उत्तराखण्ड में निकाय चुनाव में हार के बाद कांग्रेस नेताओं के बीच हो रही तकरार में नेता प्रतिपक्ष डॉ. इंदिरा हृदयेश के ताजे बयान ने पार्टी के अन्दर बवाव मचा दिया है. उन्होंने हल्द्वानी नगर निगम में महापौर पद पर अपने बेटे सुमित हृदयेश की हार के लिए “भीतरघात” को जिम्मेदार बताया है और कहा कि इसे बारे में तथ्यों के साथ एक विस्तृत रिपोर्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी, प्रदेश के प्रभारी अनुग्रह नारायण सिंह व प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह को भेज दी गई है. बताया जाता है कि गोपनीय तरीके से भेजी गई इस रिपोर्ट में नेता प्रतिपक्ष ने उन लोगों को निशाने पर लिया है, जो महापौर पद के दावेदार थे और चुनाव प्रचार में अधिक सक्रिय नहीं रहे.
इस रिपोर्ट के बहाने इंदिरा हृदयेश ने पूर्व मुख्यमन्त्री हरीश रावत के समर्थक नेताओं पर भी निशाना साधा है. हरीश समर्थकों पर यह निशाना इसलिए भी साधा गया है, क्योंकि हरीश रावत चुनाव में प्रचार के लिए हल्द्वानी नहीं आए, जबकि इंदिरा ने फोन करके रावत को हल्द्वानी आने का अनुरोध किया था. अपने बेटे सुमित की हार के लिए इंदिरा एक बड़ा कारण रावत का प्रचार के लिए हल्द्वानी न आने को भी मान रही हैं. इस वजह से भी उन्होंने अपनी गोपनीय रिपोर्ट में हरीश रावत समर्थकों को अपने निशाने पर लिया है. रिपोर्ट के बारे में नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश का कहना है कि जिला संगठन की ओर से हार की समीक्षा रिपोर्ट भेज दी गई है. रिपोर्ट में हार के कारणों की तथ्यवार जानकारी दी गई है. रिपोर्ट पर कार्यवाही करने का काम संगठन का है. कांगेस में इंदिरा ह्रदयेश के विरोधियों पर निशाना साधने वाली इस गोपनीय रिपोर्ट से कांग्रेस में बवाल होना तय है.
उल्लेखनीय है कि निकाय चुनाव के परिणाम आने के बाद कांग्रेस के बड़े नेताओं में जमकर तकरार हो रही है. प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह, राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत व नेता प्रतिपक्ष डॉ. इंदिरा हृदयेश ने चुनाव के बाद पार्टी का अच्छा प्रदर्शन न होने के लिए एक-दूसरे पर जमकर निशाना साधा है. प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह ने निकाय चुनाव के प्रचार में हरीश रावत के सक्रिय न रहने पर सवाल उठाते हुए कहा कि पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव होने के नाते चुनाव प्रचार करने की एक स्वाभाविक जिम्मेदारी तो हरीश रावत की बनती ही थी. प्रीतम सिंह ने 22 नवम्बर को कहा कि हरीश रावत जी से पहले गत 26 अक्टूबर को फोन पर बात करने की कोशिश की गई, पर उनका फोन नहीं लगा. उसके बाद उनके पीआरओ को इस बारे में बता दिया गया था.
असम दौरे में हरीश रावत के व्यस्त होने के चलते बात नहीं हो पाई. वे जब दिल्ली लौटे तो उनसे दो बार फोन पर बात हुई और गत 12 नवम्बर को कांग्रेस का जो “दृष्टि पत्र” निकाय चुनाव को लेकर जारी हुआ था, उस कार्यक्रम में शामिल होने का अनुरोध किया गया था. मगर अपनी व्यस्तता के चलते वे कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए. रावत जी के कहे अनुसार उनके चुनावी कार्यक्रम बनाए गए थे. रावत जी प्रदेश के सबसे वरिष्ठ नेताओं में हैं, उन्हें पार्टी के हित में आगे बढ़कर चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी खुद सँभालनी चाहिए थी. प्रीतम सिंह ने तो यहाँ तक कह दिया कि अगर आवश्यकता हुई तो वे पूर्व मुख्यमन्त्री रावत के साथ इस बारे में मोबाइल पर हुई बातचीत का रिकार्ड व उन्हें भेजे गए पत्रों को सार्वजनिक करने से भी पीछे नहीं हटेंगे. उम्मीदवारों के चयन में हरीश रावत की भूमिका के सवाल प प्रीतम सिंह ने कहा कि रावत जी ने कई सालों तक पार्टी में टिकट बांटे हैं. तब उन्होंने कैसे टिकट बांटे और कार्यकर्ताओं का कितना ख्याल रखा? इस बारे में वे अच्छी तरह से जानते हैं.
पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल ने चुनाव परिणामों पर कहा कि कुप्रबंधन और बड़ी चुनावी सभाएँ न होने से कॉग्रेस को वह जीत नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी. अब प्रदेश संगठन को हार पर गहरा चिंतन करना चाहिए. कांग्रेस का इस चुनाव में मत प्रतिशत बढ़ा है, जिससे पता चलता है कि लोगों में कांग्रेस के प्रति रुझान बढ़ा है. चुनाव प्रचार के कुप्रबंधन के कारण हम जनता की रुझान को कांग्रेस के पक्ष में नहीं मोड़ पाए. कुंजवाल के कुप्रबंधन के आरोपों पर प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह ने कहा कि गोविन्द सिंह कुंजवाल को कुछ भी बोल देने की आदत पड़ गई है. वे प्रदेश में मन्त्री और विधानसभा अध्यक्ष जैसे पद पर रहे हैं, ऐसे में उन्हें अपना मूल्याकंन खुद करने का सामर्थ्य भी होना चाहिए. अगर वे ऐसा कर लें तो वे इस तरह की बयानबाजी न करें.
हल्द्वानी में चुनाव प्रचार के लिए हरीश रावत के फोन करके भी न आने पर सवाल उठाते हुए नेता प्रतिपक्ष डॉ. इंदिरा हृदयेश ने कहा कि वे वरिष्ठ नेता हैं और रुद्रपुर तक चुनाव प्रचार के लिए पहुँचे, लेकिन हल्द्वानी नहीं आए, जबकि उन्हें फोन करके हल्द्वानी आने का आग्रह किया गया था . इसके बाद भी वे नहीं पहुँचे तो इसका कोई विशेष कारण रहा होगा. इंदिरा हृदयेश के आरोपों पर अपनी प्रतिक्रिया में हरीश रावत ने इस बात को स्वीकार किया कि इंदिरा ने उन्हें फोन किया था, उन्होंने हल्द्वानी में प्रचार के लिए अपनी सहमति भी दे दी थी. पर प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने मेरा चुनाव कार्यक्रम रुद्रपुर के बाद कोटद्वार का लगा दिया. आदेश को मानते हुए मैं कोटद्वार चला गया. हल्द्वानी में प्रचार न कर पाने का मुझे मलाल है, क्योंकि वहां कांग्रेस प्रत्याशी काफी कम मतों से हारा.
हल्द्वानी में महापौर पद पर बेटे सुमित हृदयेश की हार के लिए इंदिरा ने मतदाता सूची में गड़बड़ी को भी एक बड़ा कारण बताया और कहा कि सत्ता के इशारे पर मतदाता सूची में एक सुनियोजित साजिश के तहत गड़बड़ी की गई. वर्षों से मतदान कर रहे लोगों के नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए. जिनमें से अधिकतर कॉग्रेस के समर्थक थे. उन्होंने पार्टी के पार्षद प्रत्याशियों को चुनाव चिन्ह न देने को भी बड़ी भूल बताया और इस बात को स्वीकार किया कि चुनाव चिन्ह न मिलने से पार्टी के पार्षद पद के प्रत्याशियों ने केवल अपने लिए ही वोट मांगे और महापौर पद को नजरअंदाज कर दिया. पार्षद प्रत्याशियों को मिले कुल वोटों और महापौर पद के प्रत्याशी को मिले कुल वोटों में इसी कारण से भारी अन्तर है.
हरीश रावत का चुनाव प्रचार में अधिक उपयोग न करने के आरोपों के बीच कांग्रेस पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने भी प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह द्वारा उनकी अनदेखी करने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि वाट्सएप के माध्यम से उन्होंने अध्यक्ष जी को कह दिया था कि वे 8 से 17 नवम्बर तक चुनाव प्रचार के लिए उपलब्ध हैं, पर उनकी ओर से न तो कोई जवाब आया और न ही उनका चुनावी कार्यक्रम घोषित हुआ. ऐसे में मैं जहॉ भी प्रचार के लिए पार्टी उम्मीदवारों के बुलाने पर गया.
महापौर पद पर इंदिरा हृदयेश के बेटे सुमित की हार का एक बड़ा कारण कुमाऊनी बाहुल्य हल्द्वानी में उनके बीच पैंठ न होना भी रहा. इंदिरा ने अपना राजनैतिक जीवन उत्तर प्रदेश में विधान परिषद के गढ़वाल — कुमाऊँ शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से किया और वे राज्य बनने तक इस सीट से ढाई दशक से अधिक समय तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए निर्वाचित होती रही. उत्तराखण्ड बनने के बाद जब इंदिरा ने पहली बार 2002 में हल्द्वानी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा तो उस समय भी उनका ध्यान अल्पसंख्यक, पंजाबी व बनिया समुदाय पर ही विशेष तौर पर रहा और वह चुनाव जीत गई. उसके बाद उन्होंने कभी भी बहुसंख्यक कुमाउनी समाज की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया. उनकी ओर ध्यान न देना ही इंदिरा को 2007 के विधानसभा चुनाव में भारी पड़ा और वह भाजपा के बंशीधर भगत से चुनाव हार गई.
विधानसभा के नए परिसीमन के बाद जब 2012 में तीसरा विधानसभा चुनाव हुआ तो हल्द्वानी विधानसभा सीट का क्षेत्र घटकर लगभग हल्द्वानी-काठगोदाम नगर निगम की सीमा तक ही सीमित रह गया और वह फिर से 2002 के चुनावी फार्मूले से हल्द्वानी की विधायक चुन ली गई. लगभग यही चुनावी गणित गत विधानसभा चुनाव 2017 में भी काम आया और वह लगातार दूसरी बार हल्द्वानी की विधायक बन गई. इस बीच हल्द्वानी-काठगोदाम नगर निगम का सीमा विस्तार प्रदेश की भाजपा सरकार द्वारा कर दिया गया. जिसमें हल्द्वानी नगर निगम से लगे कालाढूँगी व लालकुँआ विधानसभा सीटों के 36 गांवों को नगर निगम में शामिल कर दिया गया . जहॉ इस समय दोनों ही सीटों पर भाजपा के विधायक हैं.
ग्रामीण हल्द्वानी वाले इस क्षेत्र में लगभग 80 प्रतिशत बहुसंख्यक कुमाऊनी हैं, जिनके बीच में भाजपा के दोनों विधायक कालाढूँगी के बंशीधर भगत व लालकुँआ के नवीन दुम्का अपनी बोली/भाषा व तीज-त्योहारों के साथ कुमाउनी समाज के बीच रहते हैं. इसके विपरीत कथित तौर पर कुमाऊँ के दशोली के पाठक लोगों की बेटी होने के बाद भी इंदिरा का कुमाऊनी बोली/भाषा, तीज-त्योहारों से कभी भी निकटता व आत्मीयता का कोई सम्बंध नहीं रहा. जिस कारण से वह कभी भी कुमाऊनी समाज में अपनी वह पैंठ नहीं बना पाई, जो वह बना सकती थी.
इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इंदिरा हृदयेश ने कभी इस तरह की कोशिस भी नहीं की. शायद उन्हें इस तरह की राजनैतिक जरूरत कभी महसूस ही नहीं हुई, क्योंकि कुमाऊनी समाज के समर्थन के बिना भी वह राज्य बनने के बाद हल्द्वानी की तीन बार विधायक बन चुकी हैं. शायद उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि कुमाऊनी समाज के प्रति उनकी यही बेरुखी एक दिन उनके बेटे के राजनैतिक जीवन का रोड़ा बन जाएगी. पर अब क्या किया जा सकता है? “जब चिड़िया चुग गई खेत.”
जगमोहन रौतेला
जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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