(पोस्ट को रुचिता तिवारी की आवाज़ में सुनने के लिए प्लेयर पर क्लिक करें)
मेलोडेलिशियस-5
ये ऑल इंडिया रेडियो नहीं है. ये ज़ेहन की आवाज़ है. काउंट डाउन नहीं है ये कोई. हारमोनियम की ‘कीज़’ की तरह कुछ गाने काले-सफेद से मेरे अंदर बैठ गए हैं. यूं लगता है कि साँसों की आवाजाही पर ये तरंगित हो उठते हैं. कभी काली पट्टी दब जाती है कभी सफेद. इन गानों को याद करना नहीं पड़ता बस उन पट्टियों को छेड़ना भर पड़ता है.
कुछ गाने मेरी रगों में दौड़ते हैं. ऐसा लगता है कि जैसे बचपन में माँ ने दूध या घुट्टी के साथ अपनी शहद भरी आवाज़ में गुनगुनाते हुए इन्हें भी मुझे पिला दिया हो.
ऐसा ही एक गाना जो मुझमें बसा हुआ है वो है राजा नवाथे द्वारा निर्देशत फ़िल्म बसन्त बहार (1956) का ‘जा जा रे जा बालमवा.’
इस म्यूज़िकल हिट फ़िल्म में शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी के लिखे और शंकर जयकिशन के संगीत से सजे नौ शानदार गाने थे. फ़िल्म की कहानी कन्नड़ भाषा के विख्यात लेखक टी आर सुब्बाराव के उपन्यास हँसगीते (हंसगीत) पर आधारित है जो अट्ठारहवीं शताब्दी के कर्नाटिक संगीत के शानदार संगीतकार-गायक भैरवी वेंकटसुबैया के जीवन पर आधारित है. हँसगीत (swan song) का मिथकीय अर्थ भी है. ऐसा माना जाता है कि हंस मृत्यु से पूर्व अपना आख़िरी गीत गाता है और वो भी मुंह बंद करके. कहते हैं कि उसका ये आख़िरी गुनगुनाना इतना अद्भुद है कि उसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता. शब्दों की सीमा से परे. सांग विदाउट लिरिक्स.
हिंदी सिनेमा में संगीत और फ़िल्म को दो तरीके से बांधा जा सकता है. फिल्मों के अंदर गाने या गानों के भीतर फ़िल्म. अंतर ये है कि पहले प्रकार की फिल्मों में फ़िल्म के महत्वपूर्ण टर्निंग पॉइंट्स पर गाने कहानी को स्पष्ट करते या उसकी गति बढ़ाने के लिए रक्खे जाते हैं और दूसरे प्रकार की फिल्में वे हैं जिनकी कहानी ही कुछ उपलब्ध गानों के इर्द-गिर्द बुनी जाती है. बसन्त बहार दूसरे प्रकार की फ़िल्म है.
कहना गलत न होगा कि शंकर जयकिशन का सुरीला संगीत ही इस फ़िल्म की जान, स्वाद और निचोड़ है, उसके बिना फ़िल्म शायद कुछ भी न रहे. शंकर जयकिशन ने इसी फिल्म से अपने कैरियर के सफलतम दौर को शुरू किया और इस विश्वास को पुख़्ता किया कि दोनों संगीत की विलक्षण प्रतिभा से भरी एक जोड़ी हैं.
भारत भूषण के अपने प्रोडक्शन की इस फ़िल्म ने ‘बैजू बावरा’, ‘झनक-झनक पायल बाजे’ और ‘तानसेन’ जैसी म्यूज़िकल हिट फिल्मों के संगीत को लोकप्रियता और तो और समालोचक प्रशंसा में भी पीछे छोड़ दिया. इस फ़िल्म में ‘नैन मिले चैन कहां’ जैसे मीठे युगल गीत को राग ‘देस’ जैसे एक गम्भीर राग में प्रस्तुत किया गया तो राग ‘बसन्त बहार’ में गाई गई पंडित भीमसेन जोशी और मन्ना डे की जुगलबंदी ‘केतकी’ फिल्मों में शास्त्रीय संगीत की ठोस और अमिट छाप छोड़ गई. मन्ना डे इस गाने और पंडित भीमसेन जोशी के साथ जुगलबंदी से इतने अभिभूत थे कि उन्होंने उस्ताद रहमान खां से शास्त्रीय गायन में विशेष प्रशिक्षण लिया. इस गाने को याद करते उन्होंने कहीं बताया है कि कहानी के अनुसार इस गाने में उन्हें पंडित जी को हराना था और वो इस बात से घबराए हुए थे. पंडित जी के दिलासे के बाद ही वो गा सके. गाते वक्त पंडित जी ऊंचे ऑक्टेव पर जाते और धीरे-धीरे नीचे आते और जब उन्हें लगता कि पंडित जी मुखड़े की लाइन पकड़ेंगे वो फिर ऊपर चले जाते. ये आरोहावरोह ऐसा था कि जैसे किसी विराट कैनवास पर कोई चित्रकार अपनी कूची से हौले-हौले रंग भर रहा हो. पंडित जी का शास्त्रीय गायन अद्भुद था और उन्हें सिर्फ फ़िल्म में हीरो गोपाल की जीत दर्शाने के लिए ही हराया गया अन्यथा उन्हें पिछाड़ना असम्भव था.
इस फ़िल्म के कई गानों में पन्नालाल घोष की अद्भुद बांसुरी का प्रयोग भी इसके संगीत को अद्वितीय बनाता है.
फ़िल्म के सभी नगीने यूं लगते हैं कि जैसे इन हीरों को शंकर जयकिशन ने किसी संगति की कार्यशाला में तराश दिया हो और ये साबित करते हैं कि ये जोड़ी हर प्रचलन, स्वाद और मांग के अनुसार समान कुशलता से संगीत प्रणयन कर सकती है.
और इसी फिल्म में लता के गाए सबसे खूबसूरत नग़मों में से एक ‘जा जा रे जा बालमवा’ भी है जो तीन ताल पर राग झिंझोटी में संगीतबद्ध है. एक अप्सरा पर आधारित इस राग में आत्म दया की भावना से भरे बहुत से शानदार गाने बनाए गए हैं जैसे ‘तुम मुझे यूं भुला न पाओगे’, ‘मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम’ और सुचित्रा सेन पर फिल्माया अमर गीत ‘रहते थे कभी जिनके दिल में.’
शंकर जयकिशन की तरह लता के अंदर भी रागदारी कूट-कूट कर भरी हुई है. अन्तरे से मुखड़े पर आने वाले स्थानों को देखिये. अगर आप क्लासिकल संगीत नहीं भी जानते हैं तो भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. ‘कैसो हरजाई दईया’ के बाद जो आलाप है वो बहुत संक्षिप्त होते हुए भी सीधा दिल पे चोट करता है. मुझे ऐसा लगता है कि शास्त्रीय और सुगम संगीत के जो सबसे आदर्श गुण हो सकते हैं उसका सबसे बेहतर मिश्रण का उदाहरण हो सकती हैं लता.
अपनी गायकी में वो शब्द इस तरह से उभार देती हैं कि शब्द खुद बोलते से लगते हैं. आप अवाक रह जाते हैं. ‘जा जा रे जा’ के बाद ‘बालमवा’ इस तरह से कहती हैं कि लगता है तीन कदम आगे बढ़कर एकदम से पलट जाता हो कोई. आप ‘जा जा रे जा’ के बाद बालमवा में मुड़ने का पूरा एक्शन अनुभव कर सकते हैं. इसी तरह से ‘ग़ैर के घर करली रात जगाई’ में एक स्पष्ट आरोप है जो आवाज़ के दर्प में झलकता है और एकदम से दूसरी लाइन ‘मोसे कहे तेरे बिना नींद न आई’ में वही उलाहना, चिढ़ाने के अंदाज़ में आ जाता है. ऐसा लगता है ‘तेरे बिना नींद न आई’ प्रेमी की कही बात का रिपीटीशन है उसे ज़रा सा मिमिक करते हुए. जैसा आम-तौर पर प्रेमी-प्रेयसी के झगड़ों में होता है. हाय! ऐसी अद्भुद गायकी. और हां, ‘जा जा रे जा’ के बाद कहीं-कहीं जो एक एक्स्ट्रा ‘जा’ है वही है लता की गायकी का पंच उनके हुनर का उरूज़ उनके लता होने का मुखर प्रमाण. आइसिंग ऑन द केक. है ना!
बोल भी कैसे सशक्त हैं देखिये. ‘कांधे लगा लाए बिंदिया किसी की!’ आह! कमीज़ के बटन में सौतन के बाल नहीं, कॉलर पर लिपस्टिक के दाग नहीं… वो देखती है पति के कंधे पर सौतन की बिंदी. बेवफाई का ऐसा सजीव, रंगीन और तीक्ष्ण बिम्ब कहां देखने को मिलता है.
कहानी के अनुसार ही शायद गाने को एक मुजरे के रूप में फिल्माया गया है. राधा बनी कुमकुम ने इसपर सुंदर कत्थक नृत्य भी किया है. लेकिन एक दरबारी गाने से इतनी मीठी और बांध लेने वाली भावनाएं मुझमें क्यों उठती हैं? वो इसलिए कि इसमें प्रेयसी अपने प्रेमी को उसकी बेवफाई पर इतने संगीतमय ढंग से उलाहना देती है कि सुनने वाले का उसके दर्द के साथ एक अनोखा जादुई रिश्ता सा स्थापित हो जाता है.
अगर आप भी बेवफाई की व्यथा को संगीतमय जादू के माध्यम से महसूस करना चाहते हों तो यूट्यूब के लिंक को क्लिक कीजिए और स्वर कोकिला के साथ मार्मिक मधुरता की दुनिया में चले जाइये.
जा जा रे जा, बालमवा
सौतन के संग रात बिताई
काहे करत अब झूटी बतियाँ
जा जा रे जा, बालमवाग़ैर के घर करी रात जगाई
मोसे कहे तेरे बिना नींद न आयी
कैसो हरजाई दैय्या
जा जा रे जा, बालमवा…काँधे लगा लायी बिन्दिया किसी की
जानूँ मैं चुरायी तूने निन्दिया किसी की
लाज न आयी तोहे
जा रे जा, जा रे जा, जा रे जा, बालमवा
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रुचिता तिवारी/ अमित श्रीवास्तव
यह कॉलम अमित श्रीवास्तव और रुचिता तिवारी की संगीतमय जुगलबंदी है. मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा यह लेख रुचिता तिवारी द्वारा लिखा गया है. इस लेख का अनुवाद अमित श्रीवास्तव द्वारा काफल ट्री के पाठकों के लिये विशेष रूप से किया गया है. संगीत और पेंटिंग में रुचि रखने वाली रुचिता तिवारी उत्तराखंड सरकार के वित्त सेवा विभाग में कार्यरत हैं.
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता). काफल ट्री के अन्तरंग सहयोगी.
देख लो आज हम को जी भर के
महसूस तुम्हें हर दम फिर मेरी कमी होगी
जो मैं जानती बिसरत हैं सइयाँ
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