आज जिस स्थान पर कुमाऊँ विश्वविद्यालय का मुख्य परिसर ‘डी. एस. बी.’ स्थित है, आजादी से पहले वहाँ पर ‘वैलेजली स्कूल’ था जहाँ अंग्रेजों के बच्चे पढ़ते थे. उन दिनों गढ़वाल और कुमाऊँ में उच्चशिक्षा प्राप्त करने के लिए ऐसी कोई शिक्षण संस्था नहीं थी, जहाँ इस क्षेत्र के बच्चे पढ़ सकें. ऐसे में क्षेत्र के अधिकतर युवा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने निकटतम स्थान इलाहाबाद, लखनऊ जाते थे. (Education Dan Singh Maldar And GB Pant)
स्वाभाविक है कि इतनी दूर जाने की स्थिति सबकी नहीं हो पाती थी, इसलिए प्रतिभाशाली होने के बावजूद इस क्षेत्र के बच्चे उच्चशिक्षा से वंचित रह जाते थे. आजादी के बाद इस संकट को लोगों के द्वारा तीव्रता से महसूस किया गया. क्षेत्र के लोगों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे इस दिशा में पहल करते. न उनके पास राजनैतिक नेतृत्व था जिससे कि वे सरकार पर दबाव बना सकते. (Education Dan Singh Maldar And GB Pant)
एक सुखद संयोग के रूप में उन्हीं दिनों उत्तराखंड के जंगलों में ठेकेदारी के जरिये खासा रूपया कमा चुके ठाकुर दान सिंह बिष्ट एक बड़े उद्यमी के रूप में उभर रहे थे. दूसरी ओर इसी इलाके से बड़े राजनीतिज्ञ के रूप में पंडित गोविंदबल्लभ पंत राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुके थे. दोनों ही के मन में यह दंश था कि काश, कोई ऐसी संस्था होती जहाँ उनके इलाके के गरीब मगर प्रतिभाशाली युवा उच्चशिक्षा के माध्यम से नए ज्ञान-विज्ञान का अंग बन सकें. अंततः दोनों ने मिलकर इस सपने को पूरा किया.
अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में पंतजी ने प्रदेश में दो ऐसे आदर्श महाविद्यालय स्थापित करने की योजना बनाई जहाँ के प्राध्यापकों को विश्वविद्यालयों से अधिक वेतन दिया जाय. १९५१ में दानसिंह बिष्ट जी ने तीन लाख की धनराशि प्रदान कर अपने पिता ठाकुर देब सिंह बिष्ट के नाम से इस संस्था की नींव रखी और पंतजी ने इसे सरकार से पास कराया. विश्वविद्यालयों से अधिक वेतनमान देने के कारण देश के कोने-कोने से चोटी के विद्वान यहाँ आये और यह कॉलेज देश की प्रतिष्ठित शिक्षण-संस्थाओं में गिना जाने लगा. कुमाऊँ और गढ़वाल के दूरदराज के इलाकों से विद्यार्थी यहाँ आते थे. उन दिनों हालत यह थी कि विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में यहाँ के पढ़े छात्रों को इलाहाबाद के विद्यार्थी के बराबर महत्व दिया जाने लगा. छठे-सातवे दशक तक उत्तराखंड की अलग-अलग क्षेत्रों की सारी प्रतिभाएं इसी कॉलेज से पढ़ी हैं.
मगर लगभग एक दशक तक ही देब सिंह बिष्ट कॉलेज को यह सौभाग्य प्राप्त हो सका. चंद्रभानु गुप्त के मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने सरकार में प्रस्ताव पास कर वेतनमान घटा दिए. उनका तर्क था कि कॉलेज के शिक्षकों का वेतन यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक से अधिक कैसे हो सकता है.
यह पहला मौका था जब किसी संस्था को दिए जा रहे वेतनमान संशोधित करने के बजाय घटा दिए गए. रोचक बात यह है कि यह काँइयाँ मुख्यमंत्री सीबी गुप्ता उत्तराखंड के रानीखेत से ही विधायक चुना गया था.
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– काफल ट्री डेस्क
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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1 Comments
bhrigupandit
गोबिंद वल्लभ पंत जी व ठाकुर दान सिंह मालदार के उत्तराखंडवासी हमेशा के लिए ऋणि रहेंगे। इन महानुभावों ने जो कुछ किया उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। दुखद बात है कि पंत जी जैसा कद्दावर नेता दोबारा पैदा होना मुश्किल है। उनकी राजनीतिक विरासत को कोई सम्भाल न सका,उनके रिश्तेदार भी दिल्ली दरबार के ही होकर रह गए। पंत जी अपने गांव, प्रदेश के लोगों को कभी नहीं भूले। इस महान आत्मा को हमारा शत शत नमन।