने का इंतजाम करना पड़ता है तब कहीं जाकर कोई फालतू फालतू साहब बनता है. अतिरिक्त मजिस्ट्रेट तो कोई भी बन सकता है पर अतिरिक्त मजिस्ट्रेट से फालतू साहब की गौरवशाली उपाधि पाने के लिए “पान पानी पेशाब” तीनों चाहिए. एक भी कम हुआ तो फालतू साहब गया. काम हो या ना हो इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता.
वैसे भी काम करने वाले कर्मचंद को अक्सर रायचंद के हाथों पीठ में खंजर उतार देने से शहीद होते हुए देखा गया है. फालतू साहब करमचंद और रायचंद दोनों से ऊपर होते हैं. करमचंद के फालतू कामों और रायचंद के फालतू मशविरों से ऊपर बहुत ऊपर इन का अपना ही ब्रह्मलोक होता है जिसमें सुनाई पड़ने वाले ताने साक्षात इंद्रलोक का सुख देते हैं.
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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