(पोस्ट को रुचिता तिवारी की आवाज़ में सुनने के लिए प्लेयर पर क्लिक करें)
मेलोडेलिशियस-8
ये ऑल इंडिया रेडियो नहीं है. ये ज़ेहन की आवाज़ है. काउंट डाउन नहीं है ये कोई. हारमोनियम की ‘कीज़’ की तरह कुछ गाने काले-सफेद से मेरे अंदर बैठ गए हैं. यूं लगता है कि साँसों की आवाजाही पर ये तरंगित हो उठते हैं. कभी काली पट्टी दब जाती है कभी सफेद. इन गानों को याद करना नहीं पड़ता बस उन पट्टियों को छेड़ना भर पड़ता है. (Evergreen Popular Music)
आज जब सूरज अपना असबाब समेटे वापसी की तैयारी में है और मेरे ठीक सामने का पर्वत पेड़ों की छाया को अपने गर्म आग़ोश में लेने को है, एक नीम अन्धेरा आहिस्ता-आहिस्ता मेरे अन्दर उस काली `की’ को छेड़ देता है जो सांझ के इस लम्हे में कमरे की बत्तियां बुझाकर खुली हुई खिडकियों से मद्धम हवा के साथ आती अनूठे कम्पन से भरी एक बहुत मधुर रेशमी आवाज़ के आगे समर्पण करने पर मजबूर कर देती है. ख़य्याम के संगीत से सजी मेरी ये प्रिय ग़ज़ल दिलीप कुमार और मीना कुमारी द्वारा अभिनीत फ़िल्म फुटपाथ (1953) से है. (Evergreen Popular Music)
शाम-ए-ग़म की कसम, आज ग़मगीं हैं हम
आ भी जा, आ भी जा आज मेरे सनम
आप ने बिल्कुल ठीक पहचाना. ये अनोखी आवाज़ हिन्दी सिनेमा के ग़ज़ल सम्राट तलत महमूद की है. 1953 में इस ग़ज़ल के आने तक तलत महमूद ट्रैजेडी किंग दिलीप कुमार की आवाज़ बन चुके थे. दोनों ने एक से बढ़कर एक मशहूर गाने हमें दिए. रंजीत मूवीटोन द्वारा निर्मित ‘फुटपाथ’ को लिखा और निर्देशित जिया सरहदी ने किया था. फिल्म का पार्श्व संगीत तिमिर बरन ने बनाया था लेकिन इस गाने को संगीतबद्ध ख़य्याम ने किया. इस गाने की ख़ास बात ये भी है कि इसे मज़रूह सुल्तानपुरी और अली सरदार ज़ाफरी जैसे दो गीतकारों ने मिलकर लिखा है.
ढूंढती है नज़र तू कहां है मगर
देखते देखते आया आंखों में दम
लेकिन ये गाना है किसका? तलत का या ख़य्याम का? पुराने हिन्दी गाने अक्सर अपने साथ ये प्रश्न छोड़ जाते हैं कि इस गाने की ख़ूबसूरती का श्रेय आखिर किसे दिया जाए, गायक को, गीतकार को अथवा संगीतकार को? उन्हें सुनते हुए ये बता पाना बड़ा मुश्किल होता है कि इसे लिखा पहले गया अथवा धुन पहले बनाई गई? संगीतकारों और गीतकारों की मेधा ही कही जाएगी कि धुनें गाने के बोल के साथ बहुत ख़ूबसूरती से मेल खा जाती थीं. ऐसे कि दोनों को अलगाना मुश्किल है. कुछ धुनें इस लिहाज़ से भी बनाई जाती थीं कि लिरिक्स या बोल म्यूज़िक से ज़्यादा उभर सकें. ज़्यादा मुखरित हो सकें. ऐसे गानों में म्यूज़िक एक तरह से अंडरप्ले की जाती थी. उन धुनों को निरर्थक इस लिहाज़ से कहना ग़लत होगा कि अगर गाने से वो म्यूज़िक हटा लिया जाए तो लिरिक्स का प्रभाव एकदम से बैठ जाएगा.
ख़य्याम साहब, जो इस गाने के भी संगीतकार हैं, उनकी खूबी थी ऐसी धुनें बनाना जिसमें गाने के बोल यूं लगें कि जैसे किसी ने बस कविता का पाठ तरन्नुम में कर दिया हो. उदाहरण के तौर पर फ़िल्म `कभी कभी’ का गाना `कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है’ सुनिए. ख़य्याम साहब ने `कभी कभी’ फिल्म के म्यूज़िक की सफलता के बाद एक इंटरव्यू में ये बताया था कि उनके पसंदीदा गीतकार साहिर लुधियानवी ये मानने लगे थे कि `कभी कभी’ के गाने उनके लिरिक्स की वजह से सफल हुए, न कि म्यूज़िक या धुन की वजह से और ये बात उन दोनों के बीच एक दरार भी बना गई. संगीत जब इस तरीके का बनाया जाए कि गाने के बोल खिल कर उभर सकें तो एक गीतकार को ऐसा भ्रम हो जाना स्वाभाविक है. तो क्या समझें फिर? ये गाना किसका है, ख़य्याम का या तलत का? चलिए ये आपके ऊपर ही छोड़ देते हैं.
मुझे याद है कुछ पुराने कैसेट्स और एक वॉकमैन. पांचवीं क्लास में पिता से मिला ये तोहफ़ा. उन कैसेट्स में से गाढ़े नीले रंग वाले ने उस कम उम्र में भी मुझे छू सा लिया. तलत महमूद इन ब्लू मूड – “हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं”. इस आवाज़ के इश्क़ में तो वैसे ही डूबे बिना नहीं रहा जा सकता और जब तलत गुनगुनाते हैं – “आंसू समझ के क्यूं मुझे आँख से तुमने गिरा दिया” तो आहिस्ता-आहिस्ता अहसासात का एक समन्दर सा फ़ैल जाता है कहीं भीतर और आप इस शर्मीली, नशीली, शहद भरी आवाज़ के इस समन्दर से एक-एक बूँद पीते जाते हैं.
फिर वही शाम वही ग़म वही तनहाई है
और फिर जैसे ही ये गाना शुरू होता है, छपाक! शहद से भरा कोई छत्ता सा टूटता है और आप इस आवाज़ की मिठास में सराबोर हो चुके होते हैं.
इसे अनगिनत बार, पहली बार की तरह ही सुनने के बाद ये कहना पड़ता है कि इस गाने के रूप में ख़य्याम और तलत दोनों ने मिलकर हमें वास्तव में एक नगीना दिया है.
महसूस तुम्हें हर दम फिर मेरी कमी होगी
फ़िल्म एवं लोकप्रिय संगीत के लिए तीस के दशक में बॉम्बे में नहीं बल्कि सुदूर कलकत्ता में तपन कुमार के नाम से तलत ने जब से गाना शुरू किया तभी से अपने सुंदर रूप के लिए वो फ़िल्म के हीरोज़ के लिए एक चुनौती और अपनी शानदार गायकी वजह से संगीतकारों के चहेते बने रहे. संगीतकार अनिल बिस्वास ने उन्हें कलकत्ता छोड़कर बॉम्बे आने और मुख्यधारा सिनेमा के लिए गाने के लिए कहा क्योंकि उनका ये मानना था कि तलत की मधुर, रेशमी आवाज़ फ़िल्मी ग़ज़ल गायकी के लिए बहुत उम्दा रहेगी. 1949 के आख़िर में जब तलत का मुम्बई आना हुआ तो अनिल बिस्वास ने ही उन्हें, उनके वास्तविक नाम तलत महमूद के नाम से पहचान दिलाई. उन्हें मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा फिल्म आरजू का गाना देकर.
ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहां कोई ना हो
अपना पराया मेहरबाँ ना मेहरबाँ कोई ना हो
दिलीप कुमार पर फिल्माए गए इस गाने ने पूरे देश में धूम मचा दी. दिलीप, अनिल बिस्वास और तलत, तीनों के लिए ही ये ग़ज़ल सफलता की राह पर शुरुआती मील का पत्थर साबित हुई. तलत के रूप में हिन्दी फिल्म संगीत को एक ताज़ी और अलहदा आवाज़ मिल गई थी. तलत महमूद की आवाज़ में एक अनोखा कम्पन था जो अब तक किसी भी गायक में देखा नहीं गया था. अनिल बिस्वास की पारखी नज़र ने ये जान लिया था कि ग़ज़ल रेंडीशन में ये हल्का वाईब्रेशन कमाल लगेगा.
जैसे-जैसे तलत सफलता की सीढ़ी चढ़ते गए सम्भवतः ईर्ष्या की वजह से कुछ शिकायतें, खासतौर से रिकॉर्डिंग आर्टिस्ट की, इस तरह की आने लगीं कि इस कम्पन की वजह से उनके गानों को रिकॉर्ड करना मुश्किल होता है. लेकिन अनिल बिस्वास हमेशा तलत के साथ मजबूती से खड़े रहे. उनका कहना था कि तलत महमूद इकलौते और अनोखे हैं और उनका ये निराला कुदरती कम्पन ही तलत को तलत बनाता है, अन्यथा देश में हज़ारों तलत महमूद होते. ये कम्पन ही तो है जो उनके गाए गानों में अद्भुद आकर्षण पैदा कर देता है. एक अतिरिक्त सुन्दरता! शब्दों का एक अलग सा नाद! एक भावुक कोमल नाद जो देर तक कानों पर टिक जाता है. इस गाने में भी तो तलत की आवाज़ का कम्पन गाना खत्म होने के बाद भी टिका रह जाता है
रुत हंसी है तो क्या, चांदनी है तो क्या
चांदनी जुल्म है, और जुदाई सितम
मख़मली आवाज़ के साथ सटीक उच्चारण और सुर के सभी उतार चढ़ाव को कुशलता से निभाने वाले तलत, आधुनिक ग़ज़ल गायकी के अग्रदूत कहे जा सकते हैं. गज़ल की किवदन्ती बन चुके जगजीत सिंह भी उन्हें अपना आदर्श मानते रहे. तलत महमूद ने ग़ैर-फ़िल्मी ग़ज़लें भी गाईं जो उन दिनों बहुत लोकप्रिय हुईं और फिल्मों से अलग, स्वतंत्र म्यूज़िक में लोकप्रिय ग़ज़लों के एक चलन की शुरुआत हुई.
तलत ग़ज़ल गायकी में पोएट्री के महत्व को जानते थे और उनका गायन बहुत भावपूर्ण, कोमल लेकिन अत्यंत सहज होता था, जिसकी वजह से अक्सर ऐसा लगता है कि कोई बहुत अपना करीबी दोस्त आपके कंधे पर हाथ धरे गुनगुना रहा हो.
दिल परेशान है रात वीरान है
देख जा किस तरह आज तन्हा हैं हम
शायद ये वजह भी रही कि वो अपने चाहने वालों के दिलों में हमेशा बसे रहे. लेकिन इस सहज गायकी के पीछे एक विशेष निपुणता या कला भी थी, जिसे अनिल बिस्वास जैसे कला के जानकार पकड़ पाते थे. जी वेणुगोपाल जो तलत को बहुत मानते थे उनका कहना सही था कि `सामान्य जन को तलत के गाने आसान लगेंगे लेकिन अगर कोई उनके गानों के सूक्ष्म उतार-चढ़ाव और मखमली कम्पन की नकल करने की कोशिश करेगा तब समझ पाएगा कि दरअसल वो कितने कठिन हैं.’
इसी बात की पुष्टि करते हुए एक लोकप्रिय टैलेंट हंट शो को जज करने के दौरान अनिल बिस्वास को कहते हुए पाया गया कि `हमारे पास बहुत से महान गायक हैं, और किशोर, रफ़ी या मुकेश की नक़ल करने वाले भी बहुत से गायक हैं, लेकिन मुझे एक गायक भी ऐसा दिखाओ जो तलत महमूद की नकल कर सकता हो.’
तलत का अंदाज़ ऐसा था कि उनके गानों में बहुत कम वाद्ययंत्र और सरल धुनों का इस्तेमाल किया जाता था. उनके गाए सबसे बेहतर गाने वही हैं जिसमें म्यूज़िकल इंस्ट्रूमेंट लगभग नेपथ्य में चले जाते हैं और उनकी आवाज़ गूंजती रहती है. सुनिए तलत महमूद और आशा भोसले का गाया गाना `प्यार पर बस तो नहीं’.
नूतन और खुद तलत महमूद पर फिल्माए गए फिल्म ‘सोने की चिड़िया’ (1958) के इस गाने के बोल लिखे हैं साहिर लुधियानवी ने और इसे संगीत से सजाया है ओ पी नय्यर ने. ओ पी नय्यर और तलत? जानकार इस जोड़ी पर आश्चर्य करेंगे क्योंकि दोनों का अंदाज़ बहुत अलग-अलग है लेकिन देखिये कितनी ख़ूबसूरती से ओ पी नय्यर ने अपनी स्टाइल से ज़रा सा हटते हुए तलत की आवाज़ के अनोखेपन का इस्तेमाल किया है.
ये तलत की भी खुशकिस्मती थी कि वो संगीत के उस समय में थे जब राग और लयात्मकता सबसे महत्वपूर्ण हुआ करती थी, क्योंकि रफ़ी या किशोर की तुलना में उनकी कुछ सीमाएं थीं, लेकिन उनके गायन में राग, सुर और लय भरपूर थे. उनकी इस विशेषता को देखते हुए मदनमोहन, रोशन, एस डी बर्मन, अनिल बिस्वास और नौशाद जैसे संगीतकारों ने उनसे बहुत से अमर गीत गवाए जिनपर आज भी इन संगीतकारों के म्यूजिक से ज़्यादा तलत की लहराती हुई आवाज़ की छाप है.
राग पहाड़ी पर आधारित हमारा आज का ये गाना ख़य्याम के शुरुआती सफल गानों में से है, जिन्होंने ख़य्याम को ख़य्याम बनाया. ऐसा कहा जाता है कि खय्याम के म्यूजिक में राग पहाड़ी का वही महत्व है, जो राग भैरवी का नौशाद के और राग बागेश्री का सी रामचन्द्रन के म्यूजिक में. ये भी कहा जाता है कि खय्याम साहब ने इस गाने को टुकड़ों में अलग-अलग रिकोर्डिंग कर, एक साथ चस्पा करके तैयार किया है, जैसा कि आजकल अमूमन सभी गानों में किया जाता है. किन्तुबपचास के दशक में ऐसा करना शक़ की निगाह से देखा गया. लेकिन देखिये तो इस गाने का सौन्दर्य. इसे संगीत मर्मज्ञ, सुधी जन और सामान्य सुनने वाले सभी का भरपूर प्यार आज भी मिल रहा है.
गाने की शुरुआत में खय्याम रात का वातावरण अपने प्रेल्यूड म्यूजिक के जरिये बनाते हैं, जिसमें वायलिन की आवाज़ एक समां सा बाँध देती है. फिर एक चेहरा स्क्रीन पर नमूदार होता है. दिलीप कुमार. अक्सर जिस गाने में दिलीप कुमार भी होते हैं, हम जैसे बहुत से लोगों के लिए बस दिलीप कुमार ही होते हैं. यहां तो बस दिलीप ही हैं स्क्रीन पर. उन्हें ट्रेजेडी किंग कहते हैं. दर्द की कोई सुन्दरता, ओज और गमक अगर होती है, तो वो उनके चेहरे पर दिखती है. ब्यूटी ऑफ़ मेलंकली! लगभग पूरा गाना उनके चेहरे पर फिल्माया गया है, जो इस बात को भी तस्दीक करता है, कि कुछ ऐसे भी कलाकार हैं जो बिना कुछ किये, सिर्फ अपने चेहरे के हाव-भाव से देखने वाले को बांधे रख सकते हैं. पर्दे का हिलना, सिगरेट के धुंवे के छल्ले और दिलीप की आँखें. उफ्फ.
चैन कैसा जो पहलू में तू ही नहीं
मार डाले ना दर्द-ए-जुदाई कहीं
मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो
एक लहर की तरह चलता है ये गीत. कहीं कोई झटका नहीं, कोई रोड़ा नहीं, कोई टोक नहीं. कोई शब्द चुभता नहीं. कर्कश होना तो दूर तलत की आवाज़ कानों पर इतने हौले से गिरती है कि लगता है कि तलत शब्द बहुत सावधानी से रूई के फाहों की तरह उठाकर आपके जानिब रखते जा रहे हैं, आप सुन नहीं रहे बल्कि अपने कानों से घूंट-घूंट पी रहे हैं. यू डोंट लिसेन टू इट रादर यू स्वैलौ इट न्वाएज़लेस्ली सिप बाई सिप!
तो यूट्यूब के लिंक पर आइये! आइये! `अब तो आजा कि अब रात भी हो गई.’ देखिये कि पर्दे हिल रहे हैं. रात है. रात की ख़ामोशी है. सुनिए, कि इस ख़ामोशी की भी एक आवाज़ है. एक पुकार है. एक विब्रेटो है जो देर तक दिल में मौजूद रहने वाला है.
शाम-ए-ग़म की कसम, आज ग़मगीं हैं हम
आ भी जा, आ भी जा आज मेरे सनम
दिल परेशान है, रात वीरान है
देख जा किस तरह आज तनहा हैं हम
शाम-ए-ग़म की कसमचैन कैसा जो पहलू में तू ही नहीं
मार डाले ना दर्द-ए-जुदाई कहीं
रुत हंसी है तो क्या, चांदनी है तो क्या
चांदनी जुल्म है, और जुदाई सितम
शाम-ए-ग़म की कसम, आज ग़मगीं है हम
आ भी जा, आ भी जा आज मेरे सनम
शाम-ए-ग़म की कसमअब तो आजा के अब रात भी सो गयी
ज़िन्दगी ग़म के सेहराओ में खो गयी
ढूँढती है नजर, तू कहां है मगर
देखते देखते आया आँखों में दम
शाम-ए-ग़म की कसम, आज ग़मगीं है हम
आ भी जा, आ भी जा आज मेरे सनम
शाम-ए-ग़म की कसम
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रुचिता तिवारी/ अमित श्रीवास्तव
यह कॉलम अमित श्रीवास्तव और रुचिता तिवारी की संगीतमय जुगलबंदी है. मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा यह लेख रुचिता तिवारी द्वारा लिखा गया है. इस लेख का अनुवाद अमित श्रीवास्तव द्वारा काफल ट्री के पाठकों के लिये विशेष रूप से किया गया है. संगीत और पेंटिंग में रुचि रखने वाली रुचिता तिवारी उत्तराखंड सरकार के वित्त सेवा विभाग में कार्यरत हैं.
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता). काफल ट्री के अन्तरंग सहयोगी.
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1 Comments
rajesh budhalakoti
वाह…