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उत्तराखण्ड के सुदूर गांवों तक विकास का रथ कभी नहीं पहुंचता

इस बार एक लंबे अंतराल के बाद सुदूर हिमालय की तलहटी में बसे अपने सीमांत गाँव डौणू, बेरीनाग, जिला पिथौरागढ़ में 15 दिन प्रवास का समय मिला. मैं इसी गाँव में पैदा हुआ,पला बड़ा. इस गाँव के खेत-खलिहान, ग्वैट, गाड़-गधेरे, छिन-डांडे, उकाव-ओलार, ढूङ्ग्-माट, बोट-बाट, गोरू-बाछा मेरी परवरिश के साक्षी रहे. उस समय गाँव में जो चाचा-चाची, ताऊ ताई, आमा-बूबू, दीदी-भुली, भुला थे. कुछ संघर्ष से हार कर राजी-रोटी के चक्कर में पलायित हो गये. कुछ पुराने लोग गुजर गये. कुछ पेन्सेनर बैंक और स्वस्थ सुविधाओं के चक्कर में गाँव छोड़ कर भाभर चले गये. 150 घरों में अब मात्र 26 आबाद घर बचे हैं. वो भी ऐसे लोग हैं जिनकी हैसियत भाभर में घर खरीदने की फिलहाल नहीं है. अपने इस प्रवास में मेरी सैंकड़ों लोगों से बात हुई. कई बचपन के साथी मिले. कुछ युवा मिले. कई काकी-काका, दाज्यू-बोजी, भूला-भूली मिले. सबके दुखड़े सुने. पहाड़ से उनके मुक्ति चाहने के भाव को समझा. कुछ समस्याओं के समाधान के लिए स्थानीय अधिकारियों से बात भी की. इस यात्रा में मुझे हिमालय के दो स्वरूप समझ में आये. (Development and Migration in Uttarakhand)

हिमालय और पहाड़ के दो रूप हैं. एक रूप सैलानी और पर्यटकों के लिए है. इन्हें हिमालय बहुत भाता है. छह ऋतु और बारहों मास उसका आकर्षण एवं उसका सौन्दर्य अद्भुत और अतुल्य रहता है. शरद और हेमंत में पैय्यां (चेरी) के फूलों पर मधुमक्खियां लदी रहतीं हैं. हेमंत और शरद के बाद जो बसंत का आगमन होता है. प्योली, बुरांश, किल्मोड़ा, हिसालू, आड़ू, पुलम, खुमानी न जाने क्या-क्या फूल-पत्ते पूरे हिमालय में अपनी खुशबू बिखेरते रहते हैं. जंगल में जंगली फलों की बहार आ जाती है. बरसात में चारों तरफ बहते निर्झर झरने, कल-कल करती नदियां, और ऊपर से चांदी के मुकुट की तरह फैला हिमालय सबके मन को चुंबक की तरह आकर्षित करता है. प्रदूषण मुक्त परिवेश और शुद्ध हवा गौरा-महेश्वर के देश में लोगों को खीच लाती हैं. कुमाऊं हिमालय की बोलती तस्वीर नैनीताल, रानीखेत, अल्मोड़ा चंपावत, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चौकोड़ी, ग्वालदम, सामा, मुनस्यारी, बिनसर और कौसानी से पर्यटकों के सामने दिखती हैं. इसी रूप पर राहुल सांकृत्यायन, धरमवीर भारती और कई लोग बहुत कुछ लिखे. लेकिन प्रारंभ से देखें तो काल चिंतन में एडविन थामस एटकिंसन की 1884 में प्रकाशित हिमालयन गजेटियर को हिमालय के जीवन, भूगोल, जीवविज्ञान सभ्यता-संस्कृति पर प्रकाश डालने वाला एक प्रमाणिक दस्तावेज माना जा सकता है.

फोटो: सुधीर कुमार

लेकिन हिमालयी जीवन का एक दूसरा चेहरा भी है. जो निष्ठुर, निर्मोही, कठोर है. गाँवों मे मूलभूत सुविधाओं का आज भी अभाव है. ग्रामीण सड़कों का गड्ढों से संबंध सरकारी तंत्र और जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा की दास्तां कहता हैं. ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ सुविधाएं न के बराबर हैं. अगर कहीं डिस्पेंसरी होगी भी तो डाक्टर नहीं मिलेगा. दूरदराज के गांवों में गंभीर बीमारी से त्रस्त मरीजों अथवा प्रसूता महिलाओं को अस्पताल आने के लिए डोली का सहारा लेना पड़ता है. तहसील स्तर से नीचे प्राथमिक चिकित्सालय तक नहीं मिलेंगे. आज से 40-50 साल पहले जो पैंसनर उत्तराखंड के गाँवों में ही बसते थे उन्होंने स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में तराई क्षेत्रों को पलायन करना प्रारंभ कर दिया है. काठगोदाम से मुनस्यारी तक जो रहवासी हैं उनका जीवन कठोर है, कठिन है और दुर्गम भी. हर कदम पर पलकों के खुलने से पलकों के बंद होने तक संघर्ष है. अल्मोड़ा, नैनीताल, रानीखेत, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत के शहरी क्षेत्रों को छोड़ दीजिए तो सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के रहवासियों का जीवन कठिन है.

गाँव के फौजी प्राणदा (प्राण दत्त पाठक) और बादुर दा (बहादुर राम) फौज से सूबेदार से रिटायर है. 25 साल रिटायरमेंट के बाद भी इन्होंने गाँव नहीं छोड़ा. लेकिन अब हल्द्वानी पलायन ये अपनी मजबूरी बताते हैं. 70-72 साल की उम्र में पेंसन लेने स्टेट बैंक पांखू जाना पड़ता है, जो सड़क से 20 किलोमीटर है. सड़क के हाल ये हैं कि 20 कम चलने मैं 2 घंटा लग जाता है. बेरीनाग में सामुदायिक स्वास्थ केंद्र है जो डौणू, दशोली, लचिम, ओखरणी, चुचेर से 30—50 किलोमीटर दूर है. सामान्यतः बेरीनाग से डाक्टर हल्द्वानी के अस्पतालों को रिफर कर देते है. दोनों फौजी माह में एक बार हेल्थ कारणों से हल्द्वानी जाते है. एटीएम की बात करो तो 50 किमी बेरीनाग जाना पड़ेगा डग्गामार जीप में. अब ये दोनों मन बना रहे हैं हल्द्वानी शिफ्ट होने का. कराला, लचिमा, सांगोड़, ओखरणी, चुचेर, डौणू, दशोली के कई पैंसनर हैं जो ये दंश झेल रहे हैं. ये रिटायर्ड लोग चाहते हैं की-5-6 गाँवों के बीच एक ग्रामीण बैंक की शाखा खुल जाय, एक डिस्पेंसरी खुल जाय, ग्रामीण यातायात और आवागमन में सुधार हो जाए.

बदहाल सड़क

यह नहीं हुआ तो 10-12 गाँवों का यह समूह आने वाले समय में धीरे धीरे वीरान हो जाएगा. कोरोना कल में कई युवा गाँव आए. नेट सुविधा न होने के कारण वे वर्क फ्राम होम नहीं कर पाए अंततः हताश होकर लौट गये शहरों को.

किसानों का अपना रोना है. खूब पालक, लौकी, गडेरी, राजमा, भट्ट, गहत, फ्रासबीन, लोबिया गाँव के लोग पैदा कर रहे हैं. लेकिन थल, बेरीनाग के बाजार में इतनी डिमांड नहीं है. हल्द्वानी माल पहुंचाना और वहाँ इसकी बिक्री इनके बूते की बात नहीं है. कुमेर सिंह बताते हैं की उन्होंने इस सीजन में 30-40 क्विंटल गडेरी पैदा की, अदरक, आलू, केला और भी बहुत कुछ. लेकिन बाजार के अभाव में ये सब हतोत्साहित है. फल, सब्जी और अनाज किसान पैदा करता है. गाँव के परम राम, करमु और उनकी टीम निगालू के डोके, डाले, सूप, टोकरे, मोस्टे बनाने मे मास्टर हैं और लोकल आवश्यकताओं को पूरा करते हैं. अगर इनको सरकार बाजार उपलब्ध करा दे तो ये कुटीर उद्योग का स्वरूप ले सकता है. आजादी के 73 साल बाद भी सरकार ने न तो इनके हुनर को बढ़ावा दिया न ही इनके उत्पाद के मार्केटिंग की कोई व्यवस्था की है. सरकार गाँवों से इनके उत्पाद को खरीदने का कोई सिस्टम बनाए तो इनकी आमदनी बढ़ेगी और इनका मनोबल भी बढ़ेगा. इससे पलायन भी रुकेगा.

नेशनल हाइवे 309 कोटमुन्या से कुमाऊ की प्रसिद्ध कोटगाड़ी देवी के मंदिर को जाता है. इस सड़क का सर्वे 1972-73 में हुआ था, तब में कक्षा 8 में पढ़ता था. आज 47 साल बाद भी लोक निर्माण विभाग की यह सड़क बन विभाग के मास्टरोल अथवा नरेगा के तहत बनी सी लगती है. टूटी-फूटी, आगे-पीछे, दाहिने-बाएं गड्ढे ही गड्ढे. यह सड़क पूरी पुंगरौ पट्टी को बेरीनाग और थल से जोड़ती है. सड़क की हालत इतनी खराब है कि हजारों तीर्थ यात्री और दर्शनार्थी सरकार को कोसते हुए दर्शन करते है. कोटमुन्या-पाँखू लिंक रोड से ग्राम दशौली प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क से जुड़ता है. ये टार सड़क भी चलने लायक ही नहीं है. मैंने हजारों प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़कें देखी हैं पर इतनी बदहाल कहीं नहीं देखी.  इसी सड़क को आगे लोक निर्माण विभाग ने डौणू, लछिमा, ओखरानी, चुचेर, झींडियाँ को जोड़ा है. यह कच्ची सड़क है. गत वर्षांत में प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क का एक हिस्सा मलवे में धंस गया वह आज तक मरम्मत की बाट जोह रहा है. बड़े 4 पहिये वाहनों का आवागमन तब से ठप्प है. जिन सड़कों पर वाहन दौड़ने चाहिये उनमें लोग खच्चरों से सामान ढो रहे हैं. गाँव में बारात नहीं आती. लोग कहते है कि आपके गाँव बस और टेक्सी से हम नहीं आ सकते अतः लड़की वाले हल्द्वानी, बेरीनाग या चौकोड़ी बारात की व्यवस्था करें. बीपीएल का राशन भी सड़क होने के बाद भी खच्चरों से राशन की दुकान तक पहुंच रहा है. ये विकास की त्रासदी ही है. कदाचित, सरकार के खाते में यह पक्की सड़क होगी.

गाँव के इर्द गिर्द स्कूलों की भरमार है पर विद्यार्थी कम हैं. पब्लिक स्कूल के क्रेज के कारण प्राइमरी, जूनियर हाईस्कूल के मास्टरों के बच्चे भी चौकोड़ी के पब्लिक स्कूलों में पढ़ रहे हैं. बिजली आपूर्ति के मामले में सरकार की तारीफ करना मैं उचित समझता हूँ.

कुमाऊनी सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की त्रिवेणी

इस क्षेत्र में पलायन रुके इसके लिए ग्रामीण पेन्सनरों के लिए बैंक की एक ब्रांच, जीवन रक्षा के लिए एक डिस्पेंसरी, ग्रामीण कृषकों के उत्पाद हेतु बाजार व्यवस्था अति आवश्यक है. सड़क के होते हुए भी मरीजों और प्रसव पीड़िताओं को डोली में ले जाने के दंश से मुक्ति के लिए खस्ताहाल सड़कों की मरम्मत आवश्यक है. उत्तराखंड बनने के बाद लोगों को लगता था कि विकास चहुँमुखी और जनोन्मुखी होगा लेकिन ढाक के तीन पात. सीमावर्ती जिलों पर तो सरकार को ज्यादा ध्यान देना चाहिये. विकास का मतलब चार धाम यात्रा के लिए आल वेदर रोड का बन जाना या रुद्र प्रयाग तक रेल लाइन का बन जाना ही नहीं है. विकास का मतलब प्रदेश के मुखिया को सभी जिलों की समस्याओं के हिसाब से समाधान देकर रहवासियों की खुशहाली और विकास का मार्ग प्रशस्त करना भी है. शायद यह कहानी हर सुदूर गाँव की होगी जिनकी आवाज प्रशासन अथवा उनके जनप्रतिनिधियों के द्वारा देहरादून तक सत्ता के कान में नहीं पहुचाई जाती. पुराने बुजुर्ग तो यहाँ तक कहते हैं की जब उत्तर प्रदेश सरकार थी तो काठगोदाम से लखनऊ पहुंचना सरल था काम भी सरलता से हो जाते थे. उत्तराखंड बनने के बाद विकास तराई मुखी हो गया है और पलायन की बाढ़ आ गयी है. ये लोग पूरे पुंगरौ पट्टी के राठवार घरों के पलायन का हिसाब बताते है. वास्तव में इस क्षेत्र के विकास की बात करें तो विगत 25 सालों में इनके हिस्से के विकास का अंश लगभग शून्य है.एक प्रशासनिक अधिकारी ने तो स्वीकार भी किया कि यहाँ सारे सड़कों के पूर्व निर्माण में भ्रष्टाचार की जांच चल रही है. प्रशासनिक अमला भी इस सीमांत जिले में कदाचित टाइम पास मोड में रहता होगा ऐसा विकास के इंफ्रास्ट्रक्चर और प्रगति को देख कर लगता है. जो भी हो लोग सरकार की उपेक्षा से हताश और निराश हैं उनको समाधान चाहिये. सांसद अल्मोड़ा से है और विधायक गनाई से. स्थानीय लोग उनके दर्शन करना चाहते है विकास के लिए, शायद उनकी फ़रियाद कभी कोई सुन ले. कई गांवों में मूलभूत आवश्यकताओं की लड़ाई लड़ने के लिए भी लोग नहीं बचे हैं.

इस संदर्भ में अपने स्तर पर मैंने भी प्रशासनिक अधिकारियों एवं अन्य उत्तरदायी संस्थाओं से निवेदन किया है. हो सकता है कोई फ़रियाद सुन ले इस क्षेत्र की सुध ले ले और ये गाँव पलायन से बच जायें. (Development and Migration in Uttarakhand)

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 वड़ की पीड़ा और आमा के हिस्से का पुरुषार्थ

मूल रूप से ग्राम भदीना-डौणू; बेरीनाग, पिथौरागढ के रहने वाले डॉ. गिरिजा किशोर पाठक भोपाल में आईपीएस अधिकारी हैं.

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Sudhir Kumar

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