अक्सर हमें अपने बड़े-बूढ़ों से सुनने को मिलता है कि एक ज़माने में सैनिकों या किसी अन्य वजह से घर से मीलों दूर रह रहे प्रवासियों के परिवारजन उनकी अनुपस्थिति में ही उनका विवाह कर दुल्हन घर ले आया करते थे. आज भी प्रवासी मजदूरों पर यह फब्ती कसी जाती है कि इनके वहां तो इनकी तस्वीर के साथ ब्याह कर इनकी वधू ला दी जाती है. एक किवदंती के रूप में प्रस्तुत की जाने वाली ये बात अतीत में सचमुच एक विवाह का गैर अनुष्ठानिक रूप हुआ करता था, जिसे बाकायदा सप्तपदी की तरह ही वैवाहिक मान्यता प्राप्त थी.
राजस्थान के राजपूतों में राजे-रजवाड़ों के जमाने में इस बहुप्रचलित विवाह परंपरा को खांडा विवाह कहा जाता था. राजपूत नौजवानों को अचानक ही प्रारम्भ हो गए युद्ध में शामिल होना पड़ता था. ऐसे मौकों पर पहले से नियत तिथि के दिन उनकी कटार, तलवार या ढाल को प्रतिनिधि के रूप में ले जाकर विवाह संपन्न करा दिया जाता था. राजस्थान में कुछ दशक पहले तक सगाई के लिए यह तरीका खूब प्रचलन में था. इसी से मिलती-जुलती विवाह परम्परा हिमाचल और उत्तराखण्ड में भी मौजूद रही है. उत्तराखण्ड के कुमाऊँ में इसे डोला-विवाह तथा गढ़वाल में सरोल-विवाह कहा जाता था.
इस परंपरा के तहत नियत तिथि को वर पक्ष के सगे सम्बन्धी एवं इष्ट-मित्र वर के बगैर ही बिना बारात लिए वधू पक्ष के घर उसके प्रतिनिधि के रूप में जाया करते थे. वर के स्थान पर उसकी किसी भी निजी वस्तु को ले जाया जाता था. इसे डोला ले जाना कहा जाता था. कन्या के पिता के घर पहुँचने के बाद वधू को अक्षत, पिठ्या लगाकर और उसके पिता को दक्षिणा देकर बगैर किसी अनुष्ठान के वधू को ससुराल के लिए विदा करा लाया जाता था. इस विवाह में किसी भी तरह का कोई अनुष्ठान नहीं किया जाता था. गौरतलब है कि गैर ब्राह्मणों में प्रचलित विवाह के इस रूप को सप्तपदी व आंचल विवाह की तरह ही सामाजिक एवं वैधानिक मान्यता प्राप्त हुआ करती थी. इस तरह लायी गई वधू को भी वे सभी अधिकार मिला करते थे जो सप्तपदी के अनुष्ठान से लायी गयी वधू को प्राप्त हुआ करते थे.
डोला-विवाह द्वारा लायी गयी वधू के साथ पहले बच्चे के नामकरण या फिर नए भवन के गृहप्रवेश जैसे मौकों पर आंचल विवाह की औपचारिकता पूरी कर ली जाती थी. वर के आने पर सुविधानुसार किसी मंदिर में देवता को साक्षी मान मंदिर के चार फेरे लेकर भी विवाह संस्कार की औपचारिकता संपन्न कर ली जाती थी.
इस विवाह के कारणों के पड़ताल करें तो सैनिक के रूप में घर से बहुत दूर होना एक वजह हुआ करती थी. उस दौर में शादी से पहले लड़का-लड़की के एक दूसरे को देखने और परिचय जैसा रिवाज नहीं था. दूर-दराज नौकरी कर रहे अपने बेटे से संवाद के लिए भी चिट्ठियां ही माध्यम हुआ करती थीं. ऐसे में घर वालों को अचानक कोई लड़की वधू के रूप में जंच जाये और तो जन्मकुंडली मिलाकर उसे ब्याह लाया जाता था और लड़के को इसकी सूचना दे दी जाती थी.
जीवन के सात दशक देख चुके नारायण दत्त भट्ट बताते हैं कि उस ज़माने में सरोल ब्या का एक प्रमुख कारण गरीबी भी हुआ करता था. वर पक्ष को कोई लड़की अपनी बहू के रूप में पसंद आ जाया करती थी और जन्मकुंडली मिलने के बाद तत्काल शादी की जानी होती थी. लेकिन दोनों ही पक्षों या किसी एक पक्ष के पास शादी के अनुष्ठान व दावत के लिए रूपये नहीं हुआ करते थे, ऐसे में सरोल ब्या कर वधू को ले आया जाता था. तत्काल शादी का कारण बताते हुए वे कहते हैं – “बड़ा संयुक्त परिवार हुआ करता था, साथ में खेती और पशुपालन की जिम्मेदारी भी सो हाथ बटाने के लिए बहू की जरूरत हुआ करती थी. लड़के को भी बड़े होकर खेती-पाती का ही काम संभालना होता था सो लड़की वाले भी भविष्य के प्रति आश्वस्त रहा करते थे.”
कई मौकों पर स्वजातीय कन्या न मिल पाने के कारण भी उच्चकुलीन राजपूत और वैश्य इस विवाह प्रथा के इस्तेमाल किया करते थे. उस समय अपने वर्ण में ही कम श्रेष्ठ मानी जाने वाली जाति में विवाह करने वाले परिवार को जाति से निकाल कर उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता था. इस विवाह तथा विवाह से प्राप्त संतानों को भी किसी तरह की वैधता प्रदान नहीं की जाती थी, न ही उन्हें पैतृक संपत्ति पर अधिकार ही मिला करता था. लेकिन डोला-विवाह, सरोल-विवाह कर कन्या को घर लाकर वर के घर में ही सप्तपदी से आंचल विवाह कर लिया जाए तो विवाह को सामाजिक मान्यता मिल जाया करती थी. उनके बच्चों को भी संपत्ति पर पैतृक अधिकार मिल जाया करते थे. इस तरह सजातीय कन्या न मिलने पर लड़के वाले डोला-विवाह, सरोल-विवाह कर समस्या का समाधान कर लिया करते थे. हालाँकि यह अंतर्जातीय विवाह भी वर्ण से बाहर किया जाने वाला विवाह नहीं हुआ करता था. यह कन्याएँ उनके ही वर्ण की निम्नजाति की हुआ करती थीं, मतलब उच्चकुलीन क्षत्रिय खुद से निम्न जाति की ही क्षत्रिय कन्याओं से विवाह करने के लिए इस परम्परा का सहारा लिया करते थे. ऐसा भी कहा जा सकता है कि यह उच्चकुलीन क्षत्रियों एवं वैश्यों को सजातीय वधू न मिल पाने पर निम्नजातीय वधू लाने की मजबूरी के बाद जातिच्युत न होने और अपनी संतति को विरासत सौंप पाने के समाधान के तौर पर भी इस विवाह के समाधान को निकाला गया होगा. इस तरह पैतृक संपत्ति की विरासत की समस्या का समाधान भी कर लिया जाता था.
इस परंपरा से किये गए विवाह की कई अन्य विशेषताएँ भी हुआ करती थीं. जातिगत कारणों से डोला विवाह कर लायी गयी लड़की का अपने घरवालों से पूर्णतः सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाता था. उसे नए परिवार में विलीन हुआ मान लिया जाता था. ऐसा करके डोला-विवाह, सरोल-विवाह करने वाला वर पक्ष लड़की की जाति में अपनी लड़की का विवाह हो पाने की संभावना को ख़त्म कर देता था. इस तरह ब्याहकर लायी गयी लड़की का पति अगर आंचल विवाह की रस्म पूरी होने से पहले ही दुर्घटनावश मर जाये तो उसे एक ब्याहता के सभी हक़ मिला करते थे. लेकिन सप्तपदी विवाह से पहले ही विधवा होने पर उसे कुंवारी कन्या मानते हुए दोबारा शादी करने की अनुमति दी जाती थी, फिर चाहे वह अपने पति के साथ कितने ही बरस क्यों न रही हो. हालाँकि जोहार में ऐसा स्थिति में उसका विवाह विधवा का पुनर्विवाह ही माना जाता था.
सरोल या डोला विवाह अब पूर्णतः लुप्त हो चुकी विवाह परंपरा है.
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