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बासु चटर्जी की फिल्म दिल्लगी: सूक्ष्म मनोविज्ञान की गहरी पकड़

फिल्म दिल्लगी(1978) में सट्ल ह्यूमर (Subtle humour) की श्रेष्ठ बानगी देखने को मिलती है. फिल्मकार ने, मानव- स्वभाव के सूक्ष्म मनोविज्ञान को गहरे से पकड़ा है. ऐसा प्रयोग बासु चटर्जी ही कर सकते थे.

फिल्म में धर्मेंद्र और हेमा मालिनी, हीमैन और ड्रीम गर्ल की छवि से पृथक भूमिकाओं में नजर आए. गर्ल्स कॉलेज के वातावरण में, परंपरा और आधुनिकता के विमर्श की कथा, बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में दिखाइ गई है.

फूलरेणु (हेमा मालिनी) केमिस्ट्री की लेक्चरर है. वह स्ट्रिक्ट है. वह स्वयं तो अनुशासित रहती ही है, वार्डन होने के नाते छात्राओं को भी कड़े अनुशासन में रखती है. वह नैतिकता की प्रबल पक्षधर सी दिखती है, संस्कृत जैसे विषयों को पाठ्यक्रम से निकाल बाहर करने की सख्त हिमायती है. इस स्वभाव के चलते, छात्राएँ तो छात्राएँ, सहकर्मी शिक्षिकाएँ तक उससे दूर छिटकती हैं.

स्वर्णकमल (धर्मेंद्र) गर्ल्स कॉलेज में संस्कृत मे लेक्चरर होकर आता है. फूलरेणु का व्यवहार जितना शुष्क-नीरस रहता है, स्वर्ण कमल का उतना ही रसमय. वह तन्मय होकर, छात्राओं को कुमारसंभव और मेघदूतम् पढ़ाता है. सरस प्रसंगों की खुलकर व्याख्या करता है. बात-बात में सौंदर्य-श्रृंगार महिमा पर श्लोक बोलता है, जिससे वार्डन को कॉलेज पर गहराते नैतिक संकट की आहट सुनाई पड़ती है. वह वार्डन की हैसियत से लड़कियों पर सख्त निगरानी रखती है, संस्कृत मास्टर से दो टूक बोलती है. मुँह पर खरा-खरा कह डालती है.

अपने मृदु व्यवहार के चलते, स्वर्णकमल शीघ्र ही छात्राओं और स्टाफ में पॉपुलर हो जाता है. गंगा, तो उसे देखते ही चाय बना लाती है. उधर फूलरेणु मिसफिट सी दिखती है. फिल्म का संदेश, बिल्कुल यू टर्न जैसा लगता है. एक हाथ में किताबें, कंधे में झोला, गुलाब का फूल सूँघते हुए, कुर्ता-पायजामा-सदरी और काले फ्रेम का चश्मा पहने संस्कृत लेक्चरर. उसकी दृष्टि उदार सी रहती है. वह विचारों में प्रगतिशील दिखता है, स्वतंत्र विचार रखता है. व्यवहार में मृदु है, कुशल है, तो उधर केमिस्ट्री लेक्चरर, यांत्रिक तरीक़े का अनुशासन रखना चाहती है. उसकी जीवनचर्या मशीन की तरह चलती है. वह निरंतर, परंपरा-संस्कारों से जूझती रहती है. हर जगह नकार और निषेध का भाव रखती है. उसका वर्जनाओं में गहरा विश्वास दिखता है. संस्कृत लेक्चरर को तो वह मुँह पर ही टोक देती है. उसके दो टूक व्यवहार का वह बुरा नहीं मानता, अपितु असीम धैर्य दिखाता है. उसके कड़े स्वभाव को जानते हुए भी, वह खुलकर उसके सौंदर्य की चर्चा करता है. वह महीन शरारतें करता है. स्टेशन पर, वह शेखर को प्लेटफार्म टिकट दिखाते हुए कहता है, “हम कालिदास पढ़ाते ही नहीं, आजमाते भी हैं.”

होली के अवसर पर उसके गुलाल लगवाने से इनकार करने पर वह आहत नहीं होता, अपितु बड़े ही भोलेपन के साथ, अपने ही चेहरे पर, अबीर-गुलाल लगा लेता है.

गर्मी की छुट्टियों के बाद, फूलरेणु के व्यवहार में आकस्मिक परिवर्तन देखने को मिलता है. वह प्रसन्न सी दिखती है, उल्लास में रहती है. उसके चेहरे पर मुस्कान और कपोलों पर लालिमा छाई रहती है. उसका लाल साड़ी पहनना सुखद लगता है. छात्राएँ इस बात को झट से नोट कर लेती हैं. गीता को ‘ऐसी-वैसी’ समझने वाली फूलरेणु उसे कक्ष पर बुलाती है और कहती है, “रोज आ जाया कर, तुझसे बातें करना अच्छा लगता है.”

अंत में विवाह की तारीख को लेकर, वह स्वर्ण कमल को चिट्ठी लिखना चाहती है. प्यार, उसके जीवन में इससे पहले कभी नहीं आया. उत्कृष्ट पत्र लिखने की चाह में, कागज के गोलों का अंबार लग जाता है. निदान उसे उसी जब्तशुदा पत्र में दिखता है, जो उसने छात्राओं की किताबों से बरामद किया था. स्वर्ण कमल, पहली ही नजर में भाँप लेता है. वह उससे कह भी देता है, “बारह तारीख को शादी है, सिर्फ यही लाईन तुम्हारी है, बाकी सब नकल.”

वह फूल सूँघते हुए गर्ल्स कॉलेज परिसर में नमूदार होता है. लड़कियों का झुंड आपस में ठिठोली कर रहा होता है कि तभी, उनसे केला उछलकर आगंतुक पर लगता है. लड़कियाँ कहती हैं, “हमें अफसोस है, केला आपको लग गया.”

उसके आगे बढ़ते ही, वे फिर से उपहास करती हैं. तभी उसकी नजर फूलरेणु पर पड़ती है.

“जी नमस्कार!जरा सुनिए! कहकर वह उसे रोक लेता है और कहता है, “यह केला इन बच्चियों में से किसी का है.” छात्राओं को बच्चियाँ कहने पर, वह घोर आपत्ति करती है. फिर वह उससे प्रिंसिपल रूम का पता पूछता है. संक्षेप में उनकी प्रथम भेंट बड़े विचित्र तरीके से होती है.

प्रिंसिपल स्टाफ से आगंतुक का परिचय कराती है, नए लेक्चरर हैं- स्वर्ण कमल बाबू. जब वह फूलरेणु से परिचय कराती है, तो वह तपाक से कहता है, “जी हाँ इनसे एक बार मिल चुका हूँ.”

वह थोड़ी देर पहले के अटपटे परिचय को मुलाकात कहने से नहीं चूकता. प्रिंसिपल कहती है, “स्वर्ण कमल बाबू संस्कृत की क्लासेज लेंगे. ये बीएचयू के स्टूडेंट रह चुके हैं.”

छात्राओं की कक्षा में वह सीधे कोर्स पर आता है. कुमारसंभव, अभिज्ञान शाकुंतलम् पाठ्यक्रम में रहते है. वह छात्राओं से कहता है, “प्रेम के बारे में तो जानती ही होंगी.” फिर स्पष्ट करते हुए कहता है, “ये उतनी पढ़ने की चीज नहीं, जितनी अनुभव करने की है. हर किसी के जीवन में यह समय आता है और आप का भी यही समय है.. जब मन में प्रेम के लिए तीव्र प्रतीक्षा पैदा होती है.. जब आता है, तूफान की तरह..” “कालिदास ने इसका बहुत सुंदर वर्णन किया है..” जैसे ही, व्याख्यान रवानगी पकड़ने को होता है, तभी बेल बज जाती है.

वह गाहे-बगाहे गीता (मिठू मुखर्जी) से केमिस्ट्री टीचर की डीटेल्स पूछता है. उसका पढ़ाने का तरीका ऐसा है कि, उसी ब्लॉक में केमिस्ट्री क्लास में अक्सर व्यवधान पड़ता रहता है. केमिस्ट्री छात्राओं का अपने विषय के बजाय, कुमारसंभव के संवादों पर ज्यादा ध्यान रहता है. इस बीच, केमिस्ट्री टीचर किसी छात्रा की किताब से कोई चिट्ठी जब्त कर लेती है. चिट्ठी, प्रेम पत्र साबित होती है, जिससे वो सख्त परहेज रखती है. इसके बाद उसकी दृढ़ राय कायम हो जाती है कि, संस्कृत टीचर के आने से कॉलेज का माहौल बिगड़ रहा है और वह छात्राओं को उल्टी-सीधी बातें सिखाता है. उसकी क्लास में केमिस्ट्री की पढ़ाई होती है, लेकिन उसकी छात्राओं का ध्यान बगल वाली संस्कृत की क्लास में लगा रहता है. वहाँ से अक्सर, सामूहिक खिलखिलाहट की आवाजें आती हैं, तो वह गुस्से में संस्कृत टीचर से तकरार करती है. उससे केमिस्ट्री पढ़ाने में बाधा डालने की शिकायत करती है, तो वह बड़ी विनम्रता से कहता है, “संस्कृत पढ़ाते वक्त, उच्चारण पर विशेष ध्यान देना पड़ता है.” ऐसी सफाई देने पर, वह उस पर तोहमत मढ़ती है, “मैं जरूरी विषय पढ़ाती हूँ. आपका कालिदास इतना जरूरी नहीं..”

इस पर वह आश्चर्य जताता है, “मेरा कालिदास! कालिदास तो सबका है.” मजे की बात यह है कि, किसी दौर में विज्ञान-तकनीकी जैसे विषयों के पठन-पाठन वाले लोग, कला-साहित्य को हिकारत की दृष्टि से देखते थे. वह दृष्टि यहाँ पर बड़ी खूबसूरती से दिखाई गई है. इतना ही नहीं, उसे सहज ही यह विश्वास हो जाता है कि, केमिस्ट्री टीचर, शकुंतला से मिलती है वह रस और रसायन का अंतर नहीं समझती, लेकिन वह क्षमा मांगते हुए कहता है, “हमारी छात्राएँ चंचल हैं. मैं इन्हें समझाता हूँ.”

बात इतनी ही रहती, तो फिर बात ही क्या रहती. वह छात्रावास में जाकर, किसी स्टूडेंट के कमरे में संस्कृत कि क्लासेस लेता है. इस पर केमिस्ट्री टीचर, अपनी वार्डनशिप जताती है. बात होते-होते, प्रिंसिपल तक जा पहुँचती है. वह स्वर्ण कमल को तलब करती है. कॉलेज का सिल्वर जुबली सेलिब्रेशन ईयर मनाया जाने वाला है. वह स्वर्ण कमल बाबू को सांस्कृतिक कार्यक्रम इंचार्ज बनाने का फरमान सुनाती है. उधर फूलरेणु का इस तरह की एक्टिविटीज से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं रहता. बकौल गीता, “रेनू को सिर्फ ये मालूम है कि, दुनिया में एक सौ आठ एलिमेंट्स होते हैं.”

छात्रावास के कमरे में वह पढ़ा रहा होता है. वहाँ से जैसे ही खिलखिलाहट की आवाज आती है, वार्डन अनुशासन कायम रखने के इरादे से वहाँ आ धमकती है. इस पर वह बड़ी सफाई से कहता है, “कालिदास और भाषा के तर्क की मीमांसा सिखा रहा था.” वह उसकी अच्छी खबर लेती है. उसका मत है कि, आपके यहाँ आने से असुविधा होती है. इस पर वह बड़े भोलेपन के साथ कहता है, “कैसी असुविधा.”

गंगा, उसे देखते ही चाय हाजिर कर देती है. इस पर भी वार्डन को ऐतराज रहता है. उसके एतराज पर स्वर्ण कमल बाबू कहता है, “चाय पीना क्या, हॉस्टल के लिए नियमों में नहीं है.” इस बात पर वह, दो बार चाय की शर्त बताती है, तो वह कहता है, “आप भी पी लीजिए.” उसके स्वभाव पर टिप्पणी करते हुए वह दिलचस्प अंदाज में कहता है, “गर्मी, गर्मी को मारती है.”

फिर मौका देखते ही कहता है, “आपको देखकर लगता है, आप ही कालिदास की शकुंतला हैं.” वह एक श्लोक बोलता है. इस पर वह कहती है, पता नहीं क्या कह रहा था. श्लोक का मतलब निकलता है “बसंत के इस नटखट मौसम में ऐसी कौन सी नारी है, जो प्रेम के इस बाण को सह सके. कोई नहीं, सखि! कोई नहीं.”

वह खिड़की से कामगारों को होली-गीत गाते हुए सुनता है,”रंगरेजवा तू रंग ऐसी चुनरी हमार..”

फागुन का मौसम आते ही वह भी अपने कमरे में ‘कर चली मस्त फागुन की हवा, मैं लगा झूमने, मुझे क्या होने लगा… गीत गाता है. गीत भीने-भीने माहौल में पिक्चराइज किया गया है. होली के माहौल में वह हारमोनियम गले में लटकाए, होली की टोली के साथ उसके कमरे में होली-मिलन को जाता है. वह चुपके से मेज पर संस्कृत की किताब ड्रॉप कर लेता है. फूलरेणु, टीचर- स्टूडेंट्स से तो अबीर- गुलाल लगवा लेती है, लेकिन जब संस्कृत टीचर के गुलाल लगाने की लालसा जोर मारती है, तो उसके रंग निकालते ही, वह मुँह फेर लेती है. बेचारा, हाथ में लिए गुलाल को अपने ही गालों पर लगा लेता है. अद्भुत संकेतों के साथ यह बड़ा ही विचारणीय दृश्य है.

होली का माहौल है. छात्राएँ ठिठोली-गीत गाती हैं. फूलरेणु, उस किताब की पड़ताल करती है, जो अंत में कुमारसंभव निकलती है. वह अपने कक्ष में उसे अकेले में पढ़ती है, लेकिन उसके कुछ परिच्छेद पढ़ते ही, उसकी नैतिकता हावी होने लगती है. पसीना छूटने लगता है. वह उठकर पानी पीती है. मन में भारी ऊहापोह मची रहती है. वर्जना-निषेध पर दृढ़ता से आचरण करने वालों का मनोविज्ञान, बड़ी बारीकी से दिखाया गया है.

वह अनटाइमली ऑवर्स में वार्डन से मिलने पहुँच जाता है. उसके वहाँ पहुँचने पर, वह हैरत जताती है, तो वह बड़ी सफाई से कहता है, “मैं आपसे ही मिलने आया हूँ.” तो वह छूटते ही कहती है, “मुझसे मिलने? लेकिन क्यों?”

सीधा-सरल होते हुए भी वह हथियार नहीं डालता. वह शुक्रवार का नुक्ता पकड़े रहता है. बड़ी सफाई से कहता है, “पढ़ाने के कमरे के बारे में बातचीत करने आया था.” नायक सीधा- भोला है लेकिन तर्क उसका हमेशा मजबूत दिखता है. वह उससे बातचीत की पेशकश करता है, तो नायिका कहती है, “अंदर गर्मी है.” तो वह झट से कह बैठता है, “चलो! बाहर चलते हैं. खुले में बातचीत करेंगे.” उसके संकोच करने पर, वह उसके साहस को चुनौती देता है, “मेरे साथ अकेले में घूमने में डर लगता है.” जब इस बात से मना करती है, तो वह प्रशंसात्मक स्वर में कहता है, “मुझे मालूम था कि आप हिम्मतवाली है.”

वह मानव मनोविज्ञान को अच्छे से पढ़ना जानता है. उसकी अनिच्छा के बावजूद, वह उसे घूमने के लिए राजी कर लेता है. दोनों बाहर घूम रहे होते हैं. वह एकांत में मौन तोड़ते हुए कहता है, “खुशबू आ रही है.” इस पर केमिस्ट्री टीचर कहती है , “आस-पास तो कोई फूल नहीं हैं.” एक किस्म से वह अनभिज्ञता जाहिर करती है. इस पर वह वार्तालाप में सरप्राइज़ एलिमेंट लाते हुए कहता है, “आज बसंत है. हवा में सुगंध है.”

इस अवसर पर वह संस्कृत का कोई श्लोक कहता है. इस पर वह कहती है, “मेरे सामने संस्कृत मत बोला करो.” इस वातावरण में वह फिर से कालिदास की कोई उक्ति कहना चाहता है, तो वह ‘बेहूदा वल्गर’ कहकर उसे डपट देती है.

संस्कृत मास्टर का विचार है कि यह पढ़ाई रसबोध की है, तो केमिस्ट्री टीचर कहती है, “ज्यादा रस से स्वाद बिगड़ जाता है.” लेकिन वह अपने संस्कृत- प्रेम में खोया रहता है. वह कहता है, “संस्कृत की मधुर मिठास के आगे कुछ भी नहीं.” वार्ताक्रम से वह नाराज होने लगती है, तो उसे मनाते हुए कहता है, “आज पूर्णिमा है. आज के पवित्र दिन नाराज नहीं होते.”

उसका स्वभाव जानते हुए भी वह स्पष्ट कहता है, “मन चाहते हुए भी, मैं आपके सुंदर मुख पर गुलाल-चंदन नहीं लगा सका.”

फिर कॉन्फिडेंस से कहता है, “अगले साल जरुर लगाऊँगा.”

मौका देखते ही वह जड़ देता है, “आज आप सचमुच, कालिदास की शकुंतला लग रही है.”

वह स्टाफ रूम में शिकायत करती है, “क्या पढ़ाया जा रहा है. जब देखो, हँसी- मजाक.”

वह हिकारत भरे भाव से कहती है, “नवयुवती, यौवन, मदन, प्रियतमा, रति. बात-बात पर सखि, प्रिये.” उसे हरदम अंदेशा बना रहता है कि, ऐसी पढ़ाई से माहौल खराब हो जाएगा. स्वर्ण कमल बाबू उससे कहते हैं, “यह शास्त्रों में लिखा गया है. अब उसे मिटाया तो नहीं जा सकता.”

सुधी दर्शकों को अच्छे से स्मरण हो आता है, शकुंतला-दुष्यंत वाला संवाद. नायक इतना ढीठ है कि, वह उसके स्वभाव को जानते हुए भी उससे कहता है, “मेरा अनुरोध है, शकुंतला का अभिनय आप करें.”

तो वह चिढ़कर सपाट स्वर में नकार देती है, “जी नहीं.” “दुष्यंत मैं बन रहा हूँ.”

“आप दुष्यंत बनें या रावण, मुझे आपके नाटक में कोई दिलचस्पी नहीं.”

इतना सब सुनने के बाद भी वह निराश नहीं होता. बड़े ही मुग्ध भाव से कहता है, “मेरी कल्पना में तो शकुंतला के लिए आप ही फिट हैं.”

“आप अपनी कल्पना, अपने पास ही रखिए.”

वह गजब का धैर्य दिखाता है. कक्ष में काफी एंब्रेसिंग सिचुएशन पैदा हो जाती है, तो भी वह धैर्य नहीं खोता. बड़ी सरलता से कहता है, “आप चाय पिला रही हैं आज. फिर तो आपको भी चाय पीनी पड़ेगी.”

उसके नकार देने पर, वह खुद के लिए प्लेट में चाय निकालकर, आधा कप चाय उसे पेश करता है, तो वह मुँह मोड़ लेती है. इस पर वह मनुहार करते हुए कहता है, “संस्कृत तो मैं मुँह से पढ़ाता हूँ. हाथों ने क्या कसूर किया है.”

कहने का तात्पर्य है कि, वह कोई मौका नहीं चूकता. इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी, वह फिर चालू हो जाता है, “शकुंतला का पाठ तो करेंगी ना आप.” यहाँ तक कि, इनविजीलेशन ड्यूटी के दौरान, वह फूलरेणु को गुलाब का फूल देने की असफल चेष्टा करता है.

गर्मी की छुट्टियों में जब वह घर जा रही होती है, तो वह स्टेशन पर जबरदस्ती उसके गले पड़ता है, “आपसे मिलने जरूर आऊँगा.”

उसके क्यों पूछने पर वह कहता है, “आप काशीपुर में रहेंगी. मैं दीदी के घर काशीपुर आऊँगा. दोनों एक ही शहर में रहेंगे और मैं मिलने ना आऊँ, उचित नहीं लगता.”

वो कहती है, “मैं उस समय काशीपुर में नहीं रहूँगी.” उसके बहुत कुरेदने पर, वह इलाहाबाद का बहाना बनाती है. इस पर वह कहता है, “वापस तो काशीपुर ही आएँगी.”

ट्रेन चल देती है, तो वह खिड़की से उसे जबरदस्ती उपहार में संस्कृत की किताबें थमा देता है. वह खिड़की की सीट पर बैठी फूलरेणु को ओझल होने तक हाथ हिलाकर विदाई अभिवादन करता है.

घर पर रमेश (असरानी) और उसकी माँ रेणु की शादी की चर्चा करते हैं. असरानी, खुशबू से लेकर कई फिल्मों में हेमा मालिनी के छोटे भाई बने हैं.

बहरहाल जिस लड़की से रमेश का रिश्ता तय रहता है, वह रमेश के घर आती है. वह दीदी से उसका परिचय कराता है. मजे की बात यह है कि, वह भी टीचर है और संस्कृत पढ़ाती है. फूलरेणु को देखते ही वह कहती है, “दीदी आप तो कालिदास की शकुंतला जैसी दिखती है.” फिर वह उपहार में मिली संस्कृत की किताबें देखती है और चहककर कहती है, “मैं इन्हें पढ़ने ले जाऊँ.”

फूलरेणु कहती है, “अभी तो मैं पढ़ रही हूँ. बाद में ले जाना.”

इसी बीच फूलरेणु को स्वर्ण कमल की चिठ्ठी मिलती है,” …पंद्रह की शाम को घर में रहिएगा. अति दर्शनाभिलाषी, स्वर्णकमल.”

स्वर्ण कमल भी अपने दोस्त को लेकर अपनी दीदी के घर रामपुरा पहुँच जाता है. वहाँ उमस भरी गर्मी पड़ती है. स्वर्ण कमल पंद्रह बटे तीन, पोस्ट ऑफिस के पते को दोहराता है, तो इस पर शेखर कहता है कि वहाँ क्या है. इस पर वह मजे लेते हुए कहता है, “पंद्रह बटे तीन, पोस्ट ऑफिस के सामने, बड़ी गर्मी है.”

वह दोस्त से कहता है, “आज वहाँ नहीं जाएंगे. कल जाएंगे.”

इधर फूलरेणु, व्यग्रता से उसकी बाट जोहती है. बताई गई तिथि को जब वह नहीं पहुँचता, तो वह चिट्ठी पढ़कर, फिर से तारीख कंफर्म करती है. वह अगले दिन भी इंतजार करती हुई मिलती है. जैसे ही, वह घर से बाहर निकलती है, स्वर्णकमल उनके घर पर हाजिर हो जाता है. शाम को माँ, फूलरेणु को बताती है, “एक आदमी आया था.” फूलरेणु जब उसका नाम पूछती है, तो माँ को नाम स्मरण नहीं रहता. वह खुद कहती है, स्वर्ण कमल. माँ कहती है, “हाँ, हाँ. यही नाम था. वह फिर आएगा.” नायिका के मनोभावों में हो रहे, क्रमिक परिवर्तन को फिल्म में बड़े सलीके से दिखाया गया है. वह अभिज्ञान शाकुंतलम् पढ़ने लगती है.

रमेश-उषा उससे बाहर घूमने की खुशामद करते हैं, लेकिन इधर स्वर्णकमल कभी भी आ सकता है, तो इस कारण वह मना कर देती देती है. इन दृश्यों में रेणु का व्यवहार बड़ी साफगोई से आया है. आखिर, वो उनके साथ घूमने के लिए बाहर निकल जाती है.

झील के किनारे, सीढ़ियों पर बैठी फूलरेणु वाला दृश्य मोहक सा लगता है. स्वर्ण कमल से उसका बड़ा मजेदार वार्तालाप चलता है, मानो बर्फ पिघल रही हो. वह उसके कमजोर बहाने को कुरेदते हुए पूछता है, “आप तो इलाहाबाद जाने वाली थी.”

जब वह उसकी प्रशंसा करता है, तो वह कहती है, “संस्कृत में कुछ कहा नहीं. कालिदास..”

अभी उनमें प्रेम संबंध खुलकर स्वीकार नहीं हुआ है. यह जो प्रतीकों की भाषा है, सब कुछ बयां कर जाती है. जब वह ‘हमारे संबंध’ के बारे में कहता है, तो फिर बात संभालते हुए कहता है, “रसायन और रस, कम-से-कम शब्दों का संबंध तो है.”

तब तक रमेश, ऊषा और गणेश सैर-सपाटे से लौट आते हैं. वह स्वर्ण कमल उनका परिचय कराती है. “उषा भी संस्कृत पढ़ाती है.” यह सुनकर स्वर्णकमल कहता है, “यह सुनकर खुशी हुई.”

उषा कहती है, “मैंने किताबें मांगी थी. रेनू दीदी ने दी नहीं.”

इस पर स्वर्ण कमल प्रतिक्रिया देता है, “यह जानकर तो बहुत खुशी हुई.”

रमेश, दीदी की सलाह से वैवाहिक विज्ञापन दे देता है. वह उसमें शर्त रखती है कि, उम्मीदवार खुद चिट्ठी लिखे और एक फोटो भी भेजे. वर का चुनाव वह खुद करेगी.
छुट्टी के बाद जब लह लौटती है, तो उसमें तमाम परिवर्तन देखने को मिलते हैं. छात्राएं, आपस में बात करती हैं, “आजकल उदास लग रही है.”

स्टाफ भी उसमें परिवर्तन देखता है. टीचर कहती हैं, “काफी बदल सी गई है.” प्रायः सभी टीचर्स लौट आते हैं, सिवाय स्वर्णकमल के. फूलरेणु, गीता से कहती है, “सब टीचर्स देर से आ रहे हैं.”

तो गीता कहती है, “नहीं तो.”

अभाव से भाव उपजता है. वह गीता को अपने कमरे पर बुलाती है. इस निमंत्रण पर गीता को आश्चर्य होता है. उसके शुष्क, नीरस स्वभाव में यकायक परिवर्तन दिखाई देता है. उन दोनों के वार्तालाप ने फूलरेणु का व्यक्तित्व स्पष्ट झलकता है. वह गीता से बड़ी साफगोई से बात करती है.

वह खिड़की पर बारिश की फुहार का आनंद ले रही होती है, तभी कोई दरवाजा खटखटाता है. वह उसे गीता समझकर कहती है, “आ जाओ, गीता.”

बुरी तरह भीगा हुआ स्वर्ण कमल अंदर पहुँचता है.. फूलरेणु के चेहरे पर उल्लास के भाव देखते ही बनते हैं. वह स्वयं चाय बनाने चली जाती है, तो स्वर्ण कमल की नजर तखत पर रखे मेघदूत पर पड़ती है. इस दृश्य में उन दोनों का अद्भुत वार्तालाप चलता है. जब वह फूलरेणु की साड़ी लपेटे, चाय पीता है, दोनों के बीच मजेदार वार्तालाप चलता है. उम्र में दोंनो परिपक्व है, लेकिन प्रेम में बिल्कुल नए. वह “देर कैसे हो गई” पूछती है, तो वह कुछ कारण बताता है. फिर वह कुछ बोलते हुए रुक जाती है, तो वह उसे प्रोत्साहन देते हुए कहता है, “पूछ लीजिए न. आखिर कब तक झिझकती रहेंगी.” आखिर वह हिम्मत बटोरकर पूछती है,”आपने अभी तक शादी क्यों नहीं की.” वह संकेतों में बताता है, “एक बार, होली के दिन बड़ी उमंग लिए गया था. उसने घास ही नहीं डाली. एक बार शकुंतला बनने का अनुरोध किया, उसने मना कर दिया. एक बार स्टेशन तक गया था, उसने पलटकर भी नहीं देखा. एक बार, बहन के शहर गया था..” फिर कनक्लूड करते हुए कहता है, “इन सब की निगाहों में, मैं रावण हूँ, दुष्यंत नहीं.”

इस पर वह सकुचाते हुए कहती है, “मैं क्या बताऊँ, दुष्यंत तो समझदार है.” फिर वह अपने परिवार, कामकाजी जिम्मेदारियों के कारण गिनाती है.

स्वर्ग कमल के कमरे पर, वह उसे अपने विवाह का इश्तिहार दिखाती है. वह उसे कहती है, “एडवर्टाइजमेंट का जवाब देना है. एक फोटो के साथ.”
इस पर वह दोनों का युगल फोटो दिखाते हुए कहता है, “इसे ही भेज देते हैं.”

वह कहती है, “घर वाले क्या सोचेंगे.”

“अकेले की फोटो नहीं है.” वह ‘थ्रू प्रॉपर चैनल’ पर जोर देती है, तो वह अपने प्रेम संबंधों पर जोर देता है. वह मना करती है. इस पर वह कहता है, “इसमें हर्ज ही क्या है.”

कुछ दिनों बाद, वह स्वर्ण कमल को खबर देती है कि, पाँच कैंडिडेट हैं. उनमें एक कॉलेज का टीचर भी है. मैंने तो लिख दिया है, मास्टर साहब से ही शादी पक्की कर दी जाए. स्वर्ण कमल उसे शादी की मुबारकबाद देता है, तो वह कहती है “आपको भी.” “मुझे किसलिए.”

“वो मास्टर तो आप ही हैं.” अब तक उसे यह विश्वास रहता है कि, वह टीचर स्वर्ण कमल ही होगा.

“मैंने तो कोई अर्जी नहीं लिखी.”

बड़ी विचित्र स्थिति पैदा हो जाती है. वह कहता है, अर्जी ही देनी होती, तो मैं कॉलेज में टीचर नहीं होता.

उधर काशीपुर में उसके घर पर शादी की तैयारियाँ चल रही होती हैं, लेकिन वह ऐन मौके पर शादी के लिए माँ से साफ मना कर देती है. माँ कहती है कि अब तो शादी के कार्ड भी बँट गए.

कॉलेज में भी शादी के कार्ड पहुँच जाते हैं. गीता, स्वर्ण कमल को रेणु के यहाँ भेजती है. समय कम है. जिस ट्रेन से वह यात्रा कर रहा होता है, उसके ट्रैक पर कोई गड़बड़ी हो जाती है. फिर वह तांगे की सवारी लेता है. ताँगे का पहिया निकल जाता है. एडवांस किराए के एवज में वह टैंपोवाले को अपनी घड़ी और जैकेट देता है. फिल्म का सुखांत समापन होता है.

फ्लर्ट करने वाले बंगाली मास्टर की भूमिका में देवेन वर्मा खूब जमे. केस्टो मुखर्जी, कोचवान की भूमिका में नजर आते हैं. कुल मिलाकर, मन में चल रहे मनोभावों को सलीके से प्रस्तुत करने में फिल्म अद्वितीय रही.

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ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Sudhir Kumar

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  • वाह. अद्भुत कथा प्रवाह. फ़िल्म जीवंत कर दी.

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1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

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बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

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गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

1 week ago