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माँ को बच्चे की पहली शिक्षक कहा जाता है. मेरे लिए तो माँ पूरी पाठशाला ही थी. हालांकि विडंबना ये थी कि माँ का प्राथमिक शिक्षक बनना और मेरा प्राथमिक स्तर से बाहर निकलना लगभग साथ-साथ हुआ था. इस तरह माँ, मेरी औपचारिक शिक्षक कभी नहीं रही. फिर भी अनौपचारिक शिक्षा जिनसे प्राप्त की, उनमें माँ का स्थान सर्वप्रथम है और निस्संदेह सर्वश्रेष्ठ भी. खाना बनाते हुए, घास-लकड़ी को जंगल जाते हुए, किसी से मिलते-मिलाते हुए और रेडियो पर प्रसारित हो रहे किसी कार्यक्रम या गीत को सुनते हुए; माँ सिखाने लायक कुछ न कुछ निकाल ही लेती थी. माँ से वो सब सीखना अच्छा भी लगता था. लोरी की तरह वो ज्ञान आनंद देने वाला होता था, जिज्ञासा बढ़ाने वाला होता था.
(Devesh Joshi Memoir)
माँ जो बातें बताती थी, उनमें से अधिकांश का तत्काल महत्व समझ भी नहीं आता था. कुछ पर मेरी प्रतिक्रिया होती थी कि, हुआ करे, मैं क्या करूं. इन्हीं बातों का आगे जीवन में जब कोई प्रसंग आता तो तब समझ आता कि ये तो माँ ने बहुत पहले ही बता दिया था. और फिर वो कभी न भूलने वाली बात बन जाती.
गाँव हमारा, उत्तर-पूर्वाभिमुख पहाड़ी पर स्थित है. पश्चिमी क्षितिज में चौखम्बा विराजते हैं तो पूरब में त्रिशूल से लगा हुआ वेदनी बुग्याल. राजजात का अंतिम पड़ाव होमकुंड ठीक सामने है तो रहस्य-भरा रूपकुंड भी आसानी से चिह्नित हो जाता है. इन दोनों छोरों के बीच, हिमालय के कई ऊँचे पर्वत-शिखर भव्य स्वरूप में दिखायी देते हैं, जो सुबह से लेकर शाम तक कई रंग बदलते रहते हैं. इन्हीं शिखरों के नाम से पहला परिचय कराया था माँ ने. आजकल नेचर वॉक के नाम पर इस तरह की जानकारी को एक्सक्लूसिव कहा जाता है. पेशेवर ट्रैकिंग गाइड के लिए ये जानकारी रखना और ट्रैकर्स को बताना, उनकी रोजी-रोटी का हिस्सा है. फिर भी आश्चर्य होता है ये जान कर कि अभी भी अधिकतर प्रौढ़ों को भी कुछ खास मतलब नहीं होता है कि उनके सामने कौन-सा शिखर दिख रहा है या ठीक नीचे कौन-सी सरिता बह रही है.
माँ ने पर्वत-शिखरों के जिन नामों से परिचय कराया था, वे सब सही थे, सिवाय एक के. त्रिशूल को माँ ने नंदादेवी बताया था. ये भी कि ये भारत का सबसे ऊँचा पर्वत-शिखर है. आगे चल कर जब मुझे पता चला कि ये नंदादेवी नहीं त्रिशूल है, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. माँ के असामयिक निधन के कारण, मैं माँ को सिखाने का अवसर चूक गया कि नहीं ये नंदादेवी नहीं त्रिशूल है, त्रिशूल.
माँ की जानकारी अधिकतर सटीक होती थी और विश्लेषण सुस्पष्ट. इसलिए भी त्रिशूल का शूल मेरे मन में लम्बे समय तक चुभा रहा और मैं निरंतर इस शूल की गुत्थी को सुलझाने का प्रयास करता रहा. इसी प्रयास में पता चला कि नंदादेवी तो हमारे गाँव से दिखती भी नहीं है. और गाँव से ही क्या, पूरे ज़िले में भी औली, चंद्रशिला जैसी गिनती की जगहों से ही दिखती है. बेशक़, नंदादेवी चमोली जिल़े में ही स्थित है, पर चिराग़ तले के अँधेरे को जिस तरह चिराग़ नहीं दिखता, उसी तरह की स्थिति चमोली और नंदादेवी की भी है. चमोली के चुनिंदा जगहों से भी नंदादेवी आधी-अधूरी ही दिखती है. बस, पश्चिमी शिखर. इस शिखर से ठीक दो किमी पूरब की ओर स्थित सुनंदा शिखर का तो कोई सिरा भी नहीं दिखता. अल्मोड़ा-रानीखेत से नंदादेवी के उभय-शिखर वाले स्वरूप के दर्शन कर चुके पर्यटक को औली में विश्वास दिलाना कठिन होता है कि भाई! ये नंदादेवी ही है.
(Devesh Joshi Memoir)
पर्सपैक्टिव का असर है कि हमारे गाँव से त्रिशूल बाकी शिखरों से ऊँचा दिखता है, जबकि कामेट और चौखम्बा-जैसे, उससे ऊँचे शिखर भी दृश्य में होते हैं. लोकगीतों-लोककथाओं में, आस्था और परम्पराओं में नंदादेवी गहराई से रची-बसी है. ऐसे में ये विश्वास करना वास्तव में कठिन है कि आपके सामने दिखने वाले दर्जनों शिखरों में नंदादेवी नहीं है. विडंबना ये कि चमोली-रुद्रप्रयाग के अधिकांश हिस्से से त्रिशूल तीन शूलों वाले रूप में नहीं दिखता और न ही नंदादेवी अपने प्रसिद्ध ट्विन पीक्स वाले रूप में. हम तो शीतकाल में हिमपात होने पर बर्फ़ से जो मानव-मुखाकृति बनाते थे, उसे भी नंदादेवी ही कहते थे, स्नोमैन नहीं. जाहिर है कि नंदादेवी को हमारे पुरखों ने ऐन्द्रिय दृष्टि से ही नहीं बल्कि मन की अंतर्दृष्टि से भी देखा है.
(Devesh Joshi Memoir)
भौगोलिक दृष्टि से देखें तो नंदादेवी सेंक्चुरी का कोर जोन, हिमाच्छादित चोटियों से घिरा ऐसा अद्भुत क्षेत्र है जिसमें एकमात्र प्रवेश मार्ग ऋषिगंगा घाटी से ही है, जो अत्यंत दुष्कर है. अनोखी भौगोलिक स्थिति की विशिष्ट जैव-विविधता के दृष्टिगत ही इस क्षेत्र को नंदादेवी पार्क और बाद में बायोस्फियर रिज़र्व बनाया गया. लाता, दूनागिरी, चंगबंग, कालंका, ऋषिपहाड़, सुनंदा, नंदाखाट मृगत्यूड़ी, त्रिशूल और नंदाघुंटी शिखर, इस कोर ज़ोन की चौड़े कटोरेनुमा (Basin) सीमा बनाते हैं.
गौरतलब ये भी कि हमारे गाँव के आसमान में उड़ते हवाई जहाज से देखा जाए तो त्रिशूल-नंदाघुंटी के पार नंदादेवी के पश्चिमी शिखर के ही दर्शन होंगे. त्रिशूल शिखर के दर्शन होने पर मैं अब भी उसे नंदादेवी कह कर हुलसित होता हूँ. मेरे हिस्से की नंदादेवी त्रिशूल ही रहा. त्रिशूल ने ही मुझे नंदादेवी की राह दिखायी. माँ की बात अलग थी, उसे शायद त्रिशूल के पार स्थित नंदादेवी का आभाष होता रहा हो. माँ ने जब अंतिम साँस ली तो वो घर के आंगन में, ज़मीन पर त्रिशूल की ओर की करवट लेटी थी. माँ की आँखों की रेटिना पर जो अंतिम दृश्य अंकित हुआ था, वो उसकी नंदादेवी का ही था.
(Devesh Joshi Memoir)
देवेश जोशी
देवेश जोशी सम्प्रति राजकीय इण्टरमीडिएट कॉलेज में प्रवक्ता हैं. साहित्य, संस्कृति, शिक्षा और इतिहास विषयक मुद्दों पर विश्लेषणात्मक, शोधपरक, चिंतनशील लेखन के लिए जाने जाते हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ ( संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित), कैप्टन धूम सिंह चौहान (सैन्य इतिहास, विनसर देहरादून से प्रकाशित), घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित) और सीखते सिखाते (शैक्षिक संस्मरण और विमर्श, समय-साक्ष्य देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी प्रकाशित हैं. आकाशवाणी और दूरदर्शन से वार्ताओं के प्रसारण के अतिरिक्त विभिन्न पोर्टल्स पर 200 से अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं.
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