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जानूँ जानूँ री, काहे खनके है तोरा कंगना

मेलोडेलिशियस – 2

ये ऑल इंडिया रेडियो नहीं है. ये ज़ेहन की आवाज़ है. काउंट डाउन नहीं है ये कोई. हारमोनियम की ‘कीज़’ की तरह कुछ गाने काले-सफेद से मेरे अंदर बैठ गए हैं. यूं लगता है कि साँसों की आवाजाही पर ये तरंगित हो उठते हैं. कभी काली पट्टी दब जाती है कभी सफेद. इन गानों को याद करना नहीं पड़ता बस उन पट्टियों को छेड़ना भर पड़ता है.

आज जाने क्यों ये एक नटखट सी `की’ को आवाज़ देने का मन हुआ. दो बहुत ही शोख़, चंचल लेकिन परिपक्व आवाजें एक बहुत ही खूबसूरत गीत में ढली हुई. इस कदर कि इन आवाजों को हटा दें तो गीत के मायने, असर और सौन्दर्य बदल जाएगा. वो आवाज़ें हैं गीता दत्त और आशा भोंसले की. वो गाना है `जानूं जानूं री काहे खनके है तोरा कंगना…’

गीता दत्त की नटखट शोख़ आवाज़ और आशा की इत्ती मीठी स्वर लहरियाँ! आह! ये मीठा-मीठा सा चिढ़ाना, हंसना, खिलखिलाना दो सहेलियों के बीच ही सम्भव है. दो लड़के दोस्त होंगे तो ‘एक-एक हो जाए फिर घर चले जाना’ होगा। या फिर `तू मुझे सुना मैं तुझे सुनाऊँ अपनी प्रेम कहानी’ जैसा एकदम सपाट वार्तालाप. भले ही गाते-गाते `और न तू कुछ पूछ मैं उसका नाम बता देता हूँ’ कहकर `एक नाम है प्यार उसी का दूसरा नाम जवानी’ कहकर कन्नी काट लेंगे.

यहाँ तो दो दोस्त हैं. दोनों लडकियाँ. दोनों अपने प्रेम के बारे में इशारों में बात कर रही हैं. दोनों को एक-दूसरे के राज़ पता हैं. मांडवाली चल रही है. अंत में बात इस बात पर फिक्स होती है कि न तुम किसी को कुछ बताना न मैं किसी को कुछ बताउंगी.

हिन्दी गानों का ये सुन्दर प्लाट अब फिल्मों से उठ गया है. उस दौरान सहेलियों की चुहल की, बहनों के बीच के आपसी हंसी-मज़ाक के बहुत गाने बनते थे. स्पर्द्धा के भी उतने ही. हर समय का अपना हास-परिहास, ठिठोली, दुःख और दर्द की अभिव्यक्ति के तरीके होते हैं। आज के समय सखियों की बात `वीरे दी वेडिंग’ जैसी होती होगी शायद।

शैलेन्द्र के लिखे इस गीत के बोल के इशारे देखिये और कल्पना के घोड़े दौड़ाइए कि कंगना क्यों खनक गया. ऐसा कौन था जो आंगन में इतने चुपके से आया कि घरवालों को पता भी न चला बस सहेली जान गई. ऐसा क्या हुआ कि माथे की बिंदी गिर गई. ऐसी कौन सी खुशी है जिससे मिलने से झुमका झूम गया. आह! झुमके का झूमना. कितनी सुंदर कल्पना है. ये बरेली के बाज़ार में झुमके का गिरना नहीं है. ये मिलन के बाद की झिझक है, गुदगुदी है, संकोच है. ये गोपाल और राधा के बीच वाला मिलन है जिसमें प्रेम की विवशता है. जिसमें सुध-बुध खो जाती है-

राधा-भवन सखी मिलि आईं
अति व्याकुल सुधि-बुधि कछु नाहीं, देह दसा बिसराई
बाँह गही तिहि बूझन लागीं, कहा भयौ री माई
ऐसी बिबस भई तू काहैं, कहौ न हमहिं सुनाई

गाना दो सहेलियों की आपसी चुहल का है तो ज़ाहिर है उसमें हंसी भी आएगी। गाने के साथ-साथ हंसना. आशा भोसले ने किसी इंटरव्यू में बताया था कि उनको गाने के साथ-साथ हंसना एस डी बर्मन जो इस गाने के संगीतकार हैं, ने ही सिखाया था, पहली दफ़ा वो इसी गाने में हंसी थीं। कितना खूबसूरत घुल गई है उन दोनों सहेलियों की हंसी इस गाने में।
कमाल ये भी है कि वो हंसने के साथ सांस ले रही हैं। अमूमन हंसने के बाद सांस ली जाती है क्योंकि हम हंसते समय सांस छोड़ते हैं. यहाँ गाने के साथ सांस को इस तरह से नियंत्रित करना था कि कुछ भी गाने के अतिरिक्त या बाहर का न लगे. इस गाने में अंतरा और अंतरे से वापस मुखड़े पे आने वाली जगह पे सांस लेने के लिए बहुत कम वक्फ़ा मिलता है. उतनी ही जगह में हँसना भी था। सचिन देव बर्मन ने इसे इस तरह से ब्लेंड करवाया है कि हंसते हुए ही सांस छोड़ कर हंसी की समाप्ति पर सांस भर भी लेती हैं गायिकाएं. आह! कितना खूबसूरत!

उस समय तक गीता दत्त स्थापित गायिका थीं और आशा फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाना शुरू ही कर रही थीं. आशा भोंसले के ऊपर गीता दत्त का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है, जो उन्होंने स्वीकार भी किया है. लेकिन कुछ समय बाद यह भी सुना जाता है कि गीता दत्त के भी गाने आशा को मिलने लगे थे. खैर! इन दोनों ने साथ-साथ बहुत से सुन्दर गाने गाए हैं.

गाना ‘इंसान जाग उठा’ (1959) फ़िल्म से है जिसमें सुनील दत्त और मधुबाला मुख्य भूमिकाओं में हैं।

शक्ति सामंत निर्देशित इस फ़िल्म में यह गीत मुख्यतः मधुबाला और मीनू मुमताज़ पर फ़िल्माया गया है। गाने में सुनील दत्त और हास्य कलाकार सुंदर भी हैं लेकिन बस हैं भर. मधुबाला! जितना चुलबुलापन इस गाने में है उतना तो वो अपने माथे पर लटकती काकुलों में ही बाँधे रखती थीं. पहली ही बार के `खनके है तोरा कंगना’ में हल्की सी नाक सिकोड़ कर मधुबाला ने पूरे गाने की रंगत ढाल दी है। ऐसे ही नहीं उन्हें हिन्दी फिल्म जगत की अब तक की सबसे सुंदर अभिनेत्री कहा जाता रहा है.

दूसरी सखी हैं मीनू मुमताज़. मीनू, मशहूर हास्य अभिनेता महमूद की बहन थीं और शानदार चरित्र अभिनेता और डांसर मुमताज़ अली की पुत्री. (वैसे इतनी क़ाबिल अदाकारा और डांसर का परिचय यूं पिता या भाई की तरफ से देना अच्छा नहीं लगता). वो खुद थीं शानदार डांसर और चरित्र अभिनेत्री। उन्हें मलिकुन्निसा से मीनू नाम मीना कुमारी ने दिया था। मीना- मीनू! `बूझ मेरा क्या नाम रे’ गाना देखिये और इन्हें देखिये, कितनी समर्थ अदाकारी.

एक और खूबसूरत बात. गाने की शूटिंग किसी ऐसी जगह पर हुई है जिसमें दोनों सहेलियों की किसी मशीन के पहियों के आस-पास आवाजाही है. कहा जाता है कि एस डी बर्मन ने गाने की धुन और उसका मीटर बनाते समय पहियों के बीच की दूरी को नाप लिया होगा क्योंकि जब दोनों सहेलियां एक पहिये से दूसरे तक पहुंचती हैं उनके कंगन या चूड़ियों की आवाज़ तभी आती है. उनके एक दूसरे तक आने-जाने में बीट कहीं नहीं छूटती.

बहियाँ मरोड़ के घेर के गिराय के बहियाँ मरोड़ के…
धिक धाक धिक धाक धिक धाक धिक धाक …
बहियाँ मरोड़ के…

सुनिए कैसे गीता दत्त सहेली को चिढ़ाने में बोल को इतनी मासूमियत से ट्विस्ट करती हैं कि ‘याया तोरे यंगना’ उनकी ज़ुबान से निकलकर सीधा दिल में लगता है और कैसे एक बहुत छोटे वक्फे के लिए आशा के साथ आप भी ठहर जाते हैं ‘जानूं री जानू री काहे खनके है तोरा…’ और भरपूर मुस्कान और सिर की हल्की जुम्बिश के साथ बोलते हैं `कंगना!’

सच कहूँ तो ये गाना भी इसलिए मन में बसा हुआ है क्योंकि माँ से जुड़ा हुआ है। हमेशा से एक चाह थी कि काश, मैं भी माँ की तरह ही `जानूं जानूं’ में जीभ को तालू से चिपका कर वो चुलबुलापन पा जाऊं जो माँ की आवाज़ में है। काश!
आप तो काश मत कहिए। यूट्यूब लिंक से सुनिए ये प्यारा गाना-

जानूँ जानूँ री, काहे खनके है तोरा कंगना
मैं भी जानूँ री, छुपके कौन आया तोरे अंगना
अरी जानूँ री, छुपके कौन आया तोरे अंगना
मैं भी जानूँ री…

पीपल की छैंया तले बतियाँ बनाय के
भोले-भाले दिल को ले गया उड़ाय के
सखी जानूँ री, झूमे है काहे तोरा झुमका
मैं भी जानूँ री…

बहियाँ मरोड़ के, घेर के गिराय के
बैठ गए छैलवा मन में समाय के
गोरी जानूँ मैं कहाँ पे गिरी है तोरी बिंदिया
जानूँ जानूँ री…

तू न कह किसी से, मैं भी ना कहूँगी
अच्छा तो बन जा तू उनकी, मैं उनकी रहूँगी
कोई क्या करे बाजे जब पाँव की पायलिया
कोई क्या करे बाजे जब पाँव की…

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रुचिता तिवारी/ अमित श्रीवास्तव

यह कॉलम अमित श्रीवास्तव और रुचिता तिवारी की संगीतमय जुगलबंदी है. मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा यह लेख रुचिता तिवारी द्वारा लिखा गया है. इस लेख का अनुवाद अमित श्रीवास्तव द्वारा काफल ट्री के पाठकों के लिये विशेष रूप से किया गया है. संगीत और पेंटिंग में रुचि रखने वाली रुचिता तिवारी उत्तराखंड सरकार के वित्त सेवा विभाग में कार्यरत हैं. 

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता). काफल ट्री के अन्तरंग सहयोगी.

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Girish Lohani

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