कला साहित्य

चट्टान से गिरकर अकाल मृत्यु को प्राप्त पहाड़ी घसियारिनों को समर्पित लोकगाथा ‘देवा’

बहुत सुन्दर गाँव था. खूब गधेरा पानी. अपनी बंजाणी घना जंगल और थी उसी गाँव में एक सुन्दर निर्मल झरने की तरह लड़की देवा. सारे गाँव की बेटी. हमेशा उसके पास एक हँसी रहती थी. दुखी से दुखी उस हँसती हुई लड़की को देख अपना दुःख भूल जाता था. सभी चाहते थे सुबह उठते ही सबसे पहिले उन्हें देवा ही दिखे. सुन्दर दाँत चमकते, मोहिला चेहरा, गुलाबी गाल,लम्बी लटकती चुटिया वाली देवा कभी किसी से जोर से बात नहीं करती थी, न किसी की हँसी उड़ाती. हर एक के दुःख में ठंडक पहुँचाती. सारी अच्छाई उसमें समाई हुई. मिल बाँटकर खाना उसकी आदत थी. कभी किलमोड़े या काफल ही इकट्ठा कर लिए तो उसमें कड़वा तेल, नमक डालकर सब को खाने को देती. अकेले उसके लिए कुछ न था, सारी दुनिया उसकी थी. घर वाले कहते, तू काम पर न जा. तेरे सुन्दर पाँव फट जाएँगे, सुन्दर हाथ मैले हो जाएँगे, गुलाबी गाल पीले पड़ जाएँगे. पर वह कहती, अरे काम करने से तन और भी सुन्दर हो जाता है.
(Deva Folk Stories Uttarakhand)

मेरी माँ की कमर में दर्द है वह कैसे लकड़ी, घास लाएगी? कैसे रोपणी लगाएगी? वह दूर-दूर जंगल से घास लकड़ी लाती और जंगलों में इतनी सुरीली आवाज से गाना गाती कि कुहेड़ी भी कूकना बन्द कर देती थी. गाँव की सारी घसियारिने देवा के साथ ही जंगल जाना चाहती थीं. उसकी खनखनाती हँसी उसकी मजाक ही उनके सारे कठिन कष्टों को दूर कर देते थे. ‘मेरो बोली भाग’ कहनेवाली, मजदूरी करनेवाली महिलाएँ भी उसे देखकर सारी अपनी थकान भूल जाती थीं. देवा बोलती कम थी, हर बात का जवाब धीमे से देती थी. गुस्सा उसे आता ही न था और झूठ वह बोलती नहीं थी.

जब सूरज पहाड़ से आता और शाम को पहाड़ में जातेजाते सारे हयूं वाले पहाड़ों को आग की तरह बना देता तो उस समय वह चुप हो जाती और बहुत दूर-दूर तक फैले आसमान में बादलों के रंग-बिरंगे रंगों को देख कहीं खो जाती थी. कभी किसी पेड़ में कमर टिकाकर वह उदास लगने वाले लम्बी तानों वाले गीत गाती.

उसे फूलों से बहुत प्यार था. बहुत सी महिलाएँ जंगल के फूल बुरांस आदि तोड़कर अपने घास के गट्ठर में या अपने बालों में लगा लेती थीं पर वह कभी ऐसा नहीं करती थी. वह कहती, “फूल तोड़ने के लिए नहीं, मन में रखने के लिए होते हैं, वह डाली में ही अच्छे लगते है, देवता के सामने मुझते हुए नहीं.” माँ पिता को डर लगी रहती थी कि इतना सब उसे अच्छा मानते हैं कहीं इसे किसी की नजर न लग जाए इसलिए जब भी वह जंगल से आती तो उसकी ईजा उसकी नजर खुच्याणीं जलाकर उतार देती.
(Deva Folk Stories Uttarakhand)

जंगल के जानवर, उसके दगणया थे. घुरड़ अपने बदन को उसके सामने रखकर खुजली करने को कहते थे. मोनाल भी उसके सामने बिना किसी डर के गुजर जाते थे. जंगल में औरतें घास या लकड़ी लाकर थक के चूर होकर कहीं लधार मारकर पसर जाती तो वह अपना खान बाँट देती. कभी-कभी अपने लिए भी न रखती कहती- मुझे भूख नहीं उसके साथ जल्दी ही ढिमी जाते. औरतें जब अपने खेत को उजाड़ खाया देखकर जोर से घात लगाने की धमकी देते गाली देतीं तो अचानक सामने देवा पड़ जाएँ तो के चुप हो जातीं. उसके सामने न जाने क्या बात थी कोई गलत बात कर ही नहीं ना था. डांडा कांडा दूर-दूर गाँवों में बस उसका ही नाम था देवा…देवा.

एक दिन सबेरे-सबेरे ही वह चल दी घास काटने. ईजा ने कहा, “कहा जा रही है इतनी दूर, आराम कर ले. हमेशा काम काम….” उसने कहा, “नहीं ईजा जाड़े आने को हो रहे पास नहीं लाऊँगी तो हमारी गाय ब्वाना क्या खाएगी. लकड़ी नहीं लाऊँगी तो जाड़ों में हयू पड़ने के समय मेरे बड़बाज्यू आग कैसे तापेंगे…” और वह घास काटने चल दी….

“जंगल में उसने खूब घास काटी उसके गट्ठर बनाए. और तभी…. अचानक उसने देखा एक चट्टान के पीछे नई लगी कोमल-कोमल हरी घास. उस घास को देखकर उसे अपनी नई हुई बछिया याद आई. अहा! यह उसके लिए स्वादिष्ट रहेगी. उसने कमर में फेंटा बाँधा और उसमें दातूली खोसी चढ़ गई बकरी की तरह चट्टान पर. शाम होने को आई . पाँव टिकाकर वह चट्टान से नीचे उतर रही थी कि ये क्या हुआ, पाँव फिसला और वह गिर गई घाटी-घाटी. पत्थर लुढकते रहे. सारा जंगली, पहाड़ थर-थर काँपने लगा. वह इतने ऊपर से घाटी में गिरी कि वह हवा में ही बीस पल तक रही. उसके गिरने की गूंज दूसरे पहाड़ से चोट खाकर वापस आकर अपना सर पटकती रही और थोड़ी देर बाद सारी घाटी पहाड़ी शान्त.
(Deva Folk Stories Uttarakhand)

इतनी शरम आई उस पहाड़ को कि वह शरम से सर झुकाए खामोश कितनी ही देर तक खड़ा रहा, हवा ने बहना बन्द कर दिया, पेड़ों ने झूमना, जंगली जानवरों ने चरना और चील ने उड़ना बन्द कर दिया. गलती किसी की नहीं थी, पर सब अपनी गलती मान रहे थे कि उनमें इतना शऊर न था कि देवा को गिरने से बचा लेता. अभी भी जैसे कोई सिसक रहा था देवा… हो… देवा ओईजा… ओ बाबू…

घसियारिनें बिना उसके घर वापस लौटीं. ओह ! यह क्या अंणकस्सै हो गया. सब दौड़े-दौड़े आए. जंगल में रोशनियाँ-ही रोशनियाँ फैल गईं पर देवा कहीं नहीं मिली. न जाने गधरे में समा गई या घाटी में या कही अन्तरिक्ष में. गाँव में किसी के घर उस रात चूल्हा नहीं जला.

और फिर हयू पड़ा. उसकी गाय ब्वाना ने घास कई दिन तक नहीं खाई. बड़बाज्यू ने आग नहीं तापी, पर सालों तक लोग उसे याद करते रहे. उसकी याद में उस इलाके में कोई न फूल तोड़ता न घास काटता. फूल खिलकर मुरझा जाते. जोनी-जोनी घास बढ़ गई पर उसे कोई नहीं काटता, शिकारी उस इलाके के जानवर नहीं मारते. लोग समझते वहाँ अभी भी देवा है अभी भी. देवा! जो, जंगल फूलों जानवरों सबसे प्यार करती थी.

सालों बीत गए उसे बीते हुए. फिर एक दिन एक घसियारिन रास्ता भूल गई. शाम खत्म हो गई रात हो गई पर रास्ता का पता ही न था. वह रोने लगी. बाघ की दहाड़ आने लगा. चीड़ के पेड़ों से टकराकर हवा स्यूं स्यूस्याट कर उसे और डराने लगी. उसने सर अपने घुटने में रखकर रोना शुरू कर दिया तभी उसने किसी के चलने और हँसने की आवाज सुनी. तभी उसने देखा सर पर घास लिए एक सुन्दर-सी प्यारी लड़की मुस्कुराती हुई उसके पास आई. उसके फेंटे में दराँती घुसी थी. उसे देख,वह डर गई.
(Deva Folk Stories Uttarakhand)

उसने कहा, “डरो नहीं, मैं देवा हूँ. आज रात मेरे साथ रहो. सुबह चले जाना.” फिर उसे वह उडयार में ले गई. वहाँ छिलके की रोशनी थी और पत्तलों में घी के साथ लरबयाट वाली उसकी पसन्द की सब्जी मडुवे की रोटी थी. उसने छक के खाया. फिर वह ले आई मुलायम तिब्बती ऊन वाले थुलमे. रातभर वह खर्राटे मार उसे ओढ़ सोती रही. उसे उस लड़की को देखकर कोई डर न लगा फिर सुबह फूलों के स्पर्श से उसकी आँख खुली. देखा तो देवा उसे देखकर मुस्कुरा रही है. अभी सूरज आने में कुछ देर थी. हल्की जोनी हो रही थी. उसने इशारा कर रास्ता बतलाया, “जाओ बैंणी सबसे कहना जंगलों में आने से कभी मत डरना. यहाँ कोई नहीं चटान से गिरेगी. बस यहाँ फूल नहीं तोड़ना, पेड़ मत काटना, अब जाओ…”

उस महिला ने वह किस्सा सारे गाँव वालों को बतलाया. बुजुर्गों ने कहा, “अरे ! वह देवा होगी हमारी देवा.” फिर सबने मिलकर वहाँ एक मन्दिर बनाया. उस जगह में चट्टानों से गिरकर कई औरतें पहिले मरीं पर उसके बाद कोई औरत वहाँ नहीं मरी. भालू बाघ कभी वहाँ औरतों को उठा ले जाते थे, पर अब कोई ऐसी घटना नहीं हुई. देवा सबकी रक्षा करती है. वहाँ खूब घना जंगल हो गया था.

कहते हैं एक बार एक ठेकेदार ने वहाँ जंगल काटने का प्रयास भी किया पर जैसे ही उसने काटा कि उसका बच्चा बीमार हो गया. इस पर उसने देवा के मन्दिर में फूल चढ़ाए और दस पेड़ और लगाए तो बच्चा बिल्कुल ठीक हो गया. अब गाँव में कोई विपत्ति नहीं आती. कोई गलत काम नहीं करता. किसी पर अन्याय है. हो तो वह देवा के मन्दिर में जाता है तो सब ठीक हो जाता है. हर एक की इच्छा पूरी होती.

ऐसी ही थी वह सुन्दर भली ज्योनि सी लड़की ‘देवा’.

पहाड़ों में अक्सर अगर एक खास जगह पर सड़क दुर्घटनाओं में लोग मरते हैं तो लोग वहाँ मन्दिर बना देते हैं. विश्वास है कि फिर वहाँ दुर्घटना नहीं होती. घास काटते समय चट्टान से गिरकर घास काटने वाली महिलाएं अकाल मृत्यु को प्राप्त होती हैं. उन सब महिलाओं को समर्पित यह लोकगाथा ‘देवा’

यह लोककथा प्रभात उप्रेती की किताब ‘उत्तराखंड की लोक एवं पर्यावरण गाथाएं’ से ली गयी है.
(Deva Folk Stories Uttarakhand)

किसी जमाने में पॉलीथीन बाबा के नाम से विख्यात हो चुके प्रभात उप्रेती उत्तराखंड के तमाम महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुकने के बाद अब सेवानिवृत्त होकर हल्द्वानी में रहते हैं. अनेक पुस्तकें लिख चुके उप्रेती जी की यात्राओं और पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी रही है.

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