दो बहने थी. बड़ी का कस्बे में एक सौदागर से विवाह हुआ था. छोटी देहात में किसान के घर ब्याह थी. बड़ी का अपनी छोटी बहन के यहां आना हुआ. काम निबटकार दोनों जनी बैठीं तो बातों का सूत चल पड़ा. बड़ी अपने शहर के जीवन की तारीफ करने लगी- देखो, कैसे आराम से हम रहते हैं. फैंसी कपड़े और ठाठ के सामान! स्वाद-स्वाद की खाने-पीने की चीजें, और फिर तमाशे-थियेटर, बाग-बगीचे!
(Do Gaz Zameen)
छोटी बहन को बात लग गई. अपनी बारी पर उसने सौदागर की जिंदगी को हेय बताया और किसान का पक्ष लिया. कहा- मैं तो अपनी जिंदगी का तुम्हारे साथ अदला-बदला कभी न करुं. हम सीधे-सादे और रुखे-से रहते हैं तो क्या, चिंता-फिकर से तो छूटे हैं. तुम लोग सजी-धजी रहती हो, तुम्हारे यहां आमदनी बहुत है, लेकिन एक रोज वह सब हवा भी हो सकता है, जीजी. कहावत है ही-‘हानि-लाभ दोई जुड़वा भाई.’ अक्सर होता है कि आज तो अमीर है कल वही टुकड़े को मोहताज है. पर हमारे गांव के जीवन में यह जोखिम नहीं है. किसानी जिंदगी फूली और चिकनी नहीं दीखती तो क्या, उमर लंबी होती है और मेहनत से तन्दुरुस्ती भी बनी रहती है. हम मालदार न कहलायेगे: लेकिन हमारे पास खाने की कमी भी कभी न होगी.
बड़ी बहन ने ताने से कहा- बस-बस, पेट तो बैल और कुत्ते का भी भरता है. पर वह भी कोई जिंदगी है? तुम्हें जीवन के आराम, अदब और आनन्द का क्या पता है? तुम्हारा मर्द जितनी चाहे मेहनत करे, जिस हालत में तुम जीते हो, उसी हालत में मरोगे. वहीं चारों तरफ गोबर, भुस, मिट्टी! और यही तुम्हारे बच्चों की किस्मत में बदा है.
छोटी ने कहा- तो इसमें क्या हुआ! हां, हमारा काम चिकना-चुपड़ा नहीं हैं; लेकिन हमें किसी के आगे झुकने की भी जरुरत नहीं है. शहर में तुम हजार लालच से घिरी रहती हो. आज नहीं तो कल की क्या खबर है! कल तुम्हारे आदमी को पाप को लोभ-जुआ, शराब और दूसरी बुराइयां फंसा सकते हैं, तब घड़ी भर में सब बरबाद हो जायगा. क्या ऐसी बातें अक्सर होती नहीं हैं?
घर का मालिक दीना ओसारे में पड़ा औरतों की यह बात सुन रहा था. उसने सोचा कि बात तो खरी है. बचपन से मां धरती की सेवा में हम इतने लगे रहते हैं कि कोई व्यर्थ की बात हमारे मन में घर नहीं कर पाती है. बस, है तो मुश्किल एक. वह यह कि हमारे पास जमीन काफी नहीं है. जमीन खूब हो तो मुझे किसी का परवा न रहे, चाहे शैतान ही क्यों न हो!
वहीं कोने में शैतान दुबका बैठा था. उसने सबकुछ सुना. वह खुश था किसान की बीवी ने गांव की बड़ाई करके अपने आदमी को डींग पर चढ़ा दिया. देखो न, कहता था कि जमीन खूब हो तो फिर चाहे शैतान भी आ जाय, तो परवाह नहीं.
(Do Gaz Zameen)
शैतान ने मन में कहा कि अच्छा हजरत, यही फैसला सही. मैं तुमको काफी जमीन दूंगा और देखना है कि उसी से तुम मेरे चंगुल में होते हो कि नहीं.
गांव के पास ही जमींदारी की मालकिन की कोठी थी. कोई तीन सौ एकड़ उनकी जमीन थी. उनके अपने आसामियों के साथ बड़े अच्छे सम्बन्ध रहते आये थे; लेकिन उन्होंने एक कारिन्दा रक्खा, जो पहले फौज में रहा था. उसने आकर लोगों पर जुरमाने ठोकरे शुरु कर दिये.
दीना का यह हाल था कि वह बहुतेरा करता, पर कभी तो उसका बैल जमींदारी की चरी में पहुंच जाता, कभी गाय बगिया में चरती पाई जाती. और नहीं तो उनकी रखाई हुई घास में बछिया-बछड़ा ही जा मुंह मारते. हर बार दीना को जुर्माना उठाना पड़ता. जुर्माना तो वह देता, पर बेमन से. वह कुनमुनाता और चिढ़ा हुआ-सा घर पहुंचता और अपनी सारी चिढ़ घर में उतारता. पूरे मौसम कारिंदे की वजह से उसे ऐसा त्रास भुगतना पड़ा.
अगले जाड़ों में गांव में खबर हुई कि मालकिन अपनी जमीन बेच रही हैं और मुंशी इकरामअली से सौदे की बातचीत चल रही है. किसाने सुनकर चौकत्रे हुए. उन्होंने सोचा कि मुंशीजी की जमीन होगी तो वह जमींदार के कारिन्दे से भी ज्यादा सख्ती करेंगे और जुर्माने चढ़ावेंगे और हमारी तो गुजर-बसर इसी जमीन पर है.
यह सोचकर किसान मालकिन के पास गये. कहा कि मुंशीजी को जमीन न दीजिए. हम उससे बढ़ती कीमत पर लेने को तैयार हैं. मालकिन राजी हो गईं.
तब किसानों ने कोशिश की कि मिलकर गांव-पंचायत की तरफ से वह सब जमीन पर जा से ताकि वह सभी की बनी रहे. दो बार इस पर विचार करने को पंचायत जुड़ी पर फैसला न हुआ. असल में शैतान की सब करतूत थी. उसने उनके बीच फूट डाल दी थी. बस, तब वे मिलकर किसी एक मत पर आ ही नहीं से. तय हुआ कि अलग-अलग करके ही वह जमीन ले ली जाय. हर कोई अपने बित्ते के हिसाब से ले. मालकिन पहले की तरह इस बात पर भी राजी हो गई.
इतने में दीना को मालूम हुआ कि एक पड़ोसी इकट्ठी पचास एकड़ जमीन ले रहा है और जमींदारिन राजी हो गई हैं कि आधा रुपया अभी नकद ले लें, बाकी साल भर बाद चुकता हो जायगा.
दीना ने अपनी स्त्री से कहा कि और जने जमीन खरीद रहे है. हमें भी बीस या इतने एकड़ जमीन ले लेनी चाहिए. जीना वैसे भार हो रहा है और वह कारिदा जुर्माने-पर-जुर्माने करके हमें बरबाद ही कर देगा.
उन दोनों ने मिलकर विचार किया कि किस तरकीब से जमीन खरीदी जाय. सौ कलदार तो उनके पास बचे हुए रखे थे. एक उन्होंने उमर पर आया अपना बछड़ा बेच डाला. कुछ माल बंधक रक्खा. अपने बड़े बेटे को मजदूरी पर चढ़ाकर उसकी नौकरी के मद्दे कुछ रुपया पेशगी ले लिया. बाकी बचा अपनी स्त्री के भाई से उधार ले लिया. इस तरह कोई आधी रकम उन्होंने इकट्ठी कर ली.
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इतना करे दीना ने एक चालीस एकड़ जमीन का टुकड़ा पसंद किया, जिसमें कुछ हिस्से में दरख्त भी खड़े थे. मालकिन के पास उसका सौदा करने पहुंचा. सौदा पट गया ओर वहीं-के-वहीं नकद उसने साई दे दी. फिर कस्बे में जाकर लिखा-पढ़ी पक्की कर ली.
अब दीना के पास अपनी निजी जमीन थी. उसने बीज खरीदा और इसी अपनी जमीन पर बोया, इस तरह वह अब खुद जमींदार हो गया.
इस तरह दीना काफी खुशहाल था. उसके संन्तोष में कोई कमी न रहती. अगर बस पड़ोसियों की तरफ से उसे पूरा चैन मिल सकता. कभी-कभी उसे खेतों पर पड़ोसियों के मवेशी आ चरते. दीना ने बहुत विनय के साथ समझाया, लेकिन कुछ फर्क नहीं हुआ. उसके बाद और-तो-और, घोसी छोकरे गांव की गायों को दिन-दहाड़े उसकी जमीन में छोड़ देने लगे. रात को बैल खेतों का नुकसान करते. दीना ने उनको बार-बार निकलवाया और बार-बार उसने उनके मालिकों को माफ किया. एक अर्से तक वह धीरज रक्खे रहा और किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं की. लेकिन कब तक? आखिर उसका धीरज टूट गया और उसने अदालत में दरख्वास्त दी. मन में जानता तो था कि मुसीबत की वजह असली यह है कि और लोगों के पास जमीन की कमी है, जान-बूझकर दीना की सताने की मंशाा किसी की नहीं है. लेकिन उसने सोचा कि इस तरह मैं नरमी दिखाता जाऊंगा, तो वे लोग शह पाते जायंगे और मेरे पास जितना है सब बरबाद कर देंगे. नहीं उनको एक सबक सिखाना चाहिए.
सो उसने ठान ली. एक सबक दिया, दूसरा. नतीजा यह कि दो-तीन किसानों पर अदालत से जुर्माना हो गया. इस पर तो पास-पड़ोस के लोग दीना से कीना रखने लगे. अब कभी-कभी जान-बूझकर भी तंग करने के लिए अपने मवेशी उसके खेतों में छोड़ देते. एक आदमी गया और उसे जरुरत अगर घर में ईंधन की थी, तो उसने रात में जाकर सात पूरे शीशम के दरख्त काट गिराये. दीना ने सवेरे घूमते हुए देखा कि पेड़ कटे हुए पड़े है. वे धरती से सटे हैं और उनकी जगह खड़े ठूंठ मानो दीना को चिढ़ा रहे हैं. देखकर उसको तैश आ गया.
उसने सोचा कि अगर दुष्ट ने एक यहां का तो दूसरा दूर का पेड़ काटा होता तो भी गनीमत थी. लेकिन कम्बख्त ने आसपास के सब पेड़ काटकर बगिया को वीरान करे दिया. पता लगे तो खबर लिये बिना न छोडूं. उसने जानने के लिए सिर खुजलाया कि यह करतूत किसकी हो सकती है. आखिर तय किया कि हो-न-हो, यह धुन्नू होगा. और कोई ऐसा नहीं कर सकता. यह सोच धुन्नू की तरफ गया गया कि शायद कुछ सबूत मिल जाय, लेकिन वहां कुछ चोरी का सबूत मिला नहीं और आपस में कहा-सुनी और तेजा-तेजी के सिवा कुछ नतीजा न निकला. तो भी उसे मने में पक्का विश्वास हो गया कि धुन्नू ने यह किया है और जाकर रपट लिखा दी. धुन्नू की पेशी हुई, मामला चला. एक अदालत से दूसरी अदालत हुई. आखिर में धुन्नू बरी हो गया, क्योंकि कोई सबूत और गवाह ही नहीं थे. दीना इस बात पर और भी झल्ला उठा और अपना गुस्सा मजिस्ट्रेट पर उतारने लगा.
(Do Gaz Zameen)
इस तरह दीना का अपने पड़ोसियों और अफसरों से मनमुटाव होने लगा, यहांतक कि उसे घर में भी आग लगाने की बातें सुनी जाने लगीं. हालांकि दीना के पास अब जमीन ज्यादा थी और जमींदारों में उसी गिनती थी, पर गांव में और पेचों में पहला-सा उसका मान न रह गया था. इसी बीच अफवाह उड़ी कि कुछ लोग गांव छोड़-छोड़कर कहीं जो रहे हैं.
दीना ने सोचा कि मुझे तो अपनी जमीन छोड़ने की जरुरत है ही नहीं. लेकिन और कुछ लोग अगर गांव छोड़ेंगे तो चलो, गांव में भीड़ ही कम होगी. मैं उनकी जमीन खुद ले लूंगा. तब ज्यादा ठीक रहेगा. अब तो जमीन की कुछ तंगी मालूम होती है.
एक दिन दीना घर के ओसारे में बैठा हुआ था कि एक परदेसी-सा किसान उधर से गुजरता हुआ उसके घर उतरा. वह वहां रात-भर ठहरा और खाना भी वहीं खाया. दीना ने उससे बातचीत की कि भाई, कहां से आ रहे हो? उसने कहा दरिया सतलज के पास से आ रहा हूं. वहां बहुत काम है. फिर एक में से दूसरी बात निकली और आदमी ने बताया कि उस तरफ नई बस्ती बस रही है. उसे अपने गांव के कई और लोग वहां पहुंचे हैं. वे सोसायटी में शामिल हो गये हैं और हरेक को बीस एकड़ जमीन मुफ्त मिली है. जमीन ऐसी उम्दा है कि उस पर गेहूं की पहली फसल जो हुई तो आदमी से ऊंची उसी बालें गईं और इतनी घनी कि दरांत के एक काट में एक पूला बन जाय. एक आदमी के पास खाने को दाने न थे. खाली हाथ वहां पहुंचा. अब उसके पास दो गायें, छ: बैल और भरा खलिहान अलग.
दीना के मन में भी अभिलाषा पैदा हुई. उसने सोचा कि मैं यहां तंग संकरी-सी जगह में पड़ा क्या कर रहा हूं, जबकि दूसरी जगह मौका खुला पड़ा है. यहां की जमीन, घर-बार बेच-बाचकर नकदी बना वहीं क्यों न पहुंचूं और नये सिरे से शुरु करके देखूं? यहां लोगों की गिचपित हुई जाती है. उससे दिक्कत होती है और तरक्की रुकती है, लेकिन पहले खुद जाकर मालूम कर आना चाहिए कि क्या बात है, सो बरसात के बाद तैयारी करे वह चल दिया. पहले रेल में गया. फिर सैकड़ों मील बैलगाड़ी पर और पैदल सफर करता हुआ सतलज के पारवाली जगह पर पहुंचा. वहां देखा कि जो उस आदमी ने कहा था, सब सच है. सबके पास खूब जमीन है. हरेक को सरकार की तरफ से बीस-बीस एकड़ जमीन मिली हुई है, या जो चाहे खरीद सकता है. और खूबी यह कि कौड़ियों के मोल जितनी चाहे, जमीन और भी ले सकता है.
(Do Gaz Zameen)
–लियो टॉलस्टॉय
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