मकर संक्रांति, कुमाऊँ हिमालय में मूलतः कौवों की अवाभागत का त्यौहार है. यहाँ यह दिवस ‘काले-कौवा’ त्यौहार के रूप में मनाया जाता है. पहाड़ों में हाउस क्रो, जिसे ग्रे-नेक्ड क्रो भी कहा जाता है, प्रायः बहुत कम दिखाई देता है. यहाँ मिलने वाला बड़े आकार का काला कौवा ‘रेवन’ है, जिसके पूर्वजों ने शताब्दियों पहले जंगल को कमोबेश छोड़ कर मनुष्यों की आबादी वाले क्षेत्रों में रहने का निर्णय लिया होगा. रेवन की औसत आयु दस-पन्द्रह साल की होती है.
(Falling Number of Crows)
मकर संक्रांति के दिन कुमाऊं के हर घर में मीठे आटे को शकरपारे तथा लोक-जीवन से जुड़े कई प्रतीकों जैसे- दाड़िम के फूल, ढाल-तलवार, डमरू इत्यादि की शक्ल देकर तला जाता है. घर की महिलायें फिर इन्हें उरद की दाल के बड़े, मूंगफलियों और अन्य खाद्य सामग्रियों के साथ पिरो कर एक माला की शक्ल देती हैं, जिसके मध्य में इन दिनों पहाड़ों के हर घर में होने वाली ‘नारंगी’ के फल को एक पेंडेंट के रूप में लटकाया जाता है.
रात भर किसी खूंटी में लटकती इन मालाओं को अगली सुबह पिठिया (तिलक) लगा कर तैयार हुए बच्चे, गले में डाल कर घर के दालान में इकट्ठा हो जाते हैं. फिर शुरू होता है कौवों को आमंत्रित करने का कार्यक्रम. सारा वातावरण ‘काले काले खजुरा खाले’ या फिर ‘ले कौवा फुल्लो मकें दिए भाल-भाल धुल्लो’ (कौवे तू फूल ले जा और मुझे अच्छा सा दुल्हा देना) जैसे सीधे-सरल आमंत्रण से गूंजने लगता है. मुझे अपने बचपन की याद है, कौवे कभी हमें निराश नहीं करते थे. चपटे पत्त्थरों वाले आँगन में बिखेरे गये तले हुए पकवानों के टुकड़ों को वह एक-एक कर बीन लिया करते थे.
इस वर्ष बहुत सालों के बाद ‘काले कौवा’ के त्यौहार पर घर पर ही था. पहाड़ों में आज भी इस त्यौहार को पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है. पर कौवे इस बार दिखाई नहीं दिये. बच्चे थोड़ी देर ‘काले-कौवा काले- कौवा’ पुकारने के बाद अपनी माला में गुंथे पकवानों को स्वयं ही खाने लगे थे, और अपने पीछे बहुत से प्रश्नों को छोड़ता हुआ यह त्यौहार पूरा हो गया. कहाँ गए हमारे बचपन में सहज ही दिखाई देने वाले वो ढेर सारे कौवे?
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माघ के महिने की ठिठुरा देने वाली ठण्ड में जब खेत-खलिहानों में कुछ नहीं होता, जंगले उनींदे से रहते हैं और पहाड़ी गाँवों की छुट-पुट आबादी ठंड और बर्फबारी के चलते घरों में दुबके रहने को मजबूर होती है. पंछियों के लिए अपने अस्तित्व को बचाए रखना एक चुनौती ही होती होगी. शायद इसी कारण लोक-जीवन से घनिष्ठ रिश्ता रखने वाले कौवों को ध्यान में रख इस त्यौहार की शुरुवात अतीत में कभी हुई होगी. पर भीषण ठण्ड में भी हमेशा गावों-कस्बों के आस-पास बराबर मौजूद रहने वाले कौवे अचानक ही क्यों चले गए?
इस सन्दर्भ में जब जानकारी जुटाने की कोशिश की तब पता चला कि गौरैयाओं के बाद शहरों-कस्बों से कौवों का गायब होना सारी दुनिया के पक्षी-प्रेमियों को परेशान करने वाला एक ऐसा प्रश्न है जिसका निश्चित उत्तर दिया जाना अभी शेष है. गौरैयाओं ने तो अब फिर भी घर वापसी शुरू कर दी है, पर इंसान का पुराना दोस्त कौवा फिलहाल रूठा हुआ है. उल्लेखनीय है कि कौवा इंसानों की क़रीबी दोस्त रही चिड़ियाओं में शायद सबसे बुद्धिमान पक्षी है.
यह शायद अकेला पक्षी है जो दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब को पहचान सकता है; दोस्त बन जाने पर यह इंसानों से अपनी दोस्ती का इज़हार चमकते हुए शीशे के टुकड़ों की भेंट से ले कर, इयर रिंग्स, छोटे शंख, लोहे के नट-बोल्ट्स इत्यादि से करता है. समूह में रहने वाला यह पक्षी भविष्य में काम आने वाली चीज़ों के संग्रह के प्रति सजग रहता है.
(Falling Number of Crows)
बौकली, बुग्नियार और कुछ अन्य खोजकर्ताओं के अनुसार ये अपने लिंग और आयु की सूचना अन्य समूहों को दे सकते हैं. ये इतने बुद्धिमान होते हैं कि जब इनके द्वारा की गयी गंदगी के चलते चैथम शहर के मेयर ने इन्हें मारने का अभियान शुरू किया तो इन्होने शहर की सीमा में इतनी अधिक ऊंचाई पर उड़ना शुरू कर दिया जो कि बन्दूक की गोलियों की ज़द से परे थी. लगभग तैंतीस तरह की विभिन्न आवाजों में ये वार्तालाप कर सकते हैं. इनके द्वारा खेले जाने वाले सात विभिन्न खेलों का संज्ञान भी वैज्ञानिकों ने लिया है. पक्षीप्रेमी मर्ज्लूफ्स के अनुसार एक बार वैज्ञानिकों के एक समूह पर कुछ कौवों ने इसलिए आक्रमण कर दिया था क्योंकि उनके द्वारा इनके कुछ साथियों को पूर्व में पकड़ लिया गया था.
कौवों के अचानक यूँ गायब हो जाने पर, फिलहाल कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है. यूनिवर्सिटी ऑफ़ आयोवा में मॉडर्न इंडियन हिस्ट्री एंड कम्युनिटी एंड बिहेवियरल साइंस के प्रोफेसर पॉल आर. ग्रीनाफ़ ने डिक्लाइन ऑव क्रो नामक अध्ययन में स्पष्ट किया है कि जहाँ भारत में हाउस क्रोज की संख्या घट रही है वहीं अफ्रीका, पश्चिमी एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया में इनकी कॉलोनीज़ अप्रत्याक्षित रूप से बढ़ रहीं हैं.
ऐसा क्यूं हो रहा है इसका कोई निश्चित उत्तर वैज्ञानिकों और पक्षी प्रेमियों के पास फिलहाल नहीं है. आखेट, प्राकृतिक आवास का नष्ट होना या फिर औद्योगीकरण वे कारण नहीं हैं जिन्हें कौवों गिरती संख्या के लिए सीधे जिम्मेदार माना जा सके. कौवों में बदलते हुए पर्यावरण अनुरूप स्वयं को ढाल लेने की अद्भुत क्षमता होती है. आवास के लिए इन्हें सिर्फ पेड़ों की ज़रुरत होती है जिनकी कमी फिलहाल गावों-कस्बों और अधिकाँश शहरी इलाकों में नहीं है.
एम.बी. कृष्णा जो बेंगलुरु के एक पक्षी वैज्ञानिक हैं, का मानना है कि वैज्ञानिक डाटा के अभाव में सहज ज्ञान के आधार पर वृक्षों के कम होने और कीट-नाशकों के अधिक प्रयोग को इनकी घटती संख्या का कारण माना जा सकता है. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के सहायक निदेशक रणजीत मनाक्दन का अनुमान है कि सफाई के प्रति बढ़ती जागरूकता के चलते कूड़े को प्लास्टिक के बंद डब्बों और थैलियों में डाल देना तथा काक्रोच और चूहों को मारने के लिए ज़हरीले रसायनों का प्रयोग कौवों के गायब होने का कारण हो सकते हैं.
उल्लेखनीय है कि जो कुछ भी मानव जाति के लिए हानिकारक है उसका पक्षियों पर पहले असर होना लाजमी है, क्योंकि इनका मेटाबोलिक रेट मनुष्यों से अधिक होता है. डब्लु.डब्लु. एफ. के सलाहकार शहरी पर्यावरण की बदलती हुई गतिकी (डायनामिस्म) को भी एक संभावित कारण मानते हैं. खैर… जो भी कारण रहे हों, कौवों के यूँ रूठ जाने पर मुझे कर्नाटक के वन्यजीवन छायाकार वी.एस. कृपाकर का यह कहना कि – जिस किसी भी वन्य-जीव ने अपने जीवन को मनुष्यों से जोड़ा है उस पर विपत्ति आयी है और इस बार बारी शायद कौवों की थी, ज्यादा सटीक लगता है.
(Falling Number of Crows)
कला-फिल्म-यात्रा-भोजन-बागवानी-साहित्य जैसे विविध विषयों पर विविध माध्यमों में काम करने वाले राजशेखर पन्त नैनीताल के बिड़ला विद्यामंदिर में अंग्रेजी पढ़ाते रहे. फिलहाल रिटायरमेंट के बाद भीमताल स्थित अपने पैतृक आवास में रह रहे हैं. पछले करीब चार दशकों में उनका काम देश-विदेश की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं-अखबारों में छपता रहा है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
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