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झोली, डुबके और टपकिये के बहाने अल्मोड़े के खाने के अड्डों की सैर

आदमजात की जितनी भी मूलभूत आवश्यकताएं हैं, उनमें पहले नंबर पर आता है खाना (Restaurants of Almora town). खाना अव्वल तो एक जरूरत है उसके बाद वह कला और विज्ञान भी है, जिसका ज़िक्र लाजिम है.

अल्मोड़ा प्रवास के आरंभिक दिनों में स्वयंपाकी स्थिति ना बन पाने के कारण, अल्मोड़ा के भोजनालयों, ढाबों, खोमचों, ठेलों से लेकर अल्मोड़ा के बड़े और स्थापित रेस्टोरेंट्स से रूबरू होने का मौका मिला.

इस बहाने अल्मुड़िया कल्चर, अल्मुड़िया ठसक और अल्मुड़िया फसक भी जानने को मिली. कई किस्से, कहानियां, स्थानीय चुटकुलों से लेकर लोकोक्तियां, मुहावरे आदि सब मिले. सब अपने प्राकृतिक रंग में बिना किसी आवरण और परिधान के.

केमू स्टेशन के पास दीवान स्वीट्स के बगल में अल्मोड़ा की देसी और विदेशी शराब की दुकानें हैं, उनके ठीक बगल में स्थित भूमिका रेस्टोरेंट बिना किसी भूमिका के आपके समक्ष सात्विक भोजन परोसने में दक्ष है. एक लंबा सा, गहरा भोजनालय जिसमें पूरी की पूरी बस एक बार में खाना खा ले. आखिर में पचास सौ थालियोँ, गिलास, चम्मचों का अनगढ़ ढेर और उनके पीछे पत्थर पर बिना बेलन चकले के रोटी बनाते स्टाफ की आवाजें, उनके चुटकुले और उनका बेमतलब आख्यान ध्यान आकर्षित करता रहता है.

इस रेस्टोरेंट का काउंटर संभाले हुए एक भद्र महिला पाई जाती है जो अपनी स्मित मुस्कुराहट के साथ लगभग खत्म हो चुकी सौंफ चीनी की ट्रे में बिल रखते हुए यह पूछना नहीं भूलती कि खाना ठीक था.

भूमिका रेस्टोरेंट से थोड़ा आगे की तरफ शिखर होटल के पास खाने के दो पुराने और बड़े अड्डे हैं, एक एल आर शाह रोड पर दाहिनी तरफ स्थित ग्लोरी रेस्टोरेंट दूसरा नीचे वाली सड़क जो रानीखेत की तरफ भी जाती है पर भैरव मंदिर के सामने जोश्ज्यू रेस्टोरेंट.

ग्लोरी अल्मोड़ा के पुराने रेस्टोरेंट्स में से एक है. यह उस दौर का रेस्टोरेंट है जब खाना जरूरत से एक कदम आगे कला में परिवर्तित हो रहा था. ग्लोरी रेस्टोरेंट् में घुसते ही शम्मी कपूर, शशि कपूर, देवानंद की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के या शुरुआती रंगीन फिल्मों के रेस्टोरेंट का याद आती है. यह अल्मोड़े का संभवत पहला ऐसा रेस्टोरेंट है जिसमें एकांत क्षणों में भोजन के साथ साथ संयुक्त रूप से भविष्य के सपने संजोने, शालीन चुहलवाजी करने और शांति पूर्वक वर्तमान का आनंद उठाने की सुविधा लकड़ी के दुछत्ते पर मौजूद थी.

अल्मोड़ा में पढ़ा हुआ या रहा हुआ कोई भी मध्य का व्यक्ति एवं महिला ऐसी नहीं होगी जिसने ग्लोरी के ग्लोरियस माहौल से अभिभूत होकर इसमें कदम न रखा हो. ग्लोरी रेस्टोरेंट में खाना खाना या चाय पीना स्टेटस सिंबल माना जाता था और यह पुराने ओनिडा टीवी के विज्ञापन की तरह होता था कि चर्चा कर कर पड़ोसियों की जान जलाना. ग्लोरी रेस्टोरेंट के वर्तमान संचालक श्री मंजुल मित्तल हैं, युवा हैं और उस बदलाव के साक्षी भी है जो नब्बे के दशक की फिल्मों की प्यार से दो हज़ार अठारह के दशक के प्यार का अंतर है.

ग्लोरी रेस्टोरेंट के सामने स्थित भैरव मंदिर के अंदर से एक रास्ता गुजरता हुआ नीचे वाली सड़क पर खुलता है वहां स्थित है जोश्ज्यू रेस्टोरेंट.

जीवन पैलेस होटल से सटे इस रेस्टोरेंट की विशेषताएं ग्लोरी से काफी कुछ अलहदा हैं. यह एक नई पीढ़ी का नया रेस्टोरेंट है, जो अल्मोड़ा के नगर वासियों को हल्द्वानी, देहरादून, दिल्ली आदि में मिलने वाले रेस्टोरेंट कल्चर का स्थानीय अल्मुड़िया विकल्प उपलब्ध कराता है.

इस रेस्त्रां की दो खास बातें हैं. पहली यह कि इस रेस्टोरेंट में बिलिंग क्लर्क से लेकर वेटर, कैप्टन की भूमिका एक ही व्यक्ति निभाता है. लगभग बुजुर्ग हो चुके पांडे जी आपको उचित खाने का सुझाव देंगे, सुझाव के साथ बड़े प्रेम से आग्रह करेंगे कि अमुक डिश के स्थान पर अमुक डिश ली जाए तो आपके लिए अच्छा होगा. यदि ग्राहक पांडे जी की बात को अनसुना कर दे तो भी वह अपने पसंद का खाना बिना बिल के खिला ही देते हैं. इस रेस्टोरेंट की दूसरी खास बात है कि इसमें अल्मोड़ा की सबसे अच्छी तंदूरी रोटी भी मिलती है. बटर नान या लच्छा पराठा, कीमा नॉन, गार्लिक नान, स्टफ नान, कुलचा सब एक जगह पर अल्मोड़ा में मिलने की खास जगह है जोश्ज्यू.

जोश्ज्यू से इतर पोस्ट ऑफिस के सामने, पंत पार्क से थोड़ा ऊपर सीढ़ियों से चढ़कर कांडपाल जी का भोजनालय है, जिसमें रोज खाया जा सकने वाला सादा भोजन मिलता है. कलेक्ट्रेट, पुलिस एवं कई अन्य सरकारी महकमों के ऐसे मुलाजिम जो स्वयंपाकी नहीं हैं और जिनका परिवार साथ नहीं रहता, कांडपाल जी की सेवाएं लेने से नहीं चूकते.

कोई भी बहुत लंबे समय तक जोश्ज्यू या ग्लोरी का भोजन नहीं कर सकता क्योंकि रोजमर्रा के लिए दाल भात रोटी ही सही रहता है.

दाल भात रोटी से याद आता है कि अल्मोड़े में ही नहीं बल्कि ज्यादातर पहाड़ पर खाने का एक अलग ट्रेंड है जो मैदानी उत्तर प्रदेश से काफी कुछ भिन्न है.

यहाँ दिन के प्रातः कालीन नाश्ते में गेहूं और सर्दियों में मडुए के आटे की साधारण रोटियां और एक सब्जी होती है. दिन के खाने में दाल भात अमूमन सर्व प्रिय भोजन है .

दाल भात की जगह अगर भट के डुबके, झोली (बेसन की कढ़ी का एक तरह से पतला रूप) हो तो क्या कहना. इस दिन के खाने में दो चीजें और उल्लेखनीय हैं ,पहली थाली में गहरे हरे रंग की टपकी और दूसरा पहाड़ी मूली प्याज के ऊपर डाली गई भांग की चटनी.

भट पहाड़ पर गाए जाने वाली प्योर ऑर्गेनिक दलहन है. काले एवं सफेद दो प्रकार की भट उगाए जाते हैं पर प्रमुखता काले भटकी भटकी है. भट की दाल दो प्रकार से पूरे कुमाऊं रीजन में बनाई जाती है. पहले भट के डुबके, दूसरा भट्ट की चुड़कानी. डुबके बनाने से पहले भट को पानी में अच्छी तरीके से भिगोकर फुलाया जाता है, फिर सिल बट्टे पर दरदरा पीस कर उसे लोहे की कढ़ाई में छौंक कर उबाला जाता है. भट के डुबकों के लिए दो चीजें अनिवार्य हैं, एक मोटे तले की लोहे की कढ़ाई, दूसरी उसे पकाने के दौरान लगातार चलाया जाना.

झोली बेसन के मट्ठे के साथ बनने वाली पतली कढ़ी है जो लगभग पूरे उत्तर भारत में झोली, झोल या झोर नाम से भी जानी जाती है.

भात तो भात ही हुआ.

अब बारी आती है टपकिये (टपकी) और भांग की चटनी की. बात पहले भांग की चटनी की. भांग के दानों को कड़ाही में अच्छी तरीके से भूनकर सिल बट्टे पर पीसकर, कुछ स्थानीय मसालों को डालकर एक चटनी बनाई जाती है, जिसे भांग की या भंगीरे की चटनी कहते हैं. पूरे कुमाऊं अंचल के साथ-साथ अल्मोड़े में हल्की भूरी इस चटनी की लोकप्रियता अल्मोड़े की तरह ही सनातन है.

अल्मोड़ा में दिन के शाकाहारी भोजन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होती है टपकी. टपकी का नाम टपकी क्यों पड़ा है, बहुत दिनों बाद जानने को मिला. इसके पीछे के निहितार्थ और भी दिनों के बाद पता चले.

भोजन की थाली में टपकी का अपना एक सांस्कृतिक वैशिष्ट्य है. कहना गलत न होगा कि किसी भी समाज का भोजन स्पष्टतः यह बताता है कि उस समाज की भावनाएं, चरित्र, समाजबोध कैसा है. कैसे वह समाज अपने आप को सब के सामने खोलता है. यहां भोजन जरूरत से ज्यादा कला और कला से भी एक कदम आगे सामाजिक विज्ञान का रूप अख्तियार कर लेता है.

अमूमन पूरे उत्तराखंड में पहाड़ पर भोजन एकदम सादा किया जाता है. शुद्ध सात्विक, कम तेल मसाले के भोजन पीछे भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक कारण निहित हैं.

भौगोलिक कारणों में तीन कारण प्रमुख हैं. पहला पहाड़ के उच्च अक्षांश क्षेत्रों में वायुमंडलीय दबाव अधिक रहने से ऐसा भोजन सर्वाधिक स्वीकार्य होता है जिसका पृष्ठतनाव कम हो तथा जो आसानी से पच जाए.

दूसरा कारण है स्थानीय स्तर पर जलवायु में जो फसलें आसानी से उत्पन्न होती है उनकी शरीर द्वारा ग्राह्य्ता और स्वीकार्यता.

तीसरा सादा भोजन से शरीर में वसा की मात्रा कम होती है, जिससे यहां के निवासियों का वजन संतुलित रहता है. वजन संतुलित रहने से ऊंचे पेड़ों, पहाड़ों और दुर्गम क्षेत्रों में आने-जाने, चढ़ने में आसानी होती है.

आर्थिक कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण जो प्रथमदृष्टया प्रतीत होता है वह यह है कि भोजन सामग्री में यथासंभव स्थानीय उत्पादों को वरीयता दी जाए, जिससे कि बाहर के तेल मसालों को कम खरीदना पढ़े और गृहस्थी की बचत के साथ साथ स्थानीय स्तर पर रोजगार भी पैदा हो.

सात्विक भोजन का सामाजिक कारण यहां का सीधा साधा, सरल, द्वेष रहित ,सकारात्मक स्वाभव का जनमानस है, जो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी को आसान बनाने में दिन रात लगा रहता है. सामाजिक उथल-पुथल,अपराध और सामाजिक विकृतियों की न्यूनता के पीछे कहीं ना कहीं एक बड़ा हाथ सादगीपूर्ण भोजन का भी है.

भोजन और उसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के इतने बड़े सामाजिक विश्लेषण में मूल मुद्दा कहीं दब न जाए इसके लिए टपकी पर आना आवश्यक है.

टपकी का चरित्र काफी हद तक अल्मोड़े से मेल खाता है. एक तो यह भोजन में सबसे कम होती है, दूसरी यह शायद ही मांगने पर दोबारा मिलती है, तीसरा इसके स्वाद पूरे भोजन (दाल-भात डुबके-झोली) में सबसे अलग होता है. टपकी पूर्ण रूप से भोजन की को कला के रूप मे, परिवर्तित करती हैं.

टपकी के अपने सामाजिक निहितार्थ भी हैं. यह जीवन के संघर्षों के मध्य उत्पन्न, स्वाद कि वह खिड़की है जो आशा का संचार करती है, यह उस स्वप्न की तरह है जो अभावों में आगे बढ़ने के लिए,चलने के लिए प्रेरणा देता है. टपकी सामाजिक समरसता, सामंजस्य और कही-अनकही का भी प्रतीक है.

वह समाज जो जीवन की विपरीत प्राकृतिक भौगोलिक स्थितियों में 21वीं सदी में भी विजय प्राप्त करने की कोशिश में दिन-रात लगा हो वहां टपकी का होना सफलता के स्वप्न का आनंद का उल्लास का और उसकी जीवंतता का विश्वास है. यह विश्वास उस जीवन का है जो पहाड़ में पत्थरों, नदियों, जंगलों के बीच धूप में उगता है, बढ़ता है, अपने आप को विकसित करता है और हर दम हर पल अपने आपसे स्वयंभू भाव से एक अलग अंदाज में टक्कर लेता है. यह पहाड़ है, यह अल्मोड़ा है ,यह जीवन है, एक आस है, एक विश्वास है कि जब तक थाली में टपकी है तब तक हमें कोई टपका न सकेगा.

यह भोजन का, संस्कृति का, राग का, अनुराग का, विराग का, इतिहास का, संगीत का, कुल मिलाकर जीवन का, अमूल्य अल्मुड़िया अनुवाद है जिसे समझने का रास्ता इसी शहर से निकलता है और इसी शहर में कहीं गुम हो जाता है.

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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं

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  • अल्मोड़ा बाजार की गली में गर्मागर्म जलेबी की दुकान हुआ करती थी।मैंने गंगोलीहाट आते जाते कई बार वहाँ जलेबियाँ खाई हैं।अब वह दुकान है या नही?
    यादवेन्द्र / पटना

  • सुंदर लेख कांफल ट्री डाट काम की विशेषता बन गई है।??? हार्दिक शुभकामनाएं.?? अल्मोड़ा में मिश्रित भोजन प्रणाली आधुनिकता की देन है।??? अल्मोड़ा में खाने के बाद मीठा खाने का रिवाज है।? बाल मिठाई, सिंगोड़ी (पतकुच) या चाकलेट प्रायः सभी घरों तक में मिल जाते हैं।?? भोजन के साथ विभिन्न आचार भी टपकिए के ही सहचर हैं।?? टप से उठाकर टपकिया नहीं खाया तो भोजन अधूरा है।???

  • शानदार वर्णन। पढ़ते हुए लगता है कि आप अल्मोड़ा की गलियों में घूम रहे हों। साधुवाद।

  • पहाड़ी भोजन के पृष्ठ तनाव तथा टपकी के मानवीकरण के इस अद्भुत लेख की प्रशंसा हेतु शब्द नहीं मिल रहे…........

  • बहुत सुंदर और शिक्षाप्रद लेख। खाने के बहाने कई बातें और जानकारियां भी कह डाली। टपका की सुंदर व्याख्या जो हमारे पहाड़ी संस्कृति की पहचान है उसे हमारे पहाड़ों पर होने वाले उतार चढ़ाव की कहानी बयां करती है।

  • भाँग और भंगीरे की चटनी अलग अलग होती है। भाँग एक अलग चीज है और भंगीरा अलग |

  • बहोता बढ़िए !
    परन्तु, मयर विचारल लेखक साब एक द्वी पोस्ट अपणी पहाड़ी भाषा में ले लिखाण चहियोच !
    कठिन काम चा पर, शब्दों का माध्यमल हम ले पहाड़ घूमी ओल !
    मेरी सेउ

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