कुछ रोज पहले की बात है. मैं, बाल कटवाने गया था. नापित के यहाँ बाल कटवाने में नंबर लगाना पड़ता है. पुरानी सी दुकान थी. दुकान में एक टूटी हुई व्हीलचेयरनुमा जीर्ण-शीर्ण कुर्सी थी, जिस पर एक नौजवान बैठा हुआ था. उसके बाल सँवारे जा रहे थे. कुर्सी का ‘हेडरेस्ट’ उखड़ा हुआ सा लगा, जो हेड को रेस्ट देने के बजाय चुभता हुआ सा ज्यादा दिख रहा था. ‘वेटिंग’ वालों के बैठने के लिए एक टूटी-फूटी बेंच थी, जो पटिए जंक-जोड़कर जैसे-तैसे खड़ी की गई थी.
कुछ लोगों की जिज्ञासा हो सकती है कि, साधनों के इस युग में ऐसी प्रागैतिहासिक किस्म की दुकान पर जाते ही क्यों हो. इसके पीछे की मजबूरी ये है कि, हेयर कटिंग के मामले में कुछ खास किस्म की भावनाएँ काम करती हैं. एक अनुमान के मुताबिक, नापित के मामले में ग्राहकों में एक ठेठ किस्म का आग्रह पाया जाता है कि, हम तो उसी से बाल कटवाएँगे, जिससे पिछले तीन दशक से कटवाते आ रहे हैं. हम जाएँगे तो वही जाएँगे, और कहीं नहीं. लंबे अरसे तक एक ही दुकान से सेवा लेते हुए ‘कटिंग मास्टर’ से एक तरह का अपनापा सा बन जाता है. इस दोस्ताने में खास बात यह रहती है, उसे आपकी हेयरस्टाइल मालूम रहती है. वह जानता है कि, पहले साइड पर जीरो मशीन फेरनी है, फिर गुद्दी पर. आगे के बालों पर थोड़ी सी खचखच, ऊपर थोड़ी सी खटरपटर. दो-चार आड़ी-तिरछी कैंची फिर चंपी और साथ-साथ उसके अंतहीन किस्से.
तो कटिंग मास्टर ऐसा था कि अपने हुनर पर कुछ ज्यादा ही मोहित रहता था. हाथ के हुनरवालों को शायद अपनी कला पर मुग्ध होने का शौक रहता है. शायद उन्हें होना ही पड़ता है. मजबूरी रहती है उनकी. ऐसा करने से हरदम उनका कॉन्फिडेंस बना रहता है तो विचारों की इस श्रृंखला के बीच उस नौजवान ग्राहक पर नजर पड़ी. वो उठ चुका था. शायद स्पेशल कटिंग कराई थी और कुछ तामझाम भी. जाते-जाते, वह अपने असली स्वरूप में दिखा, तो कुछ विचित्र सा लगा. लड़का व्योमकेश था. ललाट पर कँटीले रूखे और बेजान से बाल. एकदम कोणदार, बरछी के माफिक नुकीले, सीधे आसमान की ओर.
उसके जाने के बाद, नापित ने बताया, “ऐसे बाल, मेंटिनेस बहुत माँगते हैं गुर्जी.” फिर उसने ज्ञानवर्धन करते हुए बताया, “जानते हो गुर्जी, खूब सारा केमिकल चुपड़के ‘स्ट्रेट’ रखा जाता है. जब तक चुपड़ते रहो, तब तक तो बाल टिके रहते हैं. जरा सी लापरवाही करी नहीं कि, अलसाकर ढ़ुलक जाते हैं.”
हमसे पहले जिनका नंबर था, वे देश-दुनिया पर चिंता जाहिर करने वाले एक प्रौढ़ से सज्जन थे. बातचीत से गुरु जी जैसे लगे . मानो उनका, इन जैसे लड़कों से रोज का साबका पड़ता हो, निराशा भरे स्वर में बोले, “बड़ी परिश्रमी पीढ़ी है. बाल संवारने में कितना एड़ी- चोटी का जोर लगा रही है. बालों को कलगी जैसा बनाने और अलग-अलग तरह के चटकीले रंगों से सजाने के लिए कितना धैर्य और संयम दिखाते हैं. फिर उन्हें जड़वत बनाए रखने के लिए बेचारों को कितनी-कितनी मुसीबतें उठानी पड़ती हैं.”
फिर कुछ सोचकर, हताशा भरे स्वर में बोले, “नौजवान लड़के, यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ ब्लेड, कील और आलपिन के आभूषण पहनते हैं. डीमार्टिन के बूट. धन्य हैं, ये बच्चे.” नापित-गुरुजी संवाद से हम सोच में पड़कर रह गए. बड़े-बड़े अर्थशास्त्री अक्सर बताते रहते हैं कि, मंदी और फैशन का एक साइकिल चलता है, जो लौट-लौटकर आता है.
दरअसल, इस ‘पंक-संस्कृति’ का प्रभाव बड़ी तेजी से फैला. देखते-देखते आपके आस-पास ही फैला और आपको हवा भी नहीं लगी. ये सब, इतनी तेजी से हुआ कि, कुछ पता ही नहीं चला. इसी सिलसिले में, बालों के फैशन पर एक घटना की याद हो आई. अपने मोहल्ले में एक नौजवान की हेयर स्टाइल देखी थी. उन दिनों वह हेयरस्टाइल खूब अपनाई जा रही थी. माथे पर झबरीले बालों की लटें, नुकीली होकर आँखों को ढाँपे रखती थी. उस फैशन में आगे देखने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी. आगे की झूलती लटों को उँगलियों से सरकाना होता था, जैसे रुख से नकाब हटाया जाता है, आहिस्ता-आहिस्ता. बालों को सीमंत से दो बराबर भागों में इस तरह से विभाजित किया जाता था, मानो पटरी-परकार की मदद से ‘स्ट्रेट लाइन’ खींची गई हो. कान बिलकुल भी नहीं दिखाई पड़ते थे, साइड के झबरीले बालों से पूरे-के-पूरे छुपे रहते थे.
उन दिनों छुट्टियाँ थीं और दीदी मायके आई हुई थी. उस लड़के की केश- सज्जा से वे काफी प्रभावित दिखीं. बोलीं, “जेपी भाई का टिंकू कितनी जल्दी बड़ा हो गया. समय कितनी जल्दी गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता. जरूर, जेपी भाई की तरह ‘सिंसियर’ होगा.” फिर उन्हें, उसकी हेयर स्टाइल याद हो आई. उत्साह के स्वर में बोली, “अरे, तुमने देखा. उसने ‘मिसाइल मैन’ वाली हेयर स्टाइल रखी हुई है.”
दीदी ने बच्चे से शायद कुछ ज्यादा ही उम्मीदें पाल ली थीं. यह प्रशंसा-भाव भैया ने सुना तो उनसे रहा न गया. बात काटते हुए, वे बीच में बोल पड़े, “अरे दीदी, तुम भी .दुनिया उतनी सीधी नहीं है, जितना तुम सोच रही हो. टिंकू, कलाम साहब से नहीं, ‘तेरे नाम’ वाले ‘राधे’ से इंस्पायर्ड है.” हेयरस्टाइल पर विचारों का यह जो सिलसिला शुरू हुआ, तो फिर चलता ही चला गया. पुरानी स्मृति कौंध गई और सिलसिलेवार तथ्य आते चले गए.
उन दिनों हम सैलून पर बाल कटाने नहीं जाते थे. सैलून माने मकसूद भाई, खुद चलकर गाँव आते थे. छुट्टी के दिन मोहल्लों- टोलो में जाकर सबके बाल काट जाते थे. स्थान-भेद तो, वे बिलकुल भी नहीं मानते थे. गुल्ली-डंडा खेलते लड़के हों या चरवाहे लड़के, जो जहाँ पर मिलता, वहीं धरती माता की गोद में बिठाकर, उसकी कटिंग कर जाते. कबीलाई से दिखते लड़कों को छाँट-छूटकर, झट से चमका के धर देते. देखते-देखते एकदम से, राजा बेटा जैसी शकल निकल आती थी. मकसूद भाई के साइकिल के कैरियर पर काठ का एक बक्सा रखा रहता था. बक्से में दो कैंची- छोटी-बड़ी, दो कंघे छोटे-बड़े, एक छुरेनुमा उस्तरा और एक कपड़ा पड़ा रहता था. कुल मिलाकर, यही साजोसामान होता था. छुरे को हर कटिंग के बाद, धार देने की जरूरत पड़ती थी. चमड़े में घिस- घिसकर, जब तक वह उसे धार देता, तब तक बालों में डाला हुआ पानी सूख जाता था. ग्राहक को घर के बाहर आँगन में, घर के ही पटिए पर बैठना होता था. फिर गले के गिर्द एक कपड़ा बाँधकर, वह ‘चिल्लर’ ग्राहकों को पूरा-का-पूरा ढाँप देता. कपड़े पर झक नील चढ़ा रहता था. मानो, कपड़े का टुकड़ा, डायरेक्ट आसमान को चीरकर निकाला गया हो.
मकसूद भाई को शायद एक ही ‘हेयर-कटिंग’ आती थी. लड़के हरसंभव कोशिश करते थे. उससे चिरौरी – विनती करते, मनुहार करते कि, “भैया आगे के बुलबुले(जुल्फें) थोड़ा लंबे छोड़ देना. बाकी तो जैसी मर्जी आए, वैसा कर लेना.” मकसूद भाई, थोड़ा ऊँचा सुनते थे, लेकिन लड़कों की इस भावना को झट से समझ जाते. ग्राहकों के इस आग्रह पर सीधे हाथ खड़े कर देते. मजबूरी जताते हुए कहते, “ना भइय्या ना. तेरी माँ मारेगी. तुझे तो मारेगी ही, मुझे भी मारेगी.”
लड़कों ने उसे लाख मनाया. लोभ-लालच तक दिया. पर क्या मजाल कि, उसने कभी बात मानी हो. हरबार, सफेद झंडी दिखाकर, हाथ खड़े कर देता. एकतरफ, उन दिनों रुपहले पर्दे पर बड़े बालों का फैशन बदस्तूर जारी था. इधर मकसूद भाई, आगे-पीछे और साइड में, सब बराबर किए रहते थे. एकदम घुटमुंडी करके धर देते थे. एकदम खूँटी जैसे बाल, जैसे अखाड़े में दंगल खेलने वाले पहलवान कराए रहते हैं. चढ़ती उम्र के लोगों का फैशन, जरूर कुछ अलग सा रहता था. वयोवृद्ध, आपसदारी में बाल कटवाते थे. इन्होंने उनके बाल काट लिए, इन्होंने उनके. हिसाब बराबर. किसी के भी आँगन में सोसायटी जम जाती. गपशप चलती रहती थी, बाल भी छँटते रहते थे. क्लब- का-क्लब और सैलून- का-सैलून. बड़ी निराली सुविधा उपलब्ध रहती थी. गोष्ठी को देखकर, राह चलते बुजुर्गों की बाल छँटवाने की इच्छा जोर मारने लगती. फिर वे अपना काम-धाम भूलकर, सीधे आँगन में प्रकट हो जाते थे. उस्तराधारी से अपना नंबर लगवाते हुए कहते, “जरा भाई, म्यारू मुंड बि सुदार द्यान.”
बच्चे ताकझाँक करते रहते थे. बुजुर्गवार की इस विनती को सुनकर, कानाफूसी करते. “दाद्दा, बाल सफाचट करवा रे और बोलरे कि बाल सुधार दो.” वे जानते थे कि, गढ़वाली बोली में, ‘घुटमुंडी’ कराने को ही ‘बाल सुधारना’ कहते हैं, ‘लेकिन जब मुफ्त में मजा लेने का मौका मिल रहा हो, तो उसे ऐसेई कैसे छोड़ दें.’
उन दिनों यह मान्यता जोरशोर से चलन में थी कि, लड़कों की छवि, बालों से बनती- बिगड़ती है. करीने से कतरे हुए छोटे-छोटे बाल और उसके ऊपर उड़ेला हुआ ढेर सारा सरसों का तेल. साइड से निकली माँग, सीधे- शरीफ लड़कों की निशानी मानी जाती थी. मकसूद भाई, बाल इतने छोटे कर जाते थे कि, साइड से माँग निकालना लगभग असंभव सा हो जाता था. बिना माँग के तो शराफत कुछ ज्यादा ही उभर आती थी. सारे लड़के एकदम भोला(पड़ोसन में दत्त साहब) की तरह भोले- भाले से दिखने लगते थे.
लंबे बाल रखना, तब शिष्टजनोचित आचरण नहीं समझा जाता था. जुल्फें, आवारगी की निशानी मान ली जाती. हेयर स्टाइल का कुल-शील, गरिमा और आन-बान-शान से सीधा ताल्लुक बताया जाता था. सुंदर, घने लहराते बालों को, सीधे गवैये- बजैये के खानदान से जोड़कर देखे जाने का रिवाज था.
दूसरी तरफ बड़े पर्दे पर, काले घुंघराले लंबे बालों का जबरदस्त शोर मचा हुआ था. पीछे की ओर बाल सँवारकर, स्वतंत्र छोड़ देने का फैशन जोरों पर था. लड़कों को सिनेमा के वे किरदार बहुत अच्छे लगते थे. अपने से लगते थे. वे मन में बड़ी गहरी हसरत पाले रहते थे, खुद को उन्हीं की तरह दर्शनीय देखना चाहते थे. लेकिन इस चाहत में बड़ी-बड़ी बाधाएँ थी. एकतरफ, सिर पर बालों की किल्लत रहती थी, तो दूसरी तरफ सिनेमा के नायक की तरह बाल पालने की विकट इच्छा. फिर वो चाहत ही क्या, जिसमे बाधाएँ ना हों. इस वजह से लड़के, अपनी चाहत, मन में रखे हुए, मचल-मचलकर रह जाते थे. देखा जाए तो समस्या, बड़ी विकट थी.
‘चार लोग क्या कहेंगे’ वाले चार लोगों का इलाके में भयानक आतंक छाया रहता था. चार-चार लोगों के अनगिनत गिरोह, अक्सर चौराहों पर, नुक्कड़ पर, यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ स्थायी रूप से मौजूद मिलते थे. बस यूँ समझिए कि, घात लगाए बैठे रहते थे. शोभादार बाल देखते ही, उनके कान खड़े हो जाते. उन्हें तनिक सी भनक भी मिल जाती, तो वे उसे दूर से देखते और बगावत की बू महसूस करने लगते थे. गुंजाइश तलाशते रहते थे. आते-जाते लड़कों को कनखियों से देख लेते. खुदा न खास्ता, अगर उनका शक जरा भी यकीन में बदलता तो एकदम से सनाका सा खिंच जाता था. मानों हवा बहनी बंद हो गई हो और डालों पर बैठे स्तब्ध पक्षी यकायक उड़ गए हों. आँखों पर हथेली का छज्जा बनाकर तब तक उसे देखते रहते, जब तक वह ओझल ना हो जाता. उसे ऐसी नजरों से देखते जैसे किसी बड़े आश्चर्य से उनका साक्षात्कार हो गया हो.
कुल मिलाकर, ऐसे लड़कों को फटी- फटी आँखों से देखते रह जाते थे. फिर उस लड़के के प्रचार-प्रसार के लिए उन्हें शब्द- चयन की आवश्यकता नहीं पड़ती थी. ‘ध्येय वाक्य’ बरबस मुख से निकल पड़ते. खुद-ब-खुद प्रचारित हो जाता था कि फलाने का लड़का अब कहने में नहीं रहा. वो तो अब बस हाथ से निकल गया समझो. सटाक से उसकी गणना ‘गए-बीतों’ में होने लगती थी- ‘देखो- देखो, कैसा जमाना आ गया. इसी को कहते हैं, घोर कलजुग. कैसी औलाद निकली, मास्टर रामप्रसाद की. देखो तो जरा, बाप कितना भला आदमी. बेचारे को, अच्छे कर्मों का ये नतीजा मिला.’ वे हरदम निशाना साधते हुए मिलते थे. तरह-तरह से हमला बोलते, चुन-चुनकर हिसाब रखते थे.
बीच से माँग काढ़ना, तब खतरे से खाली नहीं रहता था. इस मामले में स्कूलों में बेहद सख्ती दिखाई जाती थी. असेंबली में मास्टर खुद, एक-एक लड़के के बालों को निरखते-परखते थे. बाईचांस ऐसा लड़का दिखा नहीं कि, तपाक से उसे सिंदूर डालने और मंगलसूत्र पहनने का परामर्श दे जाते. संस्कृत वाले मास्टर जी तो एक कदम आगे बढ़कर, चूड़ी-बिंदी से लेकर सिंगारदान तक रखने का परामर्श देने लगते थे. पीछे गर्दन तक लंबे बालों वाले लड़कों के पीछे तो वे हाथ धोकर पड़े रहते थे. ऐसे बालों को ‘सेंटलु कु पूच'(मैना की पूँछ) कहा जाता था. तो ‘पूँछ’ की गहराई से पड़ताल की जाती थी. कहने-सुनने का वे जरा भी अवसर नहीं देते थे. चौतरफा घेराव करते और सहसा झपट पड़ते थे. सीधे रबड़ बैंड बाँधकर ही छोड़ते थे. कुल मिलाकर, बालों से चरित्र का सीधा संबंध जोड़ा जाता था. बालों का आकार-प्रकार, लड़कों की छवि, बनाने- बिगाड़ने में, सबसे निर्णायक कारक माना जाने लगा. लेकिन होनी को कौन टाल सकता है.
गाँव में एक लड़का था, जो अपने बयानों और खुलासों को लेकर अक्सर चर्चा में रहता था. सुनने में आया कि, फैशन के लिए उसने अपने अंतर्मन की आवाज सुनी. उसके मन ने शायद आत्मनिर्णय के अधिकार की दुहाई भी दी. तो बड़ी मेहनत से उसने अपने बाल सजाए- सँवारे. फिर, देर किस बात की थी. सयानो ने उस पर जमकर निशाना साधा. लगातार हमने जारी रखे. लेकिन, वो बड़ा ढीठ निकला. इन बातों की उसने रत्ती भर परवाह नहीं की. फिर उन्होंने उसकी छवि को नुकसान पहुँचाने के इरादे से, तरह-तरह की बातें उड़ाई. जाहिर है, इन बातों से उसका बाल भी बाँका न हुआ तो अजीज आकर एक दिन पंचों ने उसे सरेराह धर दबोचा. उसके बालों को सहलाते हुए बड़े दुलार से पूछा, “बता दे बेटा, शाब्बाश, किसके बहकावे में आके तूने ऐसा किया. किसने तेरा ब्रेनवाश किया.”
लड़का चालाक था. बोला कुछ नहीं, बस दाहिने पैर के अंगूठे से जमीन को कुरेदता रहा. इस व्यवहार से पंच खीझ उठे और उसे कोंचने पर उतारू हो गए. तो उसने लंबे बाल रखने की इच्छा जताते हुए कहा, “मैं बालिग हूँ और अपने फैसले खुद लेता हूँ. क्या मैं किसी के सिखाए-पढ़ाए में आने वालों में नजर आता हूँ.” जवाब कदम ‘स्ट्रेटफारवर्ड’ था. जिसका पंचों ने अन्यथा अर्थ ले लिया. मानो उसकी निजी जिंदगी के फैसले लेने का उन्हें कोई अख्तियार ही नहीं था. तो पंचों ने उसके जवाब को एक किस्म से अपनी तौहीन माना. उन्होंने उसे तरह-तरह से कुरेदा, तो उसने अकड़कर कहा, “आपका ब्रेनवाश किए जाने का आरोप, एकदम बेबुनियाद है.” पंचों का चेहरा फक सा होकर रह गया. एक पंच ने तो उसे फिर से आगाह कर डाला. उनका मानना था कि, ‘उसे ऐसे ही कैसे जाने दें. मामला, सीधे चाल-चलन का बनता था. उसके इस रवैये से गाँव की आबोहवा बिगड़ सकती थी और गाँव की आबोहवा को बचाए रखने की जिम्मेदारी उन्ही की थी.’ लेकिन उन्होंने देखा कि, वह हाथ ही नहीं धरने दे रहा था. देखो, बुजुर्गों को किस तरह अकड़कर जवाब दे रहा है. पंच ने मन-ही-मन कहा, ‘यही तहजीब सीख रहे हो तुम.’ सरपंच तो उसके व्यवहार से एकदम चौंककर रह गए. लेकिन लड़के में उन्हें बात कुछ खास लगी. उसके कॉन्फिडेंस को देखकर सरपंच जी ने उसे श्रद्धा भाव से देखा. फिर उन्होंने बातचीत का पैंतरा बदला और एकाएक ठकुरसुहाती पर उतर आए. उसके दादा-बाबा से लेकर पूरे खानदान की दुहाई दी. ‘मान जा, मान जा’ की रट लगाए रहे. लड़का घाघ था. टालने की नीयत से उसने मजबूरी जताई, “महीने-महीने, बाल कटाने के पैसे मुझे नहीं मिलते. क्या करूँ.” सरपंच को लिहाज रखने के लिए कहना पड़ा, “पैसे मैं दूँगा. तुम उसकी चिंता मत करो. तुम बस कायदे का इनसान बनके रहा करो.”
बातचीत की नब्ज पकड़ते हुए लड़का बोला, “एक बार तो तुम दे दोगे चाचा. उससे क्या होगा. आगे का क्या. गारंटी लेनी है, तो पूरी लो. कहीं ऐसा ना हो कि, तुम्हारे कहने में आकर, मैं न घर का रहूँ न घाट का.”
“क्या बात करते हो बेट्टाराम. ये तेरे चाचा की जुबान है, किसी ऐरे- गैरे की नहीं. जब तक मैं इस सीट पे हूँ, तब तक महीने-के-महीने, मुझसे पैसे लेते रहना, लेकिन सब फिटफोर रहना चाहिए.”
लड़के ने हाथ, बहुत लंबा मारा था. संधि होने के पश्चात् दो पंचवर्षीय अर्थात् दस बरस तक सरपंच जी अपना कौल उठाए-उठाए फिरते रहे. एक बार जो जुबान दे दी, उसके लिए उन्हें काफी कुछ बर्दाश्त करना पड़ा. अपने अहम की तुष्टि के लिए इतनी कुर्बानी तो बनती ही थी. हालांकि कभी-कभार ऐसा भी हुआ कि अपने कामकाज में वे दिया हुआ वचन भूल सा गए, लेकिन लड़का कहाँ भूलने वाला था. उसने तो तारीख कसके पकड़ी हुई थी. वह हरदम सड़क पर बाँहें पसारे, सरपंच चाचा का इंतजार करता हुआ मिलता. गाँव की सड़क, उसके घर के बगल से होकर जाती थी. बिना चुंगी दिए कैसे जाने देता.
सबको मानना पड़ा कि, लड़का था बड़ा चालाक. विचार, उसके मन में हमेशा मौलिक ही आते थे. अब वह छोटी काट के बाल रखने लगा, लेकिन रखता पूरे फैशनेबल स्टाइल से था. रॉक स्टार्स की तरह, छोटे-छोटे बालों में दर्जनभर आड़ी-तिरछी लकीरें खिंचवाए रहता था. अपने मुताबिक, उसने पंचों से किया हुआ वादा, पूरी तरह निभाया. पंचों के सामने पड़ते ही तपाक से बोलता था, ‘देखा चच्चा, अपुन का जेंटलमैन प्रॉमिस.’ बंदा था होशियार, कभी किसी को उँगली तक धरने का मौका नहीं देता था. पंच खिसियाकर रह जाते, लेकिन कुछ भी करने में लाचारी महसूस करते थे. शर्त के मुताबिक, बाल छोटे-छोटे रखने की ही बात तय हुई थी. लकीर-वकीर डालने पर किसी तरह की कोई पाबंदी, तो शर्त में थी नहीं.
धीरे-धीरे समय बदला. परिस्थितियाँ बदली. लंबे समय से जमी बर्फ पिघलनी शुरू हो गई. धीरे-धीरे ही सही. लड़कों के बीच, उस ‘लोकल रॉकस्टार’ का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाने लगा. संघर्ष की कड़वी यादें पुरानी पड़ती गई. अब लड़के, कस्बे में बाल कटाने जाने लगे. उस उम्र में फैशन की चपेट में आने से बचना वैसे भी नामुमकिन सा रहता है. तो लड़के, नापित की दुकान पर पहुँचते ही, आदमकद शीशे के सामने घंटों खड़े रहते. अलग- अलग कोणों से खुद को निहारते. वक्रग्रीवा और बंकिम शरीर के साथ अनुमान लगाते, कटिंग यूँ जँचेगी या यूँ. चाहे जितना तीन-पाँच कर लें, बात आखिर सबसे पॉपुलर स्टाइल पर ही जाकर छूटती थी.
सुदर्शन दिखने के लिए, खासतौर पर चेहरे पर कांति चढ़ाने के लिए, लड़कों को क्या-क्या नहीं सहन करना पड़ता था. कमानदार भौंहें बनवानी हो या चेहरे पर चमक. अनचाहे रोमों को उखाड़ने के लिए नापित, चेहरे पर आटे जैसा पाउडर चुपड़कर रोम खड़े रखने की विद्या जानता था. दूसरी बार में तो, डर के मारे रोएँ अपने आप ही खड़े हो जाते थे. फिर मांजे जैसे धागे का एक सिरा उँगली में पिरोकर, दूसरा सिरा दाँतो से दबाये रखता. चेहरे के अनचाहे बालों पर, किर्र-किर्र मचाते हुए वह एक-एक रोआँ उखाड़ता था. एक ही रोआँ उखड़ने में, धारासार अश्रुधारा बह निकलती थी, लेकिन मरते क्या न करते. चेहरे पर दीप्त आभा चाहिए, तो इतना तो सहन करना ही पड़ता था.
उन दिनों सामने के बालों में चिड़िया जैसा फुग्गा बनाकर, लड़के परम प्रसन्न बने रहते थे. एक तो शौक नया-नया था. ऊपर से उम्र का तकाज़ा. तो लड़के, घड़ी-घड़ी बालों को निहारते. खिड़की का शीशा हो या पारदर्शी दरवाजा. लोटा हो या थाली. अपना प्रतिबिंब जरूर देखते थे. नदी, तालाब-पोखर के जल में परछाई देख-देखकर निहाल हो उठते थे. कहने का तात्पर्य यह है कि, सौंदर्य बोध का कोई भी अवसर नहीं चूकते थे. मजे की बात यह थी कि, विरल बालों वाले अथवा खल्वाट ग्राहक भी उस सैलून में अक्सर आते थे. उनमें से जो ज्यादा सुरुचिपसंद थे, वे तो कुछ ज्यादा ही आते थे. नाई को उनके रहे-सहे बालों की छँटाई, बहुत ही संभलकर करनी पड़ती थी. आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ शीशों में अपनी प्रतिच्छाया देखकर, अक्सर वे अपने स्वर्णिम अतीत में खोकर रह जाते, “पैल्ले मेरे बाल इतणे घणे थे कि कंगी करते-करते, कंगी बाल्लों में ही फँसके रै जात्ती थी.”
फिर भूतपूर्व बालों की विशिष्टता जताते हुए कहते, “और इतणे मजबूत कि पूच्छो मती. बाल्लों से ट्रैक्टर खींच लेता था.” किस्म-किस्म की गर्वोक्तियाँ. खैर, ये तो अपने-अपने शौक की बात है. इधर नापित का दावा था कि, “इन गाक्खों की अगर, कसके जाम्मातलाशी लेल्लो, तो उनकी चोर- जेब से, कुछ और मिले ना मिले, कंगी तो बरामद होक्केई रहेगी.” तो अवशेष वालों की साज-सँभाल के लिए वे काफी सतर्क रहते थे. एकदम सजग और सचेत- ‘अब तक जो हुआ सो हुआ, अब आगे ऐसा नहीं होने देंगे.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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1 Comments
Anonymous
Praiseworthy beyond limit !!!
Pantomiming … पैल्ले मेरे बाल………
इन गाक्खौ…….
चिल्लर को पूरा ढाँपना
पानी तक में आत्ममुग्धों का केश विन्यास की टोह लेना
किर्र किर्र करता माँजे ……दाँत से पकड़…
अश्रुधारा …..
सरपंच का कौल में फँसना
काफी स्थल ठहाके की गारंटी हैं ।
गजबनाक अणुवीक्षण !!
आपकी कलमी खुश्बू के परमाणु कायनात मे विसरण करें ।
रचनाधर्मिता जिंदाबाद भुला
Hindi typing me finger deft nahi
Poora na likha aadha hi sahi
more face to face
Ur cousin
M.S.Rayal