दो पैसे की धूप, चार आने की बारिश
कि जैसे अठन्नी की कला और सोलह आना खुशी
दीप्ति नवल अदाकारा हैं, कवि हैं, पेंटर हैं, उनके जीवन में संगीत भी है और वो फिल्म निर्देशक भी हैं. इन सबके के साथ आप अलग-अलग `बहुत अच्छी’ विशेषण लगा सकते हैं. रजित कपूर एक स्ट्रगलिंग गीतकार हैं. फिल्म में. गीतकार के साथ जुड़ा हुआ ये स्ट्रगलिंग शब्द फिल्मों की दुनिया में जितना अश्लील हो सकता है, लगभग उतनी ही भंगिमा के साथ. लेकिन ये फिल्म की कहानी के हिसाब से उतना भर ज़रूरी है जितना वो और फिल्म की नायिका मिलकर बहुत सारे पुराने नगमें गुनगुनाते हैं. जो ज़रूरी तथ्य रजित के साथ है वो ये कि फिल्म में वो `गे’ बने हैं. समलैंगिक.
मनीषा कोईराला एक परित्यक्ता हैं, माँ हैं और हैं वारांगना यानि प्रोस्टिट्यूट. माँ भी ऐसे बच्चे की जो जन्म से ही लकवाग्रस्त है, बोल नहीं सकता चल नहीं सकता. इससे ज़्यादा महत्व की बात ये है कि इस बच्चे की ऐसी अवस्था की वजह से ही मनीषा परित्यक्ता हैं. उनका पति बच्चे के जन्म के समय उसे देखकर ही भाग गया. कहानी का गुम्फन कितना अद्भुद है. वो माँ है लेकिन माँ होने की वजह से छोडी गई है और छोड़े जाने की वजह से उसे `धंधा’ करना पड़ता है. ऐसी माँ कैसी होगी? ऐसी प्रोस्टिट्यूट कैसी होगी? ऐसी स्त्री ही कैसी होगी?
रजित ‘गे नेक्स्ट डोर’ टाइप ही हैं. ओ कम ऑन एक्सेप्ट इट. करन जौहर की फिल्मों के लाउड और ओवरस्टेटेड समलैंगिकों की तरह नहीं जो अजीब से गेट अप में रहते हैं, जिनकी पूरी भाव भंगिमा अत्यधिक अश्लील दिखती है, जो हमारे आस-पास के सामान्य लोगों में से नहीं दिखते. कुछ दृश्यों को छोड़ दिया जाए तो रजित बिलकुल हमारे घर में, हमारे बाजू में रहने वाले लगते हैं सामान्य इंसान. ये दीप्ति की उपलब्धि कही जाएगी कि समलैंगिकता की पूरी बहस को उसकी सामाजिक स्वीकृति के प्रश्नों के बीच बहुत हौले से रख दिया है.
फिल्म में बहुत लम्बी चौड़ी वैचारिकी नहीं है, बहस नहीं है और तो और इतने सेंसिटिव मुद्दे पर कोई ओवर ड्रैमेटिक, खूब सारे डायलॉग्स से भरा इमोशनल सीन भी नहीं है. कोई समाधान का दावा भी नहीं है. इन दो-तीन टूटी-फूटी जिंदगियों को जोड़कर फिल्म बस इतना कहना चाहती है कि कुछ अधूरे ख़्वाबों को एक साथ संजोकर भी एक मुकम्मल ज़िन्दगी बन सकती है.
रजित बुरे हो सकते थे, या दर्शकों को बुरे दिख सकते थे क्योंकि हमारे पास इस चरित्र को पर्दे पर रिलेट करने के लिए कोई पैमाना मौजूद नहीं था. `अलीगढ़’ फिल्म बाद में आई है और मनोज बाजपेयी ने इस किरदार को जो भव्यता दे दी है, शायद ही वहां कोई पहुँच सके. लेकिन रजित इतने सहज हैं कि आप मित्र की तरह उनके साथ पानी में पैर डाले गुनगुना सकते हैं, पार्टनर (मुझे लगता खास इसी एक शब्द के सामाजिक वितान पर पूरी कथा बुनी गई है) के जाने से व्यग्र हो उठे पुरुष मित्र को कांधा दे सकते हैं और एक स्त्री के साथ प्रेम प्रयास में बहुत कोशिशों के बाद भी असहज-असहाय पीड़ा में तड़पते पुरुष के हाथ थाम सकते हैं.
मनीषा एक अधेड़ हो चली वेश्यावृत्ति में लिप्त स्त्री, अपने प्रोफेशन से असंपृक्त हो चली स्त्री तथा स्त्रीत्व के सहज सौंदर्य और इस सौंदर्य की ताकत को समझने वाली स्त्री के रूप में सधी हुई दिखती हैं. मतलब ये कि वेश्यावृत्ति को लेकर समाज की प्रचलित दोगली मान्यताओं के सामने स्त्री को खालिस स्त्री स्थापित करने में सक्षम. (Netflix Movie Review)
फिल्म दृश्य-अदृश्य के बीच एक नाता जोड़ती है. कहे-अबोले के बीच एक डोर बांधती है. स्वीकृत-तिरस्कृत के बीच एक पुल बनाती है. काले और सफेद के बीच कहीं किसी रंग में ये धीरे-धीरे आपके सामने एक कैनवास सजाती है जिसे आप देर तक टिक जार देखना-सुनना-गुनना चाहते हैं. फ़िल्म में भरपूर बारिश है और खूब धूप है. दोनों. बारिश आँखों में है, धूप पीठ पर. परिस्थितियों के बरक्स एक आश्वासन है. वीरेन डंगवाल से शब्द उधार लूं तो `आएँगे, उजले दिन ज़रूर आएँगे.’ (Netflix Movie Review)
फ़िल्म 2009 में बनी, कान फिल्म फेस्टिवल में स्क्रीन हुई पर थिएटर में रिलीज़ नहीं हो पाई थी, इस समय इसकी बात इसलिए कि अब ये नेटफ्लिक्स पर एयर हो रही है. और इसलिए भी कि दीप्ति कवि भी हैं… पेंटर भी और…! कुछ लोग उस बच्चे की निर्दोष निश्छल मुस्कान को लेना चाहेंगे जो अनामंत्रित सा इस दुनिया में आया और बेहद अकेला उपेक्षित जीवन जी रहा है, कुछ लोग पुरुष और स्त्री के शाश्वत सम्बन्धों में उस स्वीकृति को लेना चाहेंगे जो आधे-अधूरे लोगों के को भी जीने का कारण दे सकती है, अगर इस फ़िल्म से कुछ लेने को कहे कोई तो मैं तो वो पीले गुब्बारों से भरा स्कूटर लेना चाहूँगा जो फिल्म में कई बार आता है. बिना बताए. अनायास. और चला जाता है. कहा ना! दीप्ति कवि भी हैं, पेंटर भी और… !! (Netflix Movie Review)
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अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) .
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