हल्द्वानी की तरफ से अल्मोड़ा शहर में प्रवेश करते समय, पहला तिराहा जो मिलता है उसका नाम करबला है. different types of houses in almora vivek saunakiya
करबला तिराहे पर बीचों-बीच प्लास्टिक के लगभग ढाई फीट ऊंचे डायवर्जन पिलर लगे हैं. एक धूमिल सा हो चुका ग्रेनाइट का बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है, महात्मा गांधी मार्ग. यह महात्मा गांधी मार्ग बाजार और मुख्य शहर की तरफ जाता है. दूसरा रास्ता दूसरी तरफ जाता है. जो धारानौला होते हुए कहीं दूर पहाड़ियों में खो जाता है. पहले रास्ते से रानीखेत, सोमेश्वर, कोशी, बागेश्वर जा सकते हैं तो दूसरे रास्ते से जागेश्वर, चितई, बाड़ेछीना, पिथौरागढ़ जा सकते हैं. मजे की बात कि दोनों रास्तों से बागेश्वर जाया जा सकता है. इन दोनों रास्तों के बीच एक लहराता पहाड़ है जिसके दोनों पुट्ठों पर यह शहर बसा है. मोहल्ले बसे हैं, लोग बसे हैं. different types of houses in almora vivek saunakiya
धारानौला जाने वाला रास्ता दुगालखोला होता हुआ आगे बढ़ता है. यह अपेक्षाकृत नई बसासत का मोहल्ला है. पुराने घर थोड़ा कम मिलेंगे. पेड़, पौधे, हरियाली भी कम मिलेगी पर सर्दियों में सूरज की धूप सेंकने का जो आनंद इस पट्टी के घरों में है, वह पहाड़ पर दूसरी तरफ बसे घरों में नहीं.
महात्मा गांधी मार्ग और दुगालखोला, धारानौला जाने वाली रास्ते पर बसे घरों के स्थापत्य में अंतर है. धूप, हवा, पानी में अंतर है. थोड़़ा बहुत लाइफस्टाइल में भी फर्क है. हालांकि फर्क है बहुत बारीक है पर उसे पकड़़ पाना नामुमकिन नहीं है.
प्रकृति द्वारा बनाए गए अंतर, जो कि एकदम स्वाभाविक और विकास को समर्पित था, को मनुष्य के द्वारा स्थापित किए गए अंतर ने बौना कर दिया. शिक्षा, भाषा, बोली, रहन-सहन, समाज, संस्कृति, आदतें, सोच-विचार और इन सब से मिलकर बना जीवन इसी अंतर की भावना को ही तो बरकरार रखने पर आधारित है.
अल्मोड़ा में भी यही अंतर पाया जाता है. यह अंतर अपने आप को अल्मोड़ियेपन के रूप में प्रकट करता है, जिसमें सारा अल्मोड़़ा, अल्मोड़ा की सारी धरती, अल्मोड़े का सारा आकाश समा जाता है और जो बचता है वह भी एक अलग किस्म का अल्मुड़ियापन बचता है जो समझ से परे होता है, अकथ होता है, अकथनीय होता है.
इसी अंतर को प्रकट करती है गंगोला मुहल्ले से थाना बाजार तक फैले घरों में लगी लकड़ी की नक्काशी वाली चौखटें और खिड़कियां. गंगोला मोहल्ले और जौहरी बाजार वाली लेन में पटाल वाली सड़क के दोनों और लंबी-लंबी पट्टी में दो मंजिलें घर बसे हैं. इन घरों में ऊपर-नीचे दोनों तरफ लगी लकड़ी की चैखटों दरवाजों, खिड़कियों पर एक अद्भुत नक्काशी पाई जाती है. गहरे रंग की लकड़ी पर इंच दर इंच की गई नक्काशी में हिंदू धर्म की संस्कृत किस्से कहानियां के दर्शन होते हैं. द्वारपाल, गणेश, हनुमान, एवं अन्य देवतागण इस प्रकार की नक्काशी की मुख्य थीम है. different types of houses in almora vivek saunakiya
इस प्रकार की नक्काशी युक्त खिड़कियां और दरवाजे पूरे कुमाऊं में सामाजिक तौर पर समृद्धि और ठोस पायेदार मकान मालिक के प्रतीक होते हैं. यह चौखट जितनी उन्नत होगी उतना ही स्पष्ट यह संदेश देती है कि घर का मालिक, या घर में रहने वाला उतना ही भारी आदमी है, ठीक कुमाऊनी नथ की तरह.
यह परंपरा कब से है खोजने पर इसकी कोई तिथि युग काल पता नहीं चल सका, बस इतना पता चलता है कि यह कल्चरल डीएनए का हिस्सा है.
अपने गहरे चटक रंग व मजबूती की विशेषता के कारण वुड कार्विंग के लिए तुन नामक पेड़ की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है, हालांकि देवदार की लकड़ी का भी प्रयोग वुड कार्विंग के लिए हो सकता है, पर देवदार में कार्विंग करते समय दो समस्याएं पेश आती हैं, पहला यह कि इसमें तुलनात्मक रूप से फिनिशिंग अच्छी नहीं आती दूसरा यह कि डिजाइन का छोटा पीस बनाते समय यह टूट जाती है. जिससे बनाने वाले के सामने उस डिजाइनदार पीस को बनाए रखने की समस्या बहुतायत में आती है.
तुन की लकड़ी में यह समस्या नहीं आती इसका जहां से जितना पतला डिजायन पीस चाहें काट सकते हैं, मोड़ दे सकते हैं, क्योंकि उसका छोटे से छोटा और पतला टुकड़ा टूटता नहीं है. तुन की लकड़ी के दो अन्य फायदे भी हैं एक तो तुन की लकड़ी का अपना प्राकृतिक रंग लगभग गहरी लालिमा लिये होता है. रंग का गहरा होना अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह रंग ही तो अंतर के आधरों में से एक है.
घरों के बाहर की जाने वाली लकड़ी की नक्काशी के सामाजिक निहितार्थ भले ही अलग हों पर विलुप्ति की कगार पर खड़़ी इस कला के गुम होने के पीछे कई सामाजिक आर्थिक कारण हैं.
पूरे के पूरे डिजाइन हाथ से बनने के कारण मजदूरी बढ़ने लगी जिससे देखते-देखते वुड कार्विंग का खर्चा बढने लगा. उधर दूसरी तरफ इस कला के पारंपरिक कारीगर समाप्त हो गए, और जो थोड़े बहुत बचे भी उनसे नई पीढ़ी ने कोई ज्ञान लेने में कोई उत्साह नहीं दिखाया.
आज अल्मोड़ा के पास जागेश्वर और उसके आसपास के गांव में कुछ कलाकार बचे हैं जिनमें खोरी गांव के धनीराम और दारूनखोला के गुसाईंराम के नाम प्रमुख हैं. दोनों के बच्चे इस कला को ग्रहण करने में उत्साह नहीं दिखा रहे हैं.
इधर जिन घरों में इस तरह की नक्काशी युक्त चैखटें लगतीं थीं वे भी टाइलों की चमक-दमक की ओर मुंह मोड़ रहे हैं. इस प्रकार समाज के दो वर्गों की उपेक्षा का शिकार बन गई यह अल्मोड़ा की विश्व धरोहर अपने आखिरी दौर में है. एक ऐसा दौर जहां समाज अंतर पैदा करने के नए और अधिक तेज उपकरण ढूंढ रहा है. लकड़ी के दरवाजों पर बने गणेश जी तो अब फैशन से बाहर हैं बल.
–विवेक सौनकिया
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं.
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3 Comments
Anjali
Vivek jee ne almora almora walo se jyada Jana hai….bahut umda lekhan
अफरोज
बहुत अच्छा लगा अल्मोड़ा के परम्परागत संस्कृति के हिस्सो को जानकर।
बहुत अच्छा लिखें हैं विवेक भाई
VIVEK SINGH
Ek mahan kahani almora ki gajab