1916 से 1926 तक कुमाऊँ परिषद का इतिहास ही बड़ी सीमा तक उत्तराखण्ड में स्थानीय आन्दोलनों तथा राष्ट्रीय संग्राम का इतिहास भी है. कुमाऊँ परिषद सामान्य समाज सुधार के उद्देश्यों वाला संगठन न होकर निश्चित राजनैतिक व्यक्तित्व का संगठन था. जिस साल परिषद की स्थापना हुई थी उसी साल 30 सितम्बर 1916 को नैनीताल दरबार में संयुक्त प्रांत के लाट जेम्स मेस्टन ने कहा था कि अंग्रेजों ने 1815 में कुमाऊँ में सदियों पुराना कुशासन समाप्त किया था. यहाँ की जनता पर सरकार का भार बहुत कम है.
कुमाऊँ परिषद का पहला अधिवेशन सितम्बर 1917 में जयदत्त जोशी (अवकाश प्राप्त डिप्टी कलैक्टर) की अध्यक्षता में अलमोड़े में हुआ. स्वागताध्यक्ष राय बहादुर पीताम्बर दत्त जोशी और मंत्री रईस लक्ष्मीदत्त जोशी थे. इस अधिवेशन में अलमोड़ा अखबार के संपादक बदरी दत्त पाण्डे ने एक कविता पढ़कर सुनाई थी.
“राजा वहीं रहेंगे श्रीमान जार्ज पंचम
प्रत्येक श्वेत चर्मा राजा न बन सकेगा.”
सिर्फ इस कविता पर राय बहादुर बदरी दत्त जोशी ने आपत्ति की और विरोध में सभी युवक अधिवेशन से उठकर चले गये. पहले अधिवेशन में ही परिषद में दो स्पष्ट धाराएँ दृष्टिगोचर हो रही थी. एक ओर अवकाश प्राप्त अधिकारी, सरकार परस्त तथा स्थानीय रायबहादुर थे, जो अनुनय – विनय से सुधारों को लाना और अधिकारों को प्राप्त करना चाहते थे. दूसरी ओर तिलक प्रभावित राष्ट्रवादी युवक थे, जिन पर आक्रामक राष्ट्रवादिता, होमरूल लीग का गहरा असर हुआ था. इनमें बदरी दत्त पाण्डे, हरगोविन्द पंत, लक्ष्मीदत्त शास्त्री, गोविन्द बल्लभ पंत आदि थे. गोविन्द बल्लभ पंत गोखले से अधिक प्रभावित बताये जाते थे. लक्ष्मीदत्त शास्त्री को ग्रामीण क्षेत्रों में संगठन तथा प्रचार हेतु नियुक्त किया गया था. परिषद की गाँवों में पहचान खड़ी करने में लक्ष्मीदत्त शास्त्री का असाधारण योगदान रहा था. पहले अधिवेशन में इस दंद्व के बावजूद जंगलात, बेगार, काउन्सिल में प्रतिनिधित्व, कुमाऊँ को गैर आयनी हैसियत से मुक्त करने, शिक्षा तथा उद्योग सम्बन्धी प्रस्ताव पारित हुए. भवाली में तारपीन की फैक्ट्री की स्थापना तथा स्वतंत्र उत्तरदायी शासन की मांग भी इनमें थी. इस बीच 20 नवम्बर 1917 .को बीरोंखाल, 28 अप्रैल 1918 को बेरीनाग, मई तथा अक्टूबर 1918 में चमोली तथा गंगोली में बेगार का प्रत्यक्ष विरोध किया गया था.
कुमाऊँ परिषद का दूसरा अधिवेशन 24-25 दिसम्बर 1918 को हल्द्वानी में हुआ! इसके अध्यक्ष राय बहादुर तारादत्त गैरोला थे. उन्होंने कुमाऊँ को गैर आयनी न रखने, बेगार से मुक्ति और जंगलात के अधिकार जनता को लौटाने सम्बन्धी प्रस्ताव रखे. हरगोविन्द पंत ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि दो साल के भीतर कुली उतार नहीं उठाया गया तो जनता सत्याग्रह करेगी. प्रेम बल्लभ पाण्डे ने इसका समर्थन किया.
दिल्ली में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में उत्तराखण्ड से 60 से अधिक प्रतिनिधि गये थे, जिनमें अधिकांश कुमाऊँ परिषद के सदस्य थे. इसी साल बदरी दत्त पाण्डे कलकत्ता गये, जहाँ उन्होंने बेगार के बारे में गाँधी को अवगत कराया. गाँधी के पास समय कम था और उन्होंने कहा कि जब मौका लगेगा पहाड़ आऊंगा.
स्थानीय पत्र ज्यादा आक्रामक होने लगे थे. 1918 में बदरी दत्त पाण्डे ने ‘अलमोड़ा अखबार’ के एक संपादकीय में नौकरशाही पर व्यंग्य करते हुए ‘जी हजूरी होली’ और डिप्टी कमिश्नर लोमश पर ‘लोमश की भालूशाही’ नामक लेख प्रकाशित किए थे. इसकी प्रतिक्रिया में ‘अलमोड़ा अंखबार’ से जमानत माँगी गई और 48 साल पुराना पत्र बंद कर दिया गया. इस घटना को पौड़ी के सहंयोगी पत्र ‘पुरुषार्थ’ ने यों व्यक्त किया था
“एक फायर में तीन शिकार,
कुली, मुरगी और ‘अलमोड़ा अखबार”
“अलमोड़ा अखबार’ से 1000 रु0 की जमानत माँगने, व्यवस्थापक सदानन्द सनवाल से त्यागपत्र लिखवा लिये जाने और अन्ततः इसे बन्द किये जाने के पीछे महज दो संपादकीय ही नहीं थे बल्कि 1913 में बदरी दत्त पाण्डे के आने के बाद से ‘अलमोड़ा अखबार’ शासन की नजरों में खटकने लगा था. जब तक समस्याओं पर अखबार केन्द्रित रहा नौकरशाही को बहाना नहीं मिला. अब जब डिप्टी कमिश्नर के विरुद्ध ही लिखना शुरू हुआ तो यह तीव्र प्रशासनिक प्रतिक्रिया हुयी.
‘अलमोड़ा अखबार’ का बंद होना एक नयी शुरूआत का सबब बना. हरिकृष्ण पंत, मोहन सिंह मेहता, हरगोविन्द पंत, गुरुदास साह आदि के सहयोग से बदरी दत्त पाण्डे ने 15 अक्टूबर 1918 से देशभक्त प्रेस की स्थापना कर ‘शक्ति’ साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया. यह विशुद्ध राष्ट्रवादी पत्रकारिता की शुरूआत थी जहाँ ‘अलमोड़ा अखबार’ में आक्रामकता अन्तिम 6-7 सालों में विकसित हुई थी वहीं यह ‘शक्ति; में जन्मजात थी. “शक्ति ने पहले ही अंक में लिखा थाः
“उसका उद्देश्य देश की सेवा करना, देश हित की बातों का प्रचार करना, देश में अराजकता और कुराजकता के भावों को न आने देना, प्रजा पक्ष को निर्भीक रूप से प्रतिष्ठा पूर्वक प्रतिपादित करना है! शक्ति जन समुदाय की पत्रिका है. वह सदा विशुद्ध लोकतंत्र को प्रकाश करेगी. जहाँ जहाँ अत्याचार, पाखंड और शासन की घींगाघींगी से लोक पीड़ित होता है, वहाँ शक्ति अपना प्रकाश डाले बिना न रहेगी!”
क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था! उत्तराखण्ड ने इसमें सबसे सशक्त शूरवीर ही नहीं दिये बल्कि वार लोन के अन्तर्गत सरकार को आर्थिक मदद भी दी! लेकिन इस दौर में लागू भारत सुरक्षा कानून को रौलेट एक्ट का दमनकारी रूप दे दिया गया. इसके अन्तर्गत शासन को दमन तथा नियंत्रण के विशेष अधिकार प्राप्त थे. इसके विरोध में फरवरी 1919 में सत्याग्रह लीग की स्थापना हुई. 21 मार्च 1919 को श्रीनगर में गढ़वाल परिषद् की सभा में स्थानीय प्रश्न उठे और कुमाऊँ परिषद् की अनेक इकाइयों में भी.
देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तराखण्ड में भी जगह जगह रौलेट एक्ट के विरोध में प्रदर्शन और हड़तालें हुई. चोरगलिया, हल्द्वानी, काशीपुर, देहरादून और अलमोड़े में 7 अप्रैल 4919 को रौलेट एक्ट का तीव्र विरोध हुआ. 14 अप्रैल को गौँधी की गिरफ्तारी पर अलमोड़े में विशाल जुलूस निकाला गया.
13 अप्रैल 1919 को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड पर शक्ति ने एक संपादकीय में लिखाः
“अब भारतवासियों को चाहिए कि वे पीछे पग न हटाएं अब प्रण कर लें कि चाहे सर्वस्व जाये पर भारत का मान, स्वाघीनता, मेल जोल का अन्त न हो. सारे भारत माता के सपूत निर्भय होकर अपनी जन्म भूमि की गोद में सुखपूर्वक रहें” (शक्तिः 13 जनवरी 20).
कुमाऊँ में स्थानीय विषयों के साथ रौलेट एक्ट विरोध का राष्ट्रीय अहम प्रश्न भी जुड़ गया. 11 मई 1919 को नन्दादेवी प्रांगण अलमोड़े में हरगोविन्द पंत की अध्यक्षता में सभा हुई. 18 अगस्त 1919 को बानड़ीदेवी, (अलमोड़े) में बेगार तथा जंगलात की समस्याओं पर केन्द्रित विराट सभा का आयोजन हुआ. जून 1919 में मल्ला कत्यूर के किसानों ने पटवारियों को दिये जाने वाले खाजे (अन्न) को बंद कर दिया. ज्यादती किये जाने पर आन्दोलन की चेतावनी भी दी गई थी. 31 अगस्त 1919 को कुमाऊँ परिषद् की रामगढ़ शाखा की बैठक हुई तथा 6 अक्टूबर 1919 को मझेड़ा शाखा की, जिनमें विभिन्न प्रस्ताव पारित हुए जो रोलेट एक्ट के विरोध, वन तथा बेगार आदि के प्रश्नों से सम्बन्धित थे (शक्तिः 10 सितम्बर तथा 28 अक्टूबर 1919). इसमें गोविन्द बल्लभ पंत, हरगोविन्द पंत, मोहन सिंह मेहता, प्रेमबल्लभ पाण्डे, श्री कृष्ण जोशी, इन्द्रलाल शाह, भोला दत्त पाण्डे आदि उपस्थित थे.
कुमाऊँ परिषद का तीसरा अधिवेशन 22-24 दिसम्बर 1919 को कोटद्वार में हुआ. इसके अध्यक्ष राय बहादुर बदरी दत्त जोशी थे. अधिवेशन में उत्तराखण्ड के सैकड़ों प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिनमें गोविन्द बल्लभ पंत, बदरी दत्त जोशी, मोहन सिंह मेहता, इन्द्र लाल शाह, जय लाल शाह, दुर्गादत्त पंत, रामदत्त ज्योर्तिविद, प्रेम बल्लभ पाण्डे, भोला दत्त पाण्डें, बदरी दत्त पाण्डे, मोहन जोशी, मुकुदी लाल, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, गिरिजा प्रसाद नैथानी, प्रताप सिंह, धनी राम मिश्र, विश्वम्भर दत्त चंदोला, मथुरादत्त नैथाणी आदि थे. कुल प्रतिनिधि संख्या 500 से ज्यादा थी. गढ़वाल जिले के प्रतिनिधियों की इतनी अधिक हिस्सेदारी किसी और अधिवेशन में नहीं हुयी. अधिकांश समय बेगार तथा जंगलात के विषयों पर केन्द्रित रहा. 1918 के प्रस्तावानुसार जनता का आहवान किया गया कि वे कुली बेगार न दें. इससे बुजुर्ग नरममार्गियों और युवा गरममार्गियों में मतभेद उत्पन्न हो गया. अन्ततः प्रस्ताव को बहाल कर समझौता हो गया. मोहन जोशी का ओजस्वी भाषण इस सम्मेलन में हुआ था. इस अधिवेशन से ही 100 से अधिक नेता-कार्यकर्ता अमृतसर कांग्रेस में शामिल होने को चले गये, जिनमें मुकुंदी लाल, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, बदरी दत्त पाण्डे, हरगोविन्द पंत, मोहन सिंह मेहता आदि थे! 26 सितम्बर को जलियाँवाला बाग की सभा में भाषण देने वालों में उत्तराखण्ड से बदरी दत्त पाण्डे भी थे. इस अधिवेशन में बदरी दत्त पाण्डे तथा गोविन्द बल्लभ पंत को सजेस्ट कमेटी का सदस्य भी चुना गया था.
पिछली कड़ी उत्तराखण्ड में ब्रिटिश सत्ता के शक्तिशाली होने का काल
मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक द्वारा सम्पादित सरफरोशी की तमन्ना के कुछ चुनिन्दा अंश.
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